ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒यो॒द्धेव॑ दु॒र्मद॒ आ हि जु॒ह्वे म॑हावी॒रं तु॑विबा॒धमृ॑जी॒षम् । नाता॑रीदस्य॒ समृ॑तिं व॒धानां॒ सं रु॒जानाः॑ पिपिष॒ इन्द्र॑शत्रुः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यो॒द्धाऽइ॑व॑ । दुः॒ऽमदः॑ । आ । हि । जु॒ह्वे । म॒हा॒ऽवी॒रम् । तु॒वि॒ऽबा॒धम् । ऋ॒जी॒षम् । न । अ॒ता॒री॒त् । अ॒स्य॒ । सम्ऽऋ॑तिम् । व॒धाना॑म् । सम् । रु॒जानाः॑ । पि॒पि॒षे॒ । इन्द्र॑ऽशत्रुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् । नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥
स्वर रहित पद पाठअयोद्धाइव । दुःमदः । आ । हि । जुह्वे । महावीरम् । तुविबाधम् । ऋजीषम् । न । अतारीत् । अस्य । सम्ऋतिम् । वधानाम् । सम् । रुजानाः । पिपिषे । इन्द्रशत्रुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अयोद्धेव) न योद्धा अयोद्धा त्द्वत् (दुर्मदः) दुष्टो मदो यस्य सः (आ) समन्तात् (हि) खलु (जुह्वे) आह्वत वानस्मि वा छन्दसि सर्वेविधयो भवन्ती इत्युवङादेशो न। (महावीरम्) महांश्चासौ वीरश्च तमिव महाकर्षणप्रकाशादिगुणयुक्तं सूर्य्यलोकम् (तुविबाधम्) यो बहून् शत्रून् बाधते तम् (ऋजीषम्) उपार्जकम्। अत्र। अर्जेर्ऋज्च। उ० ४।२९। इत्यर्जधातोरीषन् प्रत्यय ऋजादेशश्च। (न) निषेधार्थे (अतारीत्) तरत्युल्लंङ्घयति वा। अत्र वर्त्तमाने लुङ्। (अस्य) सूर्यलोकस्य। (समृतिम्) संगतिम्। (बधानाम्) हननानाम् (सम्) सम्यगर्थे (रुजानाः) नद्यः। रुजाना इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३। (पिपिषे) पिष्टः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (इन्द्रशत्रुः) इन्द्रः शचुर्यस्य वृत्रस्य सः ॥६॥
अन्वयः
पुनस्तौ कथं युध्येते इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
यथा दुर्मदोऽयोद्धेवायं मेघ ऋजीषन्तु विबाधं महावीरमिन्द्रं सूर्यलोकमाजुह्वे यदा सर्वतो रुतवानिव हतोयमिन्द्रशत्रुः संपिपिषे स मेघोऽस्ये बधानां समृतिं नातःरीत्समंतान्नोल्लंघितवान् हि खल्वस्य वृत्रस्य शरीरादुत्पन्नारुजानाः नद्यः पर्वतपृथिव्यादि कूलान् छिन्दन्त्यश्चलन्ति तथा सेनासुविराजमानोऽध्यक्षः शत्रुषु चेष्टेत ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा मेघोजगत्प्रकाशाय प्रवर्त्तमानस्य सूर्य्यस्य प्रकाशमकस्मादुत्थायावृत्य च तेन सह युद्ध्यत इव प्रवर्त्तते ऽपितुसूर्य्यस्य सामर्थ्य नालं भवति। यदायं सूर्येण हतो भूमौ निपतति तदातच्छरीरावयवेन जलेन नद्यः पूर्णाभूत्वा समुद्रं गच्छन्ति तथा राजा शत्रून् हत्वाऽस्तं नयेत् ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे युद्ध करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
(दुर्मदः) दुष्ट अभिमानी (अयोद्धेव) युद्ध की इच्छा न करनेवाले पुरुष के समान मेघ (ऋजीषम्) पदार्थों के रस को इकट्ठे करने और (तुविबाधम्) बहुत शत्रुओं को मारनेहारे के तुल्य (महावीरम्) अत्यन्त बल युक्त शूरवीर के समान सूर्य्यलोक को (आजुह्वे) ईर्ष्या से पुकारते हुए के सदृश वर्त्तता है जब उसको रोते हुए के सदृश सूर्य ने मारा तब वह मारा हुआ (इन्द्रशत्रुः) सूर्य्य का शत्रु मेघ (पिपिषे) सूर्य से पिसजाता है और वह (अस्य) इस सूर्य की (बधानाम्) ताड़नाओं के (समृतिम्) समूह को (नातारीत्) सह नहीं सकता और (हि) निश्चय है कि इस मेघ के शरीर से उत्पन्न हुई (रुजानाः) नदियाँ पर्वत और पृथिवी के बड़े २ टीलों को छिन्न-भिन्न करती हुई बहती हैं वैसे ही सेनाओं में प्रकाशमान सेनाध्यक्ष शत्रुओं में चेष्टा किया करे ॥६॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे मेघ संसार के प्रकाश के लिये वर्त्तमान सूर्य के प्रकाश को अकस्मात् पृथिवी से उठा और रोक कर उसके साथ युद्ध करते हुए के समान वर्त्तता है तो भी वह मेघ सूर्य के सामर्थ्य का पार नहीं पाता जब यह सूर्य मेघ को मारकर भूमि में गिरा देता है तब उसके शरीर के अवयवों से निकले हुए जलों से नदी पूर्ण होकर समुद्र में जा मिलती हैं। वैसे राजा को उचित हैं कि शत्रुओं को मारके निर्मूल करता रहे ॥६॥
विषय
इन्द्र - वृत्र - संग्राम
पदार्थ
१. (अयोद्धा इव) - यह कामवासना अप्रशस्त योद्धा की भाँति (दुर्मदः) - दुष्ट मदवाली होती हुई (महावीरम्) - उस महान् वीर इन्द्र को (हि) - निश्चय से (आजुह्वे) - युद्ध के लिए ललकारती है, उस इन्द्र को जो (तुविबाधम्) - महान् शत्रुओं का वाधन करनेवाला है तथा (ऋजीषम्) - [शत्रूणामपार्जकम्] शत्रुओं को दूर भगानेवाला है । इन्द्र, अर्थात् जितेन्द्रिय पुरुष के सम्मुख काम की क्या शक्ति ! परन्तु जैसे जो योद्धा जितना कम वीर होता है, वह उतना ही अधिक अभिमानवाला होता है, उसी प्रकार यह कामदेव भी उस इन्द्र के सम्मुख अत्यन्त तुच्छ स्थितिवाला है, तदपि गर्जता है, इसे अपनी प्रबल शक्ति का अत्यन्त गर्व है ।
२. परन्तु इसका यह सारा गर्व चूर - चूर हो जाता है जबकि इसे इस इन्द्र से टक्कर लेनी पड़ती है, यह (अस्य) - इस इन्द्र के (वधानाम्) - क्रियाशीलतारूप वज्रों के (समृतिम्) - संगम व सम्प्राप्ति को (न अतारीत्) - पार नहीं कर पाता, अर्थात् इन्द्र के अस्त्रों के प्रहार से यह अपने को बचा नहीं पाता ।
३. (इन्द्रशत्रुः) - इन्द्र है शासन करनेवाला जिसका ऐसा वह 'वासनाओं का सेनानी' काम (संरुजानाः) - [रुजो भंगे] कामवासना के साथ ही रणांगण में भग्नीभूत व्यूहवाली, अतएव भाग खड़ी हुई वासनाओं को ही (पिपिषे) - पीस डालता है । काम के नष्ट होने पर अन्य वासनाएँ आप ही नष्ट हो जाती हैं । जैसे एक दुर्मद हस्ती रण में भाग खड़ा होने पर अपनी ही सेना को कुचलने लगता है, उसी प्रकार यह 'काम' इन्द्र से पराजित होकर अपनी ही सेना को पीस डालता है । काम के भाग खड़े होने पर क्रोधादि उसी पराजित व भागते हुए काम से पिस - पिसा जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम वस्तुतः इन्द्र बनें । शत्रुओं के भगानेवाले हम 'काम' पर प्रबल आक्रमण करें, यह नष्ट होता हुआ 'काम' अपने अन्य क्रोधादि साथियों को आप ही नष्ट कर दे ।
विषय
फिर वे कैसे युद्ध करते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यथा दुर्मदः अयोद्धेव अयं मेघ ऋजीषीजषं तुविबाधं महावीरं इन्द्रं सूर्यलोकम् आ जुह्वे यदा सर्वतः रुतवान् इव हतः अयम् इन्द्रशत्रुः संपिपिषे स मेघः अस्ये बधानां समृतिं न अतारीत् समन्तात् नः उल्लंघितवान् हि खलु अस्य वृत्रस्य शरीरात् उत्पन्ना रुजानाः नद्यः पर्वतपृथिव्यादि कूलान् छिन्दन्त्यः चलन्ति तथा सेनासु विराजमानः अध्यक्षः शत्रुषु चेष्टेत ॥६॥
पदार्थ
(यथा)=जैसे, (दुर्मदः) दुष्टो मदो यस्य सः=दुष्ट अभिमानी, (अयोद्धेव) न योद्धा अयोद्धा तद्वत्=युद्ध की इच्छा न करनेवाले पुरुष के समान, (अयम्)=यह, (मेघ)=मेघ, (ऋजीषम्) उपार्जकम्=उपार्जित करने वाले को, (तुविबाधम्) यो बहून् शत्रून् बाधते तम्=बहुत शत्रुओं को रोकता है, (महावीरम्) महांश्चासौ वीरश्च तमिव महाकर्षणप्रकाशादिगुणयुक्तं सूर्य्यलोकम्=अत्यन्त बल महा आकर्षणप्रकाश आदि गुण से युक्त वीर के समान (इन्द्रम्-सूर्यलोकम्)=सूर्य्यलोक को, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (जुह्वे) आहूतवानास्मि=आहुति देने वाला है, (यदा)=जब, (सर्वतः)=सब ओर से, (रुतवान्)=क्रन्दन किये हुए के, (इव)=समान, (हतः)= मारा हुआ, (अयम्)=यह, (इन्द्रशत्रुः) इन्द्रः शत्रुर्यस्य वृत्रस्य सः=सूर्य्य का शत्रु मेघ, (संपिपिषे)=अच्छी तरह पतनशील, (सः)=वह, (मेघः)=मेघ, (अस्य) सूर्यलोकस्य=इस सूर्यलोक के, (बधानाम्) हननानाम्=हनन करने को, (समृतिम्) संगतिम्=समूह का, (न) निषेधार्थे=नहीं, (अतारीत्) तरत्युल्लंङ्घयति वा=तैरता है अथवा लांघ जाता है, (समन्तात्)=हर ओर से, (नः)=हमें, (उल्लंघितवान्)=उल्लंघित किये हुए को, (हि) खलु=निश्चय से, (अस्य) सूर्यलोकस्य=सूर्यलोक के, (वृत्रस्य)=मेघ के, (शरीरात्)=शरीर से, (उत्पन्ना)=उत्पन्न, (रुजानाः) नद्यः=नदियां, (पर्वतपृथिव्यादि)=पर्वत, पृथिवी आदि, (कूलान्)=टीलों को, (छिन्दन्त्यः)=छिन्न-भिन्न करती हुई (चलन्ति)=बहती हैं, (तथा)=वैसे ही, (सेनासु)=सेनाओं में (विराजमानः)=विराजमान, (अध्यक्षः)=अध्यक्ष अर्थात् सेनाध्यक्ष, (शत्रुषु)=शत्रुओं की, (चेष्टेत)=गतिविधि पर दृष्टि रखे॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे मेघ संसार के प्रकाश के लिये प्रयोग किये गये सूर्य के प्रकाश को अकस्मात् पृथिवी से उठाकर और उसे मोड़कर उसके साथ युद्ध करने के समान प्रारम्भ करता है तो भी वह सूर्य के सामर्थ्य के बराबर नहीं पाता है। जब यह सूर्य मेघ को मारकर भूमि में गिरा देता है, तब उसके शरीर के अङ्गों से निकले हुए जलों से नदी पूर्ण होकर समुद्र की ओर जाती हैं। वैसे राजा शत्रुओं को मारके उनके अन्त की ओर ले जाये ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यथा) जैसे (दुर्मदः) दुष्ट अभिमानी (अयोद्धेव) युद्ध की इच्छा न करनेवाले पुरुष के समान, (अयम्) इस (मेघ) मेघ के (ऋजीषम्) उपार्जित करने वाले को और (तुविबाधम्) बहुत शत्रुओं को रोकते हो। (महावीरम्) अत्यन्त बल, महा आकर्षण, प्रकाश आदि गुण से युक्त वीर के समान (इन्द्रम्) सूर्य्यलोक को (आ) हर ओर से (जुह्वे) आहुति देने वाला है। (यदा) जब (सर्वतः) सब ओर से (रुतवान्) क्रन्दन किये हुए के (इव) समान (हतः) मारा हुआ (अयम्) यह (इन्द्रशत्रुः) सूर्य का शत्रु मेघ (संपिपिषे) अच्छी तरह पतनशील, (सः) वह (मेघः) मेघ (अस्य) इस सूर्यलोक के (बधानाम्) हनन करने के (समृतिम्) समूह को (न) नहीं (अतारीत्) लांघता है। (समन्तात्) हर ओर से (नः) हम (उल्लंघितवान्) उल्लंघित किये हुए को (हि) निश्चय से (अस्य) सूर्यलोक के (वृत्रस्य) मेघ के (शरीरात्) शरीर से (उत्पन्ना) उत्पन्न (रुजानाः) नदियां, (पर्वतपृथिव्यादि) पर्वत, पृथिवी आदि (कूलान्) टीलों को (छिन्दन्त्यः) छिन्न-भिन्न करती हुई (चलन्ति) बहती हैं। (तथा) वैसे ही (सेनासु) सेनाओं में (विराजमानः) विराजमान (अध्यक्षः) अध्यक्ष अर्थात् सेनापति (शत्रुषु) शत्रुओं की (चेष्टेत) गतिविधि पर दृष्टि रखे॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अयोद्धेव) न योद्धा अयोद्धा त्द्वत् (दुर्मदः) दुष्टो मदो यस्य सः (आ) समन्तात् (हि) खलु (जुह्वे) आह्वत वानस्मि वा छन्दसि सर्वेविधयो भवन्ती इत्युवङादेशो न। (महावीरम्) महांश्चासौ वीरश्च तमिव महाकर्षणप्रकाशादिगुणयुक्तं सूर्य्यलोकम् (तुविबाधम्) यो बहून् शत्रून् बाधते तम् (ऋजीषम्) उपार्जकम्। अत्र। अर्जेर्ऋज्च। उ० ४।२९। इत्यर्जधातोरीषन् प्रत्यय ऋजादेशश्च। (न) निषेधार्थे (अतारीत्) तरत्युल्लंङ्घयति वा। अत्र वर्त्तमाने लुङ्। (अस्य) सूर्यलोकस्य। (समृतिम्) संगतिम्। (बधानाम्) हननानाम् (सम्) सम्यगर्थे (रुजानाः) नद्यः। रुजाना इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३। (पिपिषे) पिष्टः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (इन्द्रशत्रुः) इन्द्रः शचुर्यस्य वृत्रस्य सः ॥६॥
विषयः- पुनस्तौ कथं युध्येते इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यथा दुर्मदोऽयोद्धेवायं मेघ ऋजीषन्तु विबाधं महावीरमिन्द्रं सूर्यलोकमाजुह्वे यदा सर्वतो रुतवानिव हतोयमिन्द्रशत्रुः संपिपिषे स मेघोऽस्ये बधानां समृतिं नातःरीत्समंतान्नोल्लंघितवान् हि खल्वस्य वृत्रस्य शरीरादुत्पन्नारुजानाः नद्यः पर्वतपृथिव्यादि कूलान् छिन्दन्त्यश्चलन्ति तथा सेनासुविराजमानोऽध्यक्षः शत्रुषु चेष्टेत ॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा मेघोजगत्प्रकाशाय प्रवर्त्तमानस्य सूर्य्यस्य प्रकाशमकस्मादुत्थायावृत्य च तेन सह युद्ध्यत इव प्रवर्त्तते ऽपितुसूर्य्यस्य सामर्थ्य नालं भवति। यदायं सूर्येण हतो भूमौ निपतति तदातच्छरीरावयवेन जलेन नद्यः पूर्णाभूत्वा समुद्रं गच्छन्ति तथा राजा शत्रून् हत्वाऽस्तं नयेत् ॥६॥
विषय
वृष्टि विद्या का वर्णन ।
भावार्थ
(दुर्मदः) बुरे, पापमय मद, भोगविलास से तृप्त होने वाला व्यसनी, एवं अपनी प्रजा पर अत्याचार और अन्याय के उपायों से अपने भोग विलास पूर्ण करनेवाला पुरुष (महावीरम्) बड़े वीर, (तुविवाधम्) अनेकों शत्रुओं को पीड़न करने में समर्थ, (ऋजीषम्) उत्तम गुणों, उत्तम ऐश्वर्यों के अर्जन करने वाले अथवा (ऋजीषम्) ऋजु, सरल मार्ग पर जाने वाले धर्मात्मा, नीतिमान्, संग्रहशील पुरुष को (अयोद्धा इव) लड़ना न जानने वाले अकुशल योद्धा के समान (आजुह्वे) युद्ध में ललकार ले। (हि) तो वह दुर्व्यसनी पुरुष (अस्य) इस महावीर धर्मात्मा पुरुष के (वधानां) शस्त्रास्त्रों के (सम् ऋतिम्) एक साथ होने वाले कड़ी मार या एक साथ आने वाले प्रहार को (न अतारीत्) नहीं पार कर सकता। वह उससे बच नहीं सकता। (इन्द्रशत्रुः) सूर्य या वायु का शत्रु मेघ जिस प्रकार वज्र से ताड़ित होकर (रुजानाः) नदियों को और उनके तटों को (सं पिपिषे) तोड़ फोड़ देता है। और नदियाँ विक्षुब्ध होकर भागती हैं उसी प्रकार (इन्द्र-शत्रुः) ऐश्वर्यवान् धर्मात्मा राजा का वह शत्रु दुर्व्यसनी विरोधी भी (रुजानाः) अपनी अति पीड़ित सेनाओं प्रजाओं को (सं पिपिषे) पीस डालता है, मरवा डालता है, और वे मर्यादा तोड़कर भागने लगती हैं। ६
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा मेघ जगत्प्रकाशक सूर्याच्या प्रकाशाला अकस्मात पृथ्वीवर झाकून टाकतो व त्याला रोखतो, त्याच्याबरोबर युद्ध केल्यासारखे वागतो. तरीही तो मेघ सूर्याच्या सामर्थ्याचा अंदाज घेऊ शकत नाही. जेव्हा हा सूर्य मेघाला मारतो व त्याचे भूमीवर पतन होते तेव्हा त्याच्या शरीराच्या अंगांपासून निघालेल्या जलधारांनी नदी पूर्ण भरते व ती वाहून समुद्राला मिळते. तसे राजाने शत्रूला मारून निर्मूल करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Like a naive warrior gone mad, Vrtra, the cloud dared and challenged the sun, great and valiant Indra, vanquisher of many, reducing them to juice. But he could not take the force of the blows of Indra, failed and lay crushed. The streams flow over hills breaking down mounds of earth.
Subject of the mantra
Then, how do they fight? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā)=Like, (durmadaḥ)=wicked arrogant, (ayoddheva)=like a man who does not desire war, (ayam)=this, (megha)=of the cloud, (ṛjīṣam)=to procurer, [aura]=and, (tuvibādham)=stop many enemies, (mahāvīram)=Like a hero with great strength, great charm, light etc. (indram)=to the Sun world, (ā)=from all sides, (juhve)=is a sacrificer, (yadā)=when, (sarvataḥ)=from all sides, (rutavān)=of that who cried out, (iva)=like, (hataḥ)=killed, (ayam)=this, (indraśatruḥ)=Sun's enemy cloud, (saṃpipiṣe)=well degradable, (saḥ)=that, (meghaḥ)=cloud, (asya)=of this sun-world, (badhānām)=slain, (samṛtim)=to group, (na)=not, (atārīt)=crosses over, (samantāt)=from all sides, (naḥ)=we, (ullaṃghitavān)=to the violated, (hi)=definitely, (asya)=of sun-world, (vṛtrasya)=of the cloud, (śarīrāt)=from body, (utpannā)=born, (rujānāḥ)=rivers, (parvatapṛthivyādi)=mountains, earth etc. (kūlān)=to the mounds, (chindantyaḥ)=dissipating, (calanti)=are flowing, (tathā)=in the same way, (senāsu)=in armies, (virājamānaḥ)=splendidly present, (adhyakṣaḥ) =Chief of the Army, that is, Commander, (śatruṣu)=of enemies, (ceṣṭeta)=keep an eye on the activities.
English Translation (K.K.V.)
Like a wicked proud man who does not desire war, stops many enemies who are procurer of this cloud. Like a hero with immense strength, great attraction, light etc. When this Sun's enemy well degradable cloud is slain like cried from all sides, that cloud does not cross the group of destroyers of this Sun-world. The rivers, mountains, earth, et cetera emanating from the body of the clouds of the Sun flow from every side, breaking the mounds etc. In the same way, the president sitting in the armies, that is, the chief of the army, should keep an eye on the activities of the enemies.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as a cloud starts a war with the Sun by suddenly picking up the light of the Sun used for the illumination of the world and turning it, yet it does not get equal to the power of the Sun. When this Sun hits the cloud and makes it fall into the ground, then the river is filled with the waters coming out of his body parts and goes towards the sea. In the same way, the king should kill the enemies and lead them towards their end.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How do they (Indra and Vritra) fight is taught in the 6th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
1. (Vritra) The cloud like a mad weak warrior, challenges Indra (the mighty sun) the destroyer of all darkness and helper by his light in earning much wealth. It has been crushed by the mighty sun. It has been unable to withstand the rays of the sun. The rivers born of this crushed cloud flow breaking the banks. A Commander of the army should behave like the mighty sun. He should smite down all his wicked foes vigorously and should attain reputation as a great hero, destroyer of his un- righteous enemies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( तुविबाधम् ) यो बहून शत्रून् बाधते तम् = Destroyer of many ( enemies or clouds). (ऋजषम् ) उपार्जकम्, अत्र अर्जे र्ऋज् च ( उणा०४.२९) इत्यर्जधातोरीषन प्रत्ययः ऋजादेशश्च ( समृतिम् ) संगतिम् । = Association. (रुजाना: ) नद्यः, रुजाना इति नदीनामसु पठितम् । (निघ० १.१२) = Rivers.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is simile used in the Mantra. As the cloud fights with the sun giving light to the world and covers him for the time being, but cannot stand before the powerful sun for a long time; when destroyed by the sun, it falls down on the earth, then by the water which is a part of its body, the rivers are filled and they flow towards the sea; so should a king or a Commander of the army destroy his enemies with his might, so that they may never raise their heads.
Translator's Notes
तृवीति बहुनामसुपठितम् ( निघ० ३.१ ) = many समृतिम् ऋगतौ = To go.
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