ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 12
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अश्व्यो॒ वारो॑ अभव॒स्तदि॑न्द्र सृ॒के यत्त्वा॑ प्र॒त्यह॑न्दे॒व एकः॑ । अज॑यो॒ गा अज॑यः शूर॒ सोम॒मवा॑सृजः॒ सर्त॑वे स॒प्त सिन्धू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व्यः॑ । वारः॑ । अ॒भ॒वः॒ । तत् । इ॒न्द्र॒ । सृ॒के । यत् । त्वा॒ । प्र॒ति॒ऽअह॑न् । दे॒वः । एकः॑ । अज॑यः । गाः । अज॑यः । शू॒र॒ । सोम॑म् । अव॑ । अ॒सृ॒जः॒ । सर्त॑वे । स॒प्त । सिन्धू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः । अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ॥
स्वर रहित पद पाठअश्व्यः । वारः । अभवः । तत् । इन्द्र । सृके । यत् । त्वा । प्रतिअहन् । देवः । एकः । अजयः । गाः । अजयः । शूर । सोमम् । अव । असृजः । सर्तवे । सप्त । सिन्धून्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अश्व्यः) योश्वेषु वेगादिगुणेषु साधुः (वारः) वरीतुमर्हः (अभवः) भवति। अत्र सर्वत्र वर्त्तमाने लङ् व्यत्ययश्च। (तत्) तस्मात् (इन्द्र) शत्रुविदारक (सृके) वज्र इव किरणसमूहे। सृक इति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २।२०। (यत्) यः। अत्र सुपां० इति सोर्लुक्। (त्वा) त्वां सभेशं राजानम् (प्रत्यहन्) प्रति हन्ति (देवः) दानादिगुणयुक्तः (एकः) असहायः (अजयः) जयति (गाः) पृथिवीः (अजयः) जयति (शूर) वीरवन्निर्भय (सोमम्) पदार्थरससमूहम् (अव) अधोऽर्थे (असृजः) सृजति (सर्त्तवे) सर्त्तुं गन्तुम्। अत्र तुमऽर्थे से० इति तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। (सप्त) (सिंधून्) भूमौ महाजलाशयसमुद्रनदीकूपतडागस्थांश्चतुरोऽन्तरिक्षे निकटमध्यदूरदेशस्थाँ स्त्रींश्चेति सप्त जलाशयान् ॥१२॥
अन्वयः
पुनस्तौ परस्परं किं कुरुत इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे शूरसेनेशेन्द्र त्वं यथा यद् योऽश्व्यो वार एको देवो मेघः सूर्येण सह योद्धाऽभवो भवति सृके स्वघनदलं प्रत्यहन् किरणान्प्रति हन्ति सूर्यस्तं मेघं जित्वा गा अजयो जयति सोममजयो जयति एवं कुर्वन् सूर्य्यो जलानि सर्त्तवे सर्त्तुमुपर्यधो गन्तुं सप्त सिंधूनवासृजः सृजति तथैव शत्रुषु चेष्टसे तत्तस्मात्वा त्वां युद्धेषु वयमधिकुर्मः ॥१२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथायं मेघः सूर्यस्य प्रकाशं निवारयति तदा सूर्यः स्वकिरणैस्तं छित्वा भूमौ जलं निपातयत्यत एवायमस्य जलसमूहस्य गमनागमनाय समुद्राणां निष्पादनहेतुर्भवति तथा प्रजापालको राजाऽरीन्निरुध्य शस्त्रैश्छित्वाऽधो नीत्वा प्रजाया धर्म्ये मार्गे गमनहेतुः स्यात् ॥१२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे दोनों परस्पर क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे (शूर) वीर के तुल्य भयरहित (इन्द्र) शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारे सेना के स्वामी ! आप जैसे (यत्) जो (अश्व्यः) वेग और तड़फ आदि गुणों में निपुण (वारः) स्वीकार करने योग्य (एकः) असहाय और (देवः) उत्तम-२ गुण देनेवाला मेघ सूर्य के साथ युद्ध करनेहारा (अभवः) होता है (सृके) किरणरूपी वज्र में अपने बद्दलों के जाल को (प्रत्यहन्) छोड़ता है अर्थात् किरणों को उस घन जाल से रोकता है सूर्य्य उस मेघ को जीतकर (गाः) उससे अपनी किरणों को (अजयः) अलग करता अर्थात् एक देश से दूसरे देश में पहुंचाता और (सोमम्) पदार्थों के रस को (अजयः) जीतता है इस प्रकार करता हुआ वह सूर्यलोक जलों को (सर्त्तवे) ऊपर-नीचे जाने-आने के लिये सब लोकों में स्थिर होनेवाले (सप्त) (सिन्धून्) बड़े-२ जलाशय, नदी, कुंआ, और साधरण तालाब ये चार जल के स्थान पृथिवी पर और समीप, बीच, और दूरदेश में रहनेवाले तीन जलाशय इन सात जलाशयों को (अवासृजः) उत्पन्न करता है वैसे शत्रुओं में चेष्टा करते हो (तत्) इसी कारण (त्वा) आपको युद्धो में हम लोग अधिष्ठाता करते हैं ॥१२॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे यह मेघ सूर्य के प्रकाश को ढांप देता तब वह सूर्य अपनी किरणों से उसको छिन्न-भिन्न कर भूमि में जल को वर्षाता है इसीसे यह सूर्य उस जल समुदाय को पहुंचाने न पहुंचाने के लिये समुद्रों को रचने का हेतु होता है वैसे प्रजा का रक्षक राजा शत्रुओं को बांध शस्त्रों से काट और नीच गति को प्राप्त करके प्रजा को धर्मयुक्त मार्ग में चलाने का निमित्त होवे ॥१२॥
विषय
सप्त सिन्धु - संसरण
पदार्थ
१. (इन्द्र) - हे जितेन्द्रिय पुरुष ! (यत्) - जब (सृके) - [सृ गतौ] तेरे हाथ में क्रियाशीलतारूप वज्र के होने पर भी (त्वा) - तुझे (एकः देवः) - यह अद्वितीय, निराला - सा तुझे जीतने की कामनावाला कामदेव (प्रत्यहन्) - प्रहृत [प्रहार] करता है (तत्) - तब तू उस कामदेव के लिए (अश्व्यः वारः) - घोड़े के बाल के समान (अभवः) - होता है । जैसे एक घोड़ा अपनी पूँछ के बालों से अनायास ही मक्खी - मच्छरों को दूर कर लेता है, उसी प्रकार तू इस कामदेव को आसानी से पराजित करनेवाला होता है ।
२. इस काम को पराजित करके तू (गाः) - उन इन्द्रियों को जिनको यह कामवासना चुरा - सा ले गई थी (अजयः) - जीतनेवाला होता है । इन्द्रियों को तू फिर से स्वाधीन कर पाता है । इन्हें काम के बन्धन से मुक्त कर लेता है ।
३. जितेन्द्रिय होकर हे (शूर) - शत्रुओं को संहार करनेवाले जीव ! तू (सोमम् अजयः) - सोम का विजय करता है । शरीर में उत्पन्न सोम [वीर्य] को तू नष्ट नहीं होने देता ।
४. इस प्रकार इन्द्रियों को जीतकर तथा सोमशक्ति की रक्षा करके तु (सप्त सिन्धून्) - [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्] दो कान, दो नासिका - छिद्र, दो आँखें व मुखरूप सात ज्ञानेन्द्रियों व ऋषियों से प्रवृत्त होनेवाली ज्ञानधाराओं को (सर्तवे) - निरन्तर प्रवाहित होने के लिए (अवासृजः) - छोड़ता है । इन्द्रियों को वश में करने व वीर्य के रक्षण से बुद्धि तीन होकर मनुष्य का ज्ञान निरन्तर बढ़ता चलता है ।
भावार्थ
भावार्थ - क्रियाशीलता द्वारा आसानी से काम का पराजय हो पाता है । मनुष्य जितेन्द्रिय होकर वीर्य - रक्षण करता है तो सब ज्ञानेन्द्रियों से सतत ज्ञान - जलधाराओं का प्रवाह बह पड़ता है ।
विषय
इन दोनों के इस युद्ध में किस का विजय होता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शूर सेनेश इन्द्र त्व यथा यत् यः अश्व्यः वारः एकः देवः मेघः सूर्येण सह योद्धा अभवः भवति सृके स्वघनदलं प्रत्यहन् किरणान् प्रति हन्ति सूर्यस्तं मेघं जित्वा गाः अजयः जयति सोमम् अजयः जयति एवं कुर्वन् सूर्य्यः जलानि सर्त्तवे सर्त्तुम् उप अरि अधः गन्तुं सप्तसिंधून् अवासृजः सृजति तथैव शत्रुषु चेष्टसे तत् त्तस्मात् वा त्वां युद्धेषु वयम् अधिकुर्मः ॥१२॥
पदार्थ
हे (शूर) वीरवन्निर्भय=हे वीर के समान निर्भय (सेनेश)=सेना के स्वामी ! (इन्द्र) शत्रुविदारक=और शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाले, (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे, (यत्) यः=जिस, (अश्व्यः) योश्वेषु वेगादिगुणेषु साधुः=जो अश्वों जैसे वेग आदि गुणों में निपुण, (वारः) वरीतुमर्हः=स्वीकार करने योग्य, (अजयः) जयति=जीतता है। (देवः) दानादिगुणयुक्तः=दान आदि गुणों से युक्त, (मेघः)=मेघ, (सूर्येण)= सूर्य के, (सह)=साथ, (योद्धा)=योद्धा (अभवः) भवति=होता है। (सृके) वज्र इव किरणसमूहे=वज्र के समान किरण समूह में, (स्वघनदलम्)=अपने बादलों की टुकड़ियों का, (प्रत्यहन्) प्रति हन्ति= एक-एक करके मारता है, अर्थात् छिन्न-भिन्न करता है। (किरणान्)= किरणों की (प्रति)=दिशा में, (हन्ति)=मारते हुए, (सूर्यस्तम्)=वह सूर्य, (मेघम्)=मेघ को, (जित्वा)=जीत कर, (सोमम्) पदार्थरससमूहम् = पदार्थ के रस समूह को भी, (अजयः) जयति=जीत लेता है। (एवम्)=ऐसे ही, (कुर्वन्)=करते हुए, (सूर्य्यः)=सूर्य, (जलानि)=जलों को, (सर्त्तवे) सर्त्तुं गन्तुम्=जाने के लिये, (उपरि)=ऊपर से, (अधः)=नीचे की ओर, (गन्तुम्)=जाने के लिये, (सप्त)=सात, (सिंधून्) भूमौ महाजलाशयसमुद्रनदीकूपतडागस्थांश्चतुरोऽन्तरिक्षे निकटमध्यदूरदेशस्थाँ स्त्रींश्चेति सप्त जलाशयान्=भूमि, महाजलाशय, समुद्र, नदी, कूप, तडाग, में स्थित चारों अन्तरिक्षों के निकट मध्य और दूरस्थ देशों में स्थित इन सात जलाशयों को, (अव) अधोऽर्थे=नीचे की ओर, (असृजः) सृजति=उत्पन्न करता है। (तथैव)=वैसे ही, (शत्रुषु)=शत्रुओं में, (चेष्टसे)=प्रयास से, (तत्)=उसको, (तस्मात्)=इसलिए, (वा)=या, (त्वाम्)=तुम पर, (युद्धेषु)=युद्धों में, (वयम्)=हम, (अधिकुर्मः)=शासित करते हैं ॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे यह मेघ सूर्य के प्रकाश को ढांप देता तब वह सूर्य अपनी किरणों से उसको छिन्न-भिन्न कर भूमि में जल को वर्षाता है। इसीसे यह सूर्य उस जल समुदाय को पहुंचाने न पहुंचाने के लिये समुद्रों को रचने का हेतु होता है, वैसे ही प्रजा का रक्षक राजा शत्रुओं को बांध शस्त्रों से काट और नीचे ले जाकर प्रजा को धर्मयुक्त मार्ग में चलाने का निमित्त होवे ॥१२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शूर) हे वीर के समान निर्भय (सेनेश) सेना के स्वामी ! (इन्द्र) और शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाले (त्वम्) आप (यथा) जैसे (यत्) जो (अश्व्यः) अश्वों जैसे वेग आदि गुणों में निपुण (वारः) स्वीकार करने योग्य [वीर] (अजयः) जीतता है। (देवः) दान आदि गुणों से युक्त (मेघः) मेघ (सूर्येण) सूर्य के (सह) साथ (योद्धा) योद्धा (अभवः) होता है। (सृके) वज्र के समान किरण समूह में (स्वघनदलम्) अपने बादलों की टुकड़ियों से (प्रत्यहन्) एक-एक करके मारता है, अर्थात् छिन्न-भिन्न करता है। (किरणान्) किरणों की (प्रति) दिशा में (हन्ति) मारते हुए (सूर्यस्तम्) वह सूर्य (मेघम्) मेघ को (जित्वा) जीत कर (सोमम्) पदार्थ के रस समूह को भी (अजयः) जीत लेता है। (एवम्) ऐसे ही (कुर्वन्) करते हुए (सूर्य्यः) सूर्य (जलानि) जलों को (उपरि) ऊपर से (अधः) नीचे की ओर (गन्तुम्) जाने के लिये (सप्त) सात (सिंधून्) भूमि, महाजलाशय, समुद्र, नदी, कूप, तडाग, में स्थित चारों अन्तरिक्षों के निकट मध्य और दूरस्थ देशों में स्थित इन सात जलाशयों को (अव) नीचे की ओर (असृजः) उत्पन्न करता है। (तथैव) वैसे ही (शत्रुषु) शत्रुओं में (चेष्टसे) प्रयास से (तत्) उसको (तस्मात्) इसलिए (वा) या (त्वाम्) तुम पर (युद्धेषु) युद्धों में (वयम्) हम (अधिकुर्मः) आधिपत्य करते हैं ॥१२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अश्व्यः) योश्वेषु वेगादिगुणेषु साधुः (वारः) वरीतुमर्हः (अभवः) भवति। अत्र सर्वत्र वर्त्तमाने लङ् व्यत्ययश्च। (तत्) तस्मात् (इन्द्र) शत्रुविदारक (सृके) वज्र इव किरणसमूहे। सृक इति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २।२०। (यत्) यः। अत्र सुपां० इति सोर्लुक्। (त्वा) त्वां सभेशं राजानम् (प्रत्यहन्) प्रति हन्ति (देवः) दानादिगुणयुक्तः (एकः) असहायः (अजयः) जयति (गाः) पृथिवीः (अजयः) जयति (शूर) वीरवन्निर्भय (सोमम्) पदार्थरससमूहम् (अव) अधोऽर्थे (असृजः) सृजति (सर्त्तवे) सर्त्तुं गन्तुम्। अत्र तुमऽर्थे से० इति तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। (सप्त) (सिंधून्) भूमौ महाजलाशयसमुद्रनदीकूपतडागस्थांश्चतुरोऽन्तरिक्षे निकटमध्यदूरदेशस्थाँ स्त्रींश्चेति सप्त जलाशयान् ॥१२॥
विषयः- पुनस्तौ परस्परं किं कुरुत इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे शूरसेनेशेन्द्र त्वं यथा यद् योऽश्व्यो वार एको देवो मेघः सूर्येण सह योद्धाऽभवो भवति सृके स्वघनदलं प्रत्यहन् किरणान्प्रति हन्ति सूर्यस्तं मेघं जित्वा गा अजयो जयति सोममजयो जयति एवं कुर्वन् सूर्य्यो जलानि सर्त्तवे सर्त्तुमुपर्यधो गन्तुं सप्त सिंधूनवासृजः सृजति तथैव शत्रुषु चेष्टसे तत्तस्मात्वा त्वां युद्धेषु वयमधिकुर्मः ॥१२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथायं मेघः सूर्यस्य प्रकाशं निवारयति तदा सूर्यः स्वकिरणैस्तं छित्वा भूमौ जलं निपातयत्यत एवायमस्य जलसमूहस्य गमनागमनाय समुद्राणां निष्पादनहेतुर्भवति तथा प्रजापालको राजाऽरीन्निरुध्य शस्त्रैश्छित्वाऽधो नीत्वा प्रजाया धर्म्ये मार्गे गमनहेतुः स्यात् ॥१२॥
विषय
वृत्रहनन का रहस्य ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) वीर राजन्! (यत्) जब (देवः) विजय करने की इच्छावाला शत्रु (एकः) अकेला ही (त्वा प्रति) तेरे प्रति (अहन्) आघात करता है (तत्) तब तू भी (अश्व्यः) अश्वारोही सेना में कुशल होकर (सृके) एकमात्र या शस्त्रबल, वज्र के आश्रय पर ही (वारः) सेना द्वारा वरण करने, और शत्रु को वारण करने में समर्थ (अभवः) होता है। और (एकः) तू अकेला (गाः) शत्रु के गौ आदि पशुओं तथा शत्रु की भूमियों को भी (अजयः) विजय कर। हे (शूर) शूरवीर! तू ही (सप्त सिन्धून्) तीव्र वेग से जाने वाले सेना समूहों को (सर्त्तवे) चलाने के लिए (सोमम्) ऐश्वर्य को (अव सृजः) प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा मेघ सूर्याला झाकून टाकतो तेव्हा सूर्य आपल्या किरणांनी त्याला नष्ट करतो आणि भूमीवर जलाची वृष्टी करवितो. सूर्य त्या जलसमूहाचे गमनागमन करविणारा असून, समुद्राची निर्मिती होण्याचे कारण असतो. तसे प्रजेचा रक्षक असलेल्या राजाने शत्रूंना बंधनात ठेवून शस्त्रांनी प्रहार करून नष्ट करावे व प्रजेला धर्मयुक्त मार्गात चालविण्याचे निमित्त ठरावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Tempestuous of speed and power of defence and offence and as the choice lord and hero do you arise, Indra, then when the one unique rival, Vrtra, throws its darkness over your rays of light and catalysis. Arising then you conquer the earth, you win and collect the vital soma of life, and you release the seven streams of nectar to enrich the seven seas of existence as they flow.
Subject of the mantra
Who wins in this war of these two, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śūra)=fearless as a hero, (seneśa) lord of the army, (indra)=and one who torments the enemies, (tvam)=you, (yathā)=as, (yat)=that, (aśvyaḥ)=horse-like expert in qualities,(vāraḥ) =acceptable, [vīra]=brave, (ajayaḥ)=makes victorious, (devaḥ)=endowed with the qualities of charity etc. (meghaḥ)=cloud, (sūryeṇa) =of the Sun, (saha)=with, (yoddhā)=war, (abhavaḥ)=happens, (sṛke)=in a group of thunderbolt rays, (svaghanadalam)=by the sections of its cloud, (pratyahan)=Kills one by one, that is, disintegrates, (kiraṇān)=of rays, (prati)=in the direction, (hanti)=killing, (sūryastam)=that Sun, (megham)=to the cloud, (jitvā) =by winnng, (somam)=also to the sap composition of matter, (ajayaḥ)=wins, (evam)=in the same way, (kurvan)=doing, (sūryyaḥ)=Sun, (jalāni)=to waters, (upari)=from upwards, (adhaḥ)=to downwards, (gantum)=for going, (sapta)=seven, (siṃdhūn)=the land, great-water bodies located in the middle and distant countries, located in, the reservoir, the sea, the river, the well, the pond, are. (ava)=downwards, (asṛjaḥ=generates, (tathaiva)=in the same way, (śatruṣu)=in enemies, (ceṣṭase)=with efforts, (tat)=to that,(tasmāt)=therefore, (vā)=or, (tvām)=on you, (yuddheṣu)=in wars, (vayam)=we, (adhikurmaḥ)=rule over you.
English Translation (K.K.V.)
O Fearless as a hero, lord of the army! And the one like you who dissects the enemies, who is adept in the qualities of speed like horses, wins an acceptable hero. The cloud with the qualities of charity is a warrior with the Sun. The ray like a thunderbolt strikes one by one from the clumps of his clouds, that is, disintegrates. Hitting in the direction of the rays, he conquers the Sun, the cloud and also conquers the sap composition of the matter. While doing the same, the Sun generates these seven reservoirs located in the central and distant countries near the four space located in the seven lands, great-water bodies located in the middle and distant countries, located in, the reservoir, the sea, the river, the well, the pond for the water to go from top to bottom. In the same way, due to our efforts in the enemies, or in wars, we rule over you.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. As this cloud covers the light of the Sun, then that Sun scatters it with its rays and rains water on the ground. In this way, this Sun is meant to create seas to prevent that water group from being transported, in the same way, the protector of the subjects, the king should be the instrument of tying the enemies down and driving them down the path of righteousness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do these (Indra and Vritra) do is further taught in the 12th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O heroic Commander of the army, you behave towards your enemies as the Sun destroys the moving and active cloud which fights like a warrior, but which the Sun smites into pieces with his rays. Thereby the Sun wins the cows and wins the Soma and other herbs and sends the water to seven places of water consisting of seas, rivers, wells and tanks on the earth and near places in the firmament lying, distant and mid between them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अश्व्यः ) यः अश्वेषु वेगादिगुणेषु साधुः = Moving rapidly. (सृक) वज्रे इव किरणसमूह सृक इति वज्रनामसु (निघo २.२० ) = In the group of rays like the thunderbolt. (देव:) दानादि गुणयुक्तः = Giver. (एक:) असहायः = Helpless (Cloud.) (सोमम्) पदार्थरससमूहम् = The collected Juice of various substances. (सर्तुम् ) गन्तुम् । अत्रतुमर्थे से सेन् तवेतवेन इति तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः = To flow. ( सप्तसिन्धून् ) भूमौ महाजलाशयसमुद्रनदीकूपतडागस्थान् चतुरः अन्तरिक्षे निकट मध्य दूरदेशस्थान् त्रीन् च इति सप्त जलाशयान् । Seven places of water consisting of the seas, rivers, wells and tanks on the earth and those standing near, distant and mid between in the firmament.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As when the cloud covers the light of the Sun, the latter strikes it with his rays and causes it to fall down on earth in the form of the rain. He (Sun) is therefore the cause of the seas which store the mass of waters that come and go. In the same manner, a king who is the protector of his subjects should subdue his foes, should smite them with his weapons and thus by humbling them, he becomes the instrument in their treading upon the path of righteousness.
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