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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒पाद॑ह॒स्तो अ॑पृतन्य॒दिन्द्र॒मास्य॒ वज्र॒मधि॒ सानौ॑ जघान । वृष्णो॒ वध्रिः॑ प्रति॒मानं॒ बुभू॑षन्पुरु॒त्रा वृ॒त्रो अ॑शय॒द्व्य॑स्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पात् । अ॒ह॒स्तः । अ॒पृ॒त॒न्य॒त् । इन्द्र॑म् । आ । अ॒स्य॒ । वज्र॑म् । अधि॑ । सानौ॑ । ज॒घा॒न॒ । वृष्णः॑ । वध्रिः॑ । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । बुभू॑षन् । पु॒रु॒ऽत्रा । वृ॒त्रः । अ॒श॒य॒त् । विऽअ॑स्तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान । वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपात् । अहस्तः । अपृतन्यत् । इन्द्रम् । आ । अस्य । वज्रम् । अधि । सानौ । जघान । वृष्णः । वध्रिः । प्रतिमानम् । बुभूषन् । पुरुत्रा । वृत्रः । अशयत् । विअस्तः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अपात्) अविद्यमानौ पादौ यस्य सः। (अहस्तः) अविद्यमानौ हस्तौ यस्य सः (अपृतन्यत्) आत्मनः पृतनां युद्धमिच्छतीति। अत्र कव्यध्वरपृतनस्य। अ० ७।४।३९। इत्याकारलोपः। (इन्द्रम्) सूर्यलोकम् (आ) समन्तात् (अस्य) वृत्रस्य (वज्रम्) स्वकिरणाख्यम् (अधि) उपरि (सानौ) अवयवे (जघान) हतवान् (वृष्णः) वीर्यसेक्तुः पुरुषस्य (बध्रिः) बध्यते स बध्रिः। निर्वीर्यो नपुंसकमिव। अत्र बन्धधातोर्बाहुलकादौणादिकः क्रिन् प्रत्ययः। (प्रतिमानम्) सादृश्यं परिमाणं वा (बुभूषन्) भवितुमिच्छन् (पुरुत्रा) बहुषु देशेषु पतितः सन्। अत्र देवमनुष्यपुरुष०। ५।४।५६। इति त्रा प्रत्ययः। (वृत्रः) मेघः (अशयत्) शयितवान्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। बहुलं छन्दसि इति शपोलङ्न। (व्यस्तः) विविधतया प्रक्षिप्तः ॥७॥

    अन्वयः

    पुनः स कीदृशो भूत्वा भूमौ पततीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे सर्वसेनास्वामिँस्त्वं यथा वृत्रो वृष्णः प्रतिमानं बुभूषन् बध्रिरिवयमिन्द्रं प्रत्यपृतन्यदात्मनः पृतनामिच्छँस्तस्यास्य वृत्रस्यसानावधि शिखराकार घनानामुपरीन्द्रस्सूर्य्यलोको वज्रमाजघानेतेन हतः सन्वृत्रोऽपादहस्तोव्यस्तः पुरुत्राशयद्बहुषु भूमिदेशेषु शयान इव भवति तथैववैवं भूतान् शत्रून् भित्त्वा छित्त्वा सततं विजयस्व ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कश्चिन्निर्बलो बलवता सह युद्धं कर्त्तुं प्रवर्त्तेत तथैव वृत्रोमेघः सूर्येण सहयुद्धकारीव प्रवर्त्तते यथान्ते सूर्येण छिन्नोभिन्नः सन् पराजितः पृथिव्यां पतति तथैव यो धार्मिकेण राज्ञा सह योद्धुं प्रवर्त्तेत तस्यापीदृश्येव गतिः स्यात् ॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह मेघ कैसा होकर पृथिवी पर गिरता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे सब सेनाओं के स्वामी ! आप (वृत्रः) जैसे मेघ (वृष्णः) वीर्य सींचनेवाले पुरुष की (प्रतिमानम्) समानता को (बुभूषन्) चाहते हुए (बध्रिः) निर्बल नपुंसक के समान जिस (इन्द्रम्) सूर्यलोक के प्रति (अपृतन्यत्) युद्ध के लिये इच्छा करनेवाले के समान (अस्य) इस मेघ के (सानौ) (अधि) पर्वत के शिखरों के समान बद्दलों पर सूर्य्यलोक (वज्रम्) अपने किरण रूपी वज्र को (आजघान) छोड़ता है उस से मरा हुआ मेघ (अपादहस्तः) पैर हांथ कटे हुए मनुष्य के तुल्य (व्यस्तः) अनेक प्रकार फैला पड़ा हुआ (पुरुत्रा) अनेक स्थानों में (अशयत्) सोता सा मालूम देता है वैसे इस प्रकार के शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर सदा जीता कीजिये ॥७॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे कोई निर्बल पुरुष बड़े बलवान् के साथ युद्ध चाहें वैसे ही वृत्र मेघ सूर्य के साथ प्रवृत्त होता है और जैसे अन्त में वह मेघ सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर पराजित हुए के समान पृथिवी पर गिर पड़ता है वैसे जो धर्मात्मा बलवान् पुरुष के सङ्ग लड़ाई को प्रवृत्त होता है उसकी भी ऐसी ही दशा होती है ॥७॥

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    विषय

    वध्रि का वृषा पर उपहासास्पद आक्रमण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार पराजित हुए वृत्र का ही चित्रण करते हैं कि (अपाद् अहस्तः) - बिना हाथ और पाँव का होता हुआ भी यह वृत्र [काम] (इन्द्रम्) - उस शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले इन्द्र पर (अपृतन्यत्) - क्रोधादि की पृतना [सेना] से आक्रमण करता है । यह काम बिना हाथ - पैरवाला होता हुआ भी प्रबल शक्ति से युक्त है । इसका नाम ही 'प्रद्युम्न' - प्रकृष्ट शक्तिवाला है । इसकी शक्ति इन्द्र की तुलना में प्रबल न भी हो, तो भी यह गतमन्त्र के अनुसार 'दुर्मद' तो है ही । अनुचित अभिमानवाला होने के कारण यह इन्द्र पर आक्रमण करता ही है । 

    २. कामदेव ने महादेव पर आक्रमण किया ही, चाहे वह परिणाम में भस्म ही हो गया । इसी प्रकार यहाँ यह काम इन्द्र पर आक्रमण करता है और इन्द्र (अस्य) - इस काम के (सानौ) - शिखर पर [सिर पर] (वज्रम् अधि आजघान) - वज्र से खूब ही प्रहार करता है । इन्द्र क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा इसके मस्तक को ही छिन्न कर देता है । 

    ३. काम का यह आक्रमण तो ऐसा था मानो (वध्रिः) - कोई छिन्नमुष्क - नपुंसक (वृष्णः) - शक्तिशाली का (प्रतिमानं बुभूषन्) - मुकाबिला करने की इच्छा करे । ऐसा करने पर जैसे उस नपुंसक की दुर्गति होती है उसी प्रकार यहाँ यह (वृत्रः) - ज्ञान पर आवरण डालनेवाला काम (पुरुत्रा व्यस्तः) - अनेक अवयवों में विशेषरूप से ताड़ित होकर इधर - उधर फेंका हुआ (अशयत्) - पृथिवी पर मृत्यु की नींद में सो गया है । इन्द्र और वृत्र के इस संघर्ष में इन्द्र वृत्र को प्रताड़ित करता है और वृत्र छिन्नावयव होकर भूमिशायी हो जाता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम इन्द्र बनें । वृत्र [काम] हमपर आक्रमण करे तो उसे नष्ट ही होना पड़े । 

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    विषय

    फिर वह मेघ कैसा होकर पृथिवी पर गिरता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    (ऋषिकृत)- हे सर्वसेनास्वामिन् त्वं यथा वृत्रः वृष्णः प्रतिमानं बुभूषन् बध्रिः इव यम् इन्द्रम् प्रति अपृतन्यत् यत् आत्मनः पृतनाम् इच्छन् तस्य अस्य  वृत्रस्य सानौ अधि शिखराकार घनानाम् उपरि इन्द्रः सूर्य्यलोकः वज्रम् आजघाने तेन हतः सन् वृत्रः अपात् अहस्तः व्यस्तः पुरुत्रा अशयद्बत् बहुषु भूमिदेशेषु शयानः इव भवति तथा एवं भूतान् शत्रून् भित्त्वा छित्त्वा सततं विजयस्व॥७॥

    पदार्थ

    हे (सर्वसेनास्वामिन्)=सब सेनाओं के स्वामी !  (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे, (वृत्रः)=मेघ, (वृष्णः) वीर्यसेक्तुः पुरुषस्य=वीर्य सींचनेवाले पुरुष की,  (प्रतिमानम्) सादृश्यं परिमाणं वा=समानता को, (बुभूषन्) भवितुमिच्छन्=चाहते हुए, (बध्रिः) बध्यते स बध्रिः=निर्बल नपुंसक, (इव)=के समान, (यम्)=जिस, (इन्द्रम्) सूर्यलोकम्=सूर्यलोक के, (प्रति)=प्रति, (अपृतन्यत्) आत्मनः पृतनां युद्धमिच्छतीति=अपनी छोटी सेना से  युद्ध के लिये इच्छा करनेवाले के समान, (यत्)=जो, (इच्छन्)=चाहते हुए, (तस्य)=उस,  (अस्य) वृत्रस्य=मेघ के, (सानौ) अवयवे=अंग के, (अधि) उपरि=ऊपर, (शिखराकार)=शिखरों के आकार के, (घनानाम्)=बादलों के, (उपरि)=ऊपर, (इन्द्रः-सूर्य्यलोकः)= सूर्य्यलोक, (वज्रम्)=अपने किरण रूपी वज्र को, (आ) समन्तात् =हर ओर से, (जघान) हतवान्=छिन्न-भिन्न करते हुए, (तेन)=उसके द्वारा,  (हतः+सन्)=छिन्न-भिन्न किया हुए, (वृत्रः) मेघः=बादल, (अपात्) अविद्यमानौ पादौ यस्य सः=बिना पैर,  (अहस्तः) अविद्यमानौ हस्तौ यस्य सः=बिना हाथ वाले जैसे, (व्यस्तः) विविधतया प्रक्षिप्तः=अनेक प्रकार से प्रक्षिप्त अर्थात् बढ़ाया हुआ है, (पुरुत्रा) बहुषु देशेषु पतितः सन्= अनेक स्थानों में गिरते हुए, (अशयत्) शयितवान्=सोता सा मालूम देता है, (वत्)=वैसे, (भवति)=होता है।  (तथा)=वैसे ही, (भूतान्)=प्राणियों के, (शत्रून्)= शत्रुओं को, (छित्त्वा-भित्त्वा)= छिन्न-भिन्न कर सदा, (विजयस्व)= विजयवाले (सततम्)=निरन्तर हूजिये ॥७॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे कोई निर्बल पुरुष  बड़े बलवान् के साथ युद्ध करने को प्रवर्त्त  होता है। जैसे अन्त में सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर पराजित होकर [वह मेघ] पृथिवी पर गिर पड़ता है, वैसे जो धर्मात्मा राजा के साथ  युद्ध करने के लिए प्रवर्त्त  होता है, उसकी भी ऐसी ही दशा होती है ॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सर्वसेनास्वामिन्) सब सेनाओं के स्वामी !  (त्वम्) आप (यथा) जैसे (वृत्रः) मेघ के (वृष्णः) वीर्य अर्थात् वर्षा के जल को सींचनेवाले पुरुष की  (प्रतिमानम्) समानता को (बुभूषन्) चाहते हुए (बध्रिः) निर्बल व नपुंसक, (इव) के समान, (यम्) जिस (इन्द्रम्) सूर्यलोक के (प्रति) प्रति (अपृतन्यत्) अपनी छोटी सेना से  युद्ध के लिये इच्छा करनेवाले के समान, (यत्) जो (इच्छन्) चाहते हुए (तस्य) उस  (अस्य) मेघ के (सानौ) अंगों के (अधि) ऊपर (शिखराकार) शिखरों के आकार के (घनानाम्) बादलों के (उपरि) ऊपर (इन्द्रः) सूर्य्यलोक, (वज्रम्) अपने किरण रूपी वज्र को (आ) हर ओर से (तेन) उसके द्वारा  (हतः+सन्) छिन्न-भिन्न करते हुए,  (वृत्रः) बादल (अपात्) बिना पैर  (अहस्तः) [और] बिना हाथ वाले जैसे (व्यस्तः) अनेक प्रकार से प्रक्षिप्त अर्थात् बढ़ाया हुए है। [और] (पुरुत्रा) अनेक स्थानों में गिरते हुए (अशयत्) सोता हुआ जैसा मालूम देता है, (वत्) वैसे (भवति) होता है।  (तथा) वैसे ही (भूतान्) प्राणियों के (शत्रून्) शत्रुओं को (छित्त्वा-भित्त्वा) छिन्न-भिन्न कर (विजयस्व) विजयवाले (सततम्) निरन्तर हूजिये ॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अपात्) अविद्यमानौ पादौ यस्य सः। (अहस्तः) अविद्यमानौ हस्तौ यस्य सः (अपृतन्यत्) आत्मनः पृतनां युद्धमिच्छतीति। अत्र कव्यध्वरपृतनस्य। अ० ७।४।३९। इत्याकारलोपः। (इन्द्रम्) सूर्यलोकम् (आ) समन्तात् (अस्य) वृत्रस्य (वज्रम्) स्वकिरणाख्यम् (अधि) उपरि (सानौ) अवयवे (जघान) हतवान् (वृष्णः) वीर्यसेक्तुः पुरुषस्य (बध्रिः) बध्यते स बध्रिः। निर्वीर्यो नपुंसकमिव। अत्र बन्धधातोर्बाहुलकादौणादिकः क्रिन् प्रत्ययः। (प्रतिमानम्) सादृश्यं परिमाणं वा (बुभूषन्) भवितुमिच्छन् (पुरुत्रा) बहुषु देशेषु पतितः सन्। अत्र देवमनुष्यपुरुष०। ५।४।५६। इति त्रा प्रत्ययः। (वृत्रः) मेघः (अशयत्) शयितवान्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। बहुलं छन्दसि इति शपोलङ्न। (व्यस्तः) विविधतया प्रक्षिप्तः ॥७॥
    विषयः- पुनः स कीदृशो भूत्वा भूमौ पततीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे सर्वसेनास्वामिँस्त्वं यथा वृत्रो वृष्णः प्रतिमानं बुभूषन् बध्रिरिवयमिन्द्रं प्रत्यपृतन्यदात्मनः पृतनामिच्छँस्तस्यास्य वृत्रस्यसानावधि शिखराकार घनानामुपरीन्द्रस्सूर्य्यलोको वज्रमाजघानेतेन हतः सन्वृत्रोऽपादहस्तोव्यस्तः पुरुत्राशयद्बहुषु भूमिदेशेषु शयान इव भवति तथैववैवं भूतान् शत्रून् भित्त्वा छित्त्वा सततं विजयस्व॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कश्चिन्निर्बलो बलवता सह युद्धं कर्त्तुं प्रवर्त्तेत तथैव वृत्रोमेघः सूर्येण सहयुद्धकारीव प्रवर्त्तते यथान्ते सूर्येण छिन्नोभिन्नः सन् पराजितः पृथिव्यां पतति तथैव यो धार्मिकेण राज्ञा सह योद्धुं प्रवर्त्तेत तस्यापीदृश्येव गतिः स्यात् ॥७॥

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    विषय

    वृष्टि विद्या का वर्णन ।

    भावार्थ

    यदि (अपाद्) बे पांव का, लङ्गड़े के समान निराश्रय, (अहस्तः) वे हाथों का, लूला, निःशस्त्र, अल्पसेना वाला होकर कोई दुर्भद पुरुष (इन्द्रम्) पूर्वोक्त ऐश्वर्यवान् धार्मिक राजा के विरुद्ध (अपृतन्यत्) सेना सहित युद्ध करे तो (अस्य) इस धार्मिक, बलवान् राजा का (वज्रम्) शस्त्र, सेनाबल वीर्य पराक्रम उसको (सानौ अधि) मेध को जिस प्रकार वायु का तीव्र विद्युत् मेघ के उठे कन्धों पर वज्र आघात करता है। उसी प्रकार (सानौ) उसके कन्धे या अवयव पर (आ जघान) सब तरफ़ से उसे प्रहार करता है। और (वध्रिः) जिस प्रकार बधिया, नपुंसक बैल (वृष्णा प्रतिमानं) खूब बलवान् साँड के मुकाबले पर आकर (पुरुत्रा) जगह-जगह (वि-अस्तः) विविध प्रकार से पटका जाकर (अशयत्) लोट पोट हो जाता है उसी प्रकार वह (वध्रिः) बधिया, नपुंसक बैल के समान निर्बल पुरुष भी (वृष्णः) सांड के समान बलवान् राजा के (प्रतिमानं) मुक़ाबले पर आना (बुभूषन्) चाहता हुआ (पुरुत्रा) बहुत से स्थलों पर (वि अस्तः) विविध प्रकार से पछाड़ खाकर, परास्त होकर (वृत्रः) बिजली की मार खाये हुए मेघ के समान (अशयत्) भूमि पर आ पड़ता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा एखादा निर्बल पुरुष सबलाबरोबर युद्ध करू इच्छितो, तसेच वृत्रमेघ सूर्याबरोबर युद्ध करण्यास प्रवृत्त होतो व शेवटी सूर्याकडून छिन्नभिन्न होऊन पराजित होऊन पृथ्वीवर त्याचे पतन होते, तेस जो धर्मात्मा बलवान पुरुषाबरोबर युद्धाला प्रवृत्त होतो त्याचीही अशीच दशा होते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Legs now lost, arms lost, Vrtra had challenged Indra. Impotent fool he was, desiring equal rivalry with the mighty hero. Indra struck the lightning thunderbolt on his shoulder. Beaten and broken all over, Vrtra lies flat on the earth.

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    Subject of the mantra

    Then, becoming how that cloud falls on the earth. This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sarvasenāsvāmin)=lord of all armies, (tvam)=you,(yathā)=as, (vṛtraḥ)=cloud, (vṛṣṇaḥ)=Semen means that of a man who waters rain water. (pratimānam)=to equality, (bubhūṣan)=desiring, (badhriḥ)=weak and impotent, (iva)=similar to, (yam)=which, (indram)=of the Sun world, (prati)=towards, (yat)=that, (icchan)=desiring, (tasya)=of that, (asya) =of the cloud, (sānau)=of organs, (adhi)=above, (śikharākāra)=shaped like peaks, (ghanānām)=of clouds, (upari)=above, (indraḥ)=Sun-world, (vajram)=it’s ray’s as thunder (ā) =from all sides, (tena)=by him, (hataḥ+san)=tearing apart, (vṛtraḥ) bādala (apāt) binā paira [aura]=and, (ahastaḥ)=like without hands, (vyastaḥ)=thrown in many ways that is, extended, [aura]=and, (purutrā)=falling in many places, (aśayat)=seem to appear as sleeping, (vat)=in the same way, (bhavati)=it happens, (tathā) )=in the same way, (bhūtān)=of living beings, (śatrūn)=to enemies, (chittvā-bhittvā)=having shattered always, (vijayasva)=the victorious, (satatam)=always keep going.

    English Translation (K.K.V.)

    O Lord of all armies! Like you, desiring the likeness of a man who irrigates the semen of the cloud, i.e. rain water, like the weak and impotent, like the one who wants to fight with his small army against the Sun world, whosoever wishes, on the clouds shaped like peaks, above the parts of that cloud, the Sun, disintegrating his thunderbolt in the form of rays from all sides, like a cloud without legs and without hands, projected in many ways. And falling at many places, it appears to be sleeping, so it is. In the same way, by breaking the enemies of the living beings must be victorious continuously.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. Like a weak man is engaged to fight against a powerful. As in the end [that cloud] falls on the earth after being shattered and defeated by the Sun, so is the condition of that man also, who is engaged to fight with the righteous king.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How does the cloud fall down on the earth is further taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    1. Foot-less and handless, still Vritra (cloud) challenges Indra (Sun), who smites him with his thunder bolt (of rays) between his mountain like shoulders. 2. This is figurative and graphic description of the battle between Indra and Vritra (the sun and the cloud), A commander of the army, should conduct himself like the mighty sun and should get vigtory of his un-righteous and wicked foes, having destroyed them with his mighty weapons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अपृतन्यत्) आत्मनः पृतनां योद्धुम् इच्छतीति अत्र कव्यध्वर पृतनस्य ( अष्टा ७.४.३९ ) इत्याकारादेशः = Desires to fight with his army. (इन्द्रम्) सूर्यलोकम् = The solar world. ( वज्रम्) स्वकिरणाख्यम् = Thunderbolt in the firm of the rays of the sun. (कृष्ण:) वीर्यसेक्तुः पुरुषस्य = Of a virile person. ( वध्रिः ) वध्यते सर्वाध्रिः निर्वीयो नपुंसकमिव अत्र वन्धधातोर्वाहुलकात् औणादिकः क्रिन् प्रत्ययः = Emasculate. ( प्रतिमानम् ) सादृश्यं परिमाणं वा = Likeness or measure. ( व्यस्तः) विविधतया प्रक्षिप्तः = Thrown away. अस-प्रक्षेपे = To 'throw.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a weak person may desire to fight with a mighty hero, in the same way. Vritra (cloud) wages war with the mighty sun. But as it falls down on the earth shattered or smitten into pieces by the sun, completely vanquished, in the same manner, the man who desires to fight with a righteous king meets the same fate.

    Translator's Notes

    That Indra stands for the sun as interpreted by Rishi Dayananda is substantiated by authentic passages from the Brahmanans like अय यः स इन्द्रः असौ स आदित्यः (शतपथ ब्रा० ८.५ ३.२) एष वा इन्द्रो य एष ( सूर्य: ) तपति || ( शत० २. ३. ४. १२) इन्द्रः सूर्यः इति सायणाचार्योऽपि ( ताण्ड्य महाब्राह्मणस्य १४.२.५) भाष्ये ।

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