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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    न वेप॑सा॒ न त॑न्य॒तेन्द्रं॑ वृ॒त्रो वि बी॑भयत्। अ॒भ्ये॑नं॒ वज्र॑ आय॒सः स॒हस्र॑भृष्टिराय॒तार्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । वेप॑सा । न । त॒न्य॒ता । इन्द्र॑म् । वृ॒त्रः । वि । बी॒भ॒य॒त् । अ॒भि । ए॒न॒म् । वज्रः॑ । आय॒सः । स॒हस्र॑ऽभृष्टिः । आ॒या॒त॒ । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वेपसा न तन्यतेन्द्रं वृत्रो वि बीभयत्। अभ्येनं वज्र आयसः सहस्रभृष्टिरायतार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। वेपसा। न। तन्यता। इन्द्रम्। वृत्रः। वि। बीभयत्। अभि। एनम्। वज्रः। आयसः। सहस्रऽभृष्टिः। आयत। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सभाध्यक्ष ! स्वराज्यमन्वर्चंस्त्वं यथा वृत्र इन्द्रं वेपसा न विबीभयत् तन्यता न विबीभयदेनं मेघं प्रति सूर्यप्रेरितः सहस्रभृष्टिरायसो वज्रोऽभ्यायत तथा शत्रून् प्रति भव ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (न) निषेधार्थे (वेपसा) वेगेन (न) निषेधे (तन्यता) तन्यतुना गर्जनेन शब्देन। अत्र सुपां सुलुगिति डादेशः। (इन्द्रम्) सभाद्यध्यक्षम् (वृत्रः) मेघ इव शत्रुः (वि) विशेषे (बीभयत्) भयितुं शक्नोति (अभि) आभिमुख्ये (एनम्) शत्रुं पर्जन्यं वा (वज्रः) शस्त्रसमूहः किरणसमूहो वा (आयसः) अयसा निष्पन्नस्तेजोमयो वा (सहस्रभृष्टिः) सहस्रमसंख्याता भृष्टयः पीडा दाहा वा यस्मात् सः (आयत) समन्ताद्धन्ति। अत्र यमो गन्धने। (अष्टा०१.२.१५) [इति सिचः कित्त्वम्, कित्त्वादनुनासिकलोपः] (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मेघादयः सूर्यस्य पराजयं कर्तुं न शक्नुवन्ति, तथैव शत्रवो धार्मिकौ सभाद्यध्यक्षौ परिभवतिुन्न शक्नुवन्ति ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे सभापते ! (स्वराज्यमन्वर्चन्) अपने राज्य का सत्कार करता हुआ तू जैसे (वृत्रः) मेघ (वेपसा) वेग से (इन्द्रम्) सूर्य्य को (न विबीभयत्) भय प्राप्त नहीं करा सकता और वह मेघ गर्जन वा प्रकाश की हुई (तन्यता) बिजुली से भी भय को (न) नहीं दे सकता (एनम्) इस मेघ के ऊपर सूर्यप्रेरित (सहस्रभृष्टिः) सहस्र प्रकार के दाह से युक्त (आयसः) लोहा के शस्त्र वा आग्नेयास्त्र के तुल्य (वज्रः) वज्ररूप किरण (अभ्यायत) चारों ओर से प्राप्त होता है, वैसे शत्रुओं पर आप हूजिये ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मेघ आदि सूर्य्य को नहीं जीत सकते, वैसे ही शत्रु भी धर्मात्मा सभा और सभापति का तिरस्कार नहीं कर सकते ॥ १२ ॥

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    विषय

    इन्द्र की निर्भीकता

    पदार्थ

    १. अध्यात्म - जीवन में वासनारूप शत्रु का महान् भय बना ही रहता है । यह वासना प्रद्युम्न - प्रकृष्ट बलवाली है - ‘मारः’ - यह असावधान पुरुष को तो मार ही डालनेवाली है, परन्तु जिस समय (अर्चन् अनु स्वराज्यम्) = एक पुरुष संयम की भावना का समादर करता है, उस समय (वृत्रः) = यह ज्ञान की आवरणभूत वासना (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (न वेपसा) = न तो अपने कम्पनों और (न तन्यता) = न ही अपनी गर्जनाओं से (विबीभयत्) = भयभीत कर पाती है । संयमी पुरुष इस काम से डरता नहीं । काम का अभियान होने पर सब सुकृत पर्वत - कन्दराओं में जा छिपते हैं, परन्तु जब यह इन्द्र संयम की भावना को प्रधानता देता है तब यह वृत्र उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता । २. इन्द्र का भयभीत होना तो दूर रहा, इस काम की चेष्टाएँ व गर्जन होने पर इन्द्र का (आयसः) = लोहे का बना हुआ (सहस्रभृष्टिः) = शतशः धारोंवाला (वज्रः) = वज्र (एनं अभि) = इस वृत्र को लक्ष्य करके (आयत) = प्राप्त होता है । यह ‘आयस वज्र’ अनथक क्रियाशीलता ही है । एक व्यक्ति चलने में थकता नहीं तो कहते हैं - अरे भाई ! इसकी टाँगें तो मानो लोहे की बनी हुई हैं । इस प्रकार कर्म करते हुए भी न थकने पर यह कहा जाएगा कि - इसके हाथों में तो एक ‘आयसवज्र’ है । यह आसयवज्र शतशः वासनारूप शत्रुओं का नाश करने के कारण यहाँ सहस्त्रभृष्टि कहा गया है, हजारों धारों से शत्रुओं को नष्ट करनेवाला ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम अनथकरूप से क्रियाशील बनें । यह क्रियाशीलता ही वह वज्र बनेगी जो वासनारूप शत्रुओं का दलन करेगी ।

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    विषय

    पक्षान्तर में ईश्वरोपासना और परमेश्वर के स्वराट् रूप की अर्चना ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( वृत्रः ) मेघ ( इन्द्रं ) सूर्य या विद्युत् को ( न वेपसा ) न वेग से और ( न तन्यता ) न गर्जन से ही (वि बीभयत्) विशेष रूप से भयभीत कर सकता है प्रत्युत (आयसः) तेजोमय, (सहस्र भृष्टिः ) बलपूर्वक गिरने वाला ( वज्रः ) विद्युत् ही ( एनम् अभि आयत ) उसको छिन्न भिन्न कर देता है उसी प्रकार (स्वराज्यम् अनु अर्चन्) अपने राज्य सामर्थ्य को बढ़ाता हुआ राजा ( एनम् अभि ) उस शत्रु को लक्ष्य करके ( आयसः ) लोहमय शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और ( सहस्र-भृष्टिः ) सहस्रों पीड़ा या दाहों को उत्पन्न करने वाला (वज्रः) साक्षात् खड्ग के समान नाशकारी होकर ( आयत ) सब तरफ़ उसका नाश करे । वह ( वृत्रः ) शत्रु ( इन्द्रम् ) उस राजा को (न वेपसा ) न अपने वेग से और (न तन्यता) न गर्जनमात्र से ( बिभयत् ) डरा सकता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर भी सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे सभाध्यक्ष ! स्वराज्यम् अनु अर्चन् त्वं यथा वृत्र इन्द्रं वेपसा न वि बीभयत् तन्यता न वि बीभयत् एनं मेघं प्रति सूर्यप्रेरितः सहस्रभृष्टिःआयसः वज्रः अभि आयत तथा शत्रून् प्रति भव ॥१२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (सभाध्यक्ष)= सभा के अध्यक्ष ! (स्वराज्यम्) =अपने राज्य की, (अनु)=भलाई के लिये, (अर्चन्)=उत्तम कार्य करते हुए, (त्वम्) =तुम, (यथा)=जैसे, (वृत्रः) मेघ इव शत्रुः=बादल के समान शत्रु को, (इन्द्रम्) सभाद्यध्यक्षम्=सभा आदि का अध्यक्ष, (वेपसा) वेगेन=वेग से, (न) निषेधार्थे=नहीं, (वि) विशेषे=विशेष रूप से, (बीभयत्) भयितुं शक्नोति=भयभीत कर सकता है, (तन्यता) तन्यतुना गर्जनेन शब्देन=बिजली की गर्ज के शब्द से, (न) निषेधार्थे= नहीं, (वि) विशेषे=विशेष रूप से, (बीभयत्) भयितुं शक्नोति= भयभीत कर सकता है, (एनम्) शत्रुं पर्जन्यं वा=शत्रु या बादल को, (मेघम्)= बादल की, (प्रति)=ओर, (सूर्यप्रेरितः)= सूर्य द्वारा प्रेरित, (सहस्रभृष्टिः) सहस्रमसंख्याता भृष्टयः पीडा दाहा वा यस्मात् सः=हजारों पीड़ा देनेवाले अग्नि के अस्त्र, (आयसः) अयसा निष्पन्नस्तेजोमयो वा= लोहे बनाये गये या चमकनेवाले अस्त्र, और (वज्रः) शस्त्रसमूहः किरणसमूहो वा= शस्त्रों या किरणों के समूह, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (आयत) समन्ताद्धन्ति। अत्र यमो गन्धने=हर ओर से नाश करते हैं, (तथा)=वैसे ही, [आप] (शत्रून्)=शत्रुओं के, (प्रति)= प्रति, (भव)= हूजिये ॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस प्रकार से बादल आदि सूर्य को पराजित नहीं सकते हैं, वैसे ही शत्रु, धार्मिक और सभा के अध्यक्ष पर विजय नहीं कर सकते हैं ॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (सभाध्यक्ष) सभा के अध्यक्ष ! (स्वराज्यम्) अपने राज्य की (अनु) भलाई के लिये (अर्चन्) उत्तम कार्य करते हुए, (त्वम्) तुम (यथा) जैसे (वृत्रः) बादल के समान शत्रु को, (इन्द्रम्) सभा आदि का अध्यक्ष (वेपसा) वेग से, (वि) विशेष रूप से, (न+बीभयत्) भयभीत नहीं कर सकता है। (वज्रः) शस्त्रों या किरणों के समूह और (तन्यता) बिजली की गर्ज के शब्द से, (वि) विशेष रूप से (न+बीभयत्) भयभीत नहीं कर सकता है। (सूर्यप्रेरितः) सूर्य द्वारा प्रेरित और (सहस्रभृष्टिः) पीड़ा देनेवाले अग्नि के हजारों अस्त्र, [जो] (आयसः) लोहे से बनाये गये या चमकनेवाले अस्त्र हैं, (एनम्) शत्रु या बादल को, (मेघम्) बादल की (प्रति) ओर, (अभि) सामने से और (आयत) हर ओर से नाश करते हैं, (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (शत्रून्) शत्रुओं के (प्रति) प्रति (भव) हूजिये ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    न । वेप॑सा । न । त॒न्य॒ता । इन्द्र॑म् । वृ॒त्रः । वि । बी॒भ॒य॒त् । अ॒भि । ए॒न॒म् । वज्रः॑ । आय॒सः । स॒हस्र॑ऽभृष्टिः । आ॒या॒त॒ । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मेघादयः सूर्यस्य पराजयं कर्तुं न शक्नुवन्ति, तथैव शत्रवो धार्मिकौ सभाद्यध्यक्षौ परिभवतिुन्न शक्नुवन्ति ॥१२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मेघ इत्यादी सूर्याचा पराभव करू शकत नाहीत तसेच शत्रूही धर्मात्मा, सभा व सेनापतीचा कधी अनादर करू शकत नाहीत. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Neither by thunder nor by lightning can Vrtra, the cloud, terrorize Indra, the sun. Similarly neither by force nor by fear can the forces of evil, injustice and violence shake Indra, the ruler, who is dedicated with faith and reverence to the freedom and self-government of the people and the republic. Instead, the thunderbolt of inviolable steel and a hundred-fold lightning blaze overwhelms this demon of destructive forces from all round.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (Indra) O President of the council of Ministers, or King! welcoming thy royal authority thou shouldst behave towards thy enemies just like the sun whom the cloud can not frighten either by its quick movement or by its roaring thunder, but who attacks the latter from all sides with his hot rays like steel missales emitting fire and burning in a thousand ways.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तन्यता) तन्यतुना गर्जनेन- शब्देन = By the thunder. (सहस्रभृष्टिः) सहस्रम् असंख्याताः भृष्टयः पीडा दाहा वा यस्मात् । = Giving pin and burning in various ways. (आयत) समन्तात् हन्ति = Completely shatters.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the clouds etc. cannot defeat the sun. in the same manner, enemies cannot vanquish the President of the Assembly and the council.

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    Subject of the mantra

    Even then, how the President of the Assembly should be?This topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sabhādhyakṣa) =President of the Assembly, (svarājyam) =of own kingdom, (anu) =for welfare, (arcan) =doing good work, (tvam)=you, (yathā) =like (vṛtraḥ) =to cloud like an enemy, (indram) =the President of the Assembly etc., (vepasā) =by speed, (vi) =specially, (na+bībhayat) =can’t frighten, (vajraḥ)=groups of arms or rays and, (tanyatā) =with the sound of thunder, (vi) =specially, (na+bībhayat) =can’t frighten, (sūryapreritaḥ)=inspired by the Sun and, (sahasrabhṛṣṭiḥ) Thousands of weapons of tormenting fire, [jo]=those, (āyasaḥ) =are weapons made of iron or shining, (enam) =to enemy or cloud, (megham) =of cloud, (prati) =towards, (abhi) =from front and, (āyata) =destroy from every side, (tathā) =in the same way, (tvam) =you, (śatrūn) =of enemy, (prati)=against, (bhava) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O President of the Assembly! While doing good work for the welfare of his kingdom, the President of the Assembly cannot frighten the enemy like a cloud, especially with the speed. The sound of a missiles or a group of rays and a thunderbolt may not be particularly intimidating. Inspired by the Sun and thousands weapons of fire giving pain, which are made of iron or shining weapons, destroy the enemy or the cloud, from the front and from all sides, similarly you should act against the enemies.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as clouds etc. cannot defeat the Sun, in the same way enemies cannot defeat the righteous and the President of the Assembly.

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