ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
स त्वा॑मद॒द्वृषा॒ मदः॒ सोमः॑ श्ये॒नाभृ॑तः सु॒तः। येना॑ वृ॒त्रं निर॒द्भ्यो ज॒घन्थ॑ वज्रि॒न्नोज॒सार्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्वा॒ । अ॒म॒द॒त् । वृषा॑ । मदः॑ । सोमः॑ । श्ये॒नऽआ॑भृतः । सु॒तः । येन॑ । वृ॒त्रम् । निः । अ॒त्ऽभ्यः । ज॒घन्थ॑ । व॒ज्रि॒न् । ओज॑सा । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वामदद्वृषा मदः सोमः श्येनाभृतः सुतः। येना वृत्रं निरद्भ्यो जघन्थ वज्रिन्नोजसार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः। त्वा। अमदत्। वृषा। मदः। सोमः। श्येनऽआभृतः। सुतः। येन। वृत्रम्। निः। अत्ऽभ्यः। जघन्थ। वज्रिन्। ओजसा। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे वज्रिन् ! येन वृष्णा मदेन श्येनाभृतेन सुतेन सोमेन त्वमोजसा स्वराज्यमन्वर्चन् यथा सूर्य्योऽद्भ्यः पृथक्कृत्य वृत्रं जलं स्वीकुर्वन्तं मेघं निर्जघान तथा प्रजाभ्यः पृथक्कृत्य प्रजासुखं स्वीकुर्वन्तं शत्रुं निर्जघन्थ, स वृषा मदः श्येनाभृतः सुतः सोमस्त्वामदत् ॥ २ ॥
पदार्थः
(सः) (त्वा) त्वाम् (अमदत्) हर्षयेत् (वृषा) न्यायवर्षकः (मदः) आह्लादकारकः (सोमः) ऐश्वर्यप्रदः पदार्थसमूहः (श्येनाभृतः) यः श्येन इव विज्ञानादिगुणैः समन्ताद् भ्रियते सः (सुतः) संतापितः (येन) (वृत्रम्) जलं स्वीकुर्वन्तं प्रजासुखं स्वीकुर्वन्तं वा (निः) नितराम् (अद्भ्यः) जलेभ्यः प्रजाभ्यो वा (जघन्थ) हन्ति (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रविद्याभिज्ञ (ओजसा) पराक्रमेण (अर्चन्) सत्कुर्वन् (अनु) आनुकूल्ये (स्वराज्यम्) स्वकीयं राज्यम् ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। पुरुषैर्यैः पदार्थैः कर्मभिश्च प्रजा प्रसन्ना स्यात्तैः समुन्नेया। शत्रून्निवार्य्य धर्मराज्यं नित्यं प्रशंसनीयम् ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष आदि कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्रों की विद्या को धारण करनेवाले और सभाध्यक्ष ! (येन) जिस न्याय वर्षाने और मद करनेवाले जो कि बाज पक्षी के समान धारण किया जावे, उस उत्पादन किये हुए पदार्थों के समूह से तू (ओजसा) पराक्रम से (स्वराज्यम्) अपने राज्य को (अन्वर्चन्) शिक्षानुकूल किये हुए जैसे सूर्य (अद्भ्यः) जलों से अलग कर (वृत्रम्) जल को स्वीकार अर्थात् पत्थर सा कठिन करते हुए मेघ को निरन्तर छिन्न-भिन्न करता है, वैसे प्रजा से अलग कर प्रजा सुख को स्वीकार करते हुए शत्रु को (निर्जघन्थ) छिन्न-भिन्न करते हो (सः) वह (वृषा) (मदः) (श्येनाभृतः) (सुतः) उक्त गुणवाला (सोमः) पदार्थों का समूह (त्वा) तुझको (अमदत्) आनन्दित करावे ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिन पदार्थों और कामों से प्रजा प्रसन्न हो, उनसे प्रजा की उन्नति करें और शत्रुओं की निवृत्ति करके धर्मयुक्त राज्य की नित्य प्रशंसा करें ॥ २ ॥
विषय
श्येनाभृत सोम [हृदयान्तरिक्ष से वृत्र का विनाश]
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि (सः सोमः) = वह सोम [वीर्य] (त्वा अमदत्) = तुझे आनन्द देनेवाला हो, जो सोम (वृषा) = सब सुखों का वर्षण करनेवाला है अथवा जो शक्ति देनेवाला है, जो सोम (मदः) = हर्ष व उल्लास का उत्पादक है । इस सोम का रक्षण न होने पर जीवन उल्लासशून्य हो जाता है । (श्येनाभृतः) = यह सोम श्येन से आभृत होता है [श्यैङ् गतौ], गतिशील पुरुष के द्वारा यह शरीर में धारण किया जाता है । आलस्य वासनाओं के लिए उर्वराभूमि है, आलस्य में वासनाएँ पनपती हैं और तब सोमरक्षण सम्भव नहीं होता । (सुतः) = यह सोम आहार से रसादि क्रम द्वारा अभिषुव है - आहार से रस, रस से रुधिर, रुधिर से मांस, मांस से अस्थि, अस्थि से मज्जा, मज्जा से मेदस् और मेदस् से सोम का अभिषव होता है । इस ‘सुत’ सोम का तू रक्षण कर, यह तुझे आनन्दित करेगा । २. हे (वज्रिन्) = हाथ में क्रियाशीलता वज्र को लिये हुए जीव ! तु (येन) = जिस सोम से (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (अद्भ्यः) = हृदयान्तरिक्ष से [आपः अन्तरिक्ष] (निर्जघन्थ) = निकालकर बाहर फेंकता है, वह सोम तुझे आनन्दित करनेवाला हो । ३. इस सोम के रक्षण के लिए ही (स्वराज्यं अनु) = आत्मशासन का लक्ष्य करके (अर्चन्) = तू उपासनावाला बन । उपासना से तू संयमी बनेगा । संयम से सोमरक्षण कर पाएगा । सोमरक्षण से शक्तिशाली बनकर तू वृत्र का विनाश करनेवाला इन्द्र बनेगा । यही तेरे जीवन की सार्थकता होगी ।
भावार्थ
भावार्थ - सोम का भरण क्रियाशील पुरुष से ही होता है । सोमरक्षण से ओजस्वी बनकर हम हृदय से वासनाओं को दूर भगा पाते हैं ।
विषय
स्वराज्य की वृद्धि, और उनके उपायों का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( वज्रिन् ) शस्त्रास्त्र सेनाबल के स्वामिन् राजन् ! ( सः ) वह ( वृषा ) सब सुखों का वर्षक ( श्येनाभृतः ) वाज के समान आक्रमण द्वारा बलपूर्वक प्राप्त किया हुआ, ( सुतः ) अभिषेक द्वारा प्राप्त ऐश्वर्ययुक्त ( सोमः ) राष्ट्र वैभव ( त्वा ) तुझे ( अमदद् ) हर्षित करे । ( येन ) जिसके बल पर तू ( स्वराज्यम् अनु अर्चन्) अपने राज्यशासन को निरन्तर अधिक मान आदर देता हुआ, उसकी ही वृद्धि करता हुआ ( ओजसा ) बल पराक्रम से ( अद्भयः वृत्रं ) जलों से मेघ को सूर्य के समान ( अद्भयः ) आप्त प्रजाओं के बीच में से (वृत्रम्) बढ़ते हुए, या नाना चाल चलते हुए विघ्नकारी शत्रु को ( निर्जघन्थ ) सर्वथा निकाल बाहर कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह सभाध्यक्ष आदि कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे वज्रिन् ! येन वृष्णा मदेन श्येनाभृतेन सुतेन सोमेन त्वम् ओजसा स्वराज्यम् अनु अर्चन् यथा सूर्य्यः अद्भ्यः पृथक् कृत्य वृत्रं जलं स्वीकुर्वन्तं मेघं निः जघान तथा प्रजाभ्यः पृथक् कृत्य प्रजासुखं स्वीकुर्वन्तं शत्रुं निः जघन्थ स वृषा मदः श्येनाभृतः सुतः सोमः त्वा अमदत् ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रविद्याभिज्ञ=शस्त्र और अस्त्र विद्या के ज्ञाता! (येन)=जिस, (वृष्णा) {(वृषा) न्यायवर्षकः }=न्याय की वर्षा करनेवाले के द्वारा, (मदेन)=हर्षित होकर के, (श्येनाभृतेन) { श्येनाभृतः =यः श्येन इव विज्ञानादिगुणैः समन्ताद् भ्रियते सः } =बाज के समान विशेष ज्ञान आदि के गुणों से हर ओर से जकड़ा हुए, (सुतेन)=पुत्र के द्वारा, (सोमेन) ऐश्वर्यप्रदः पदार्थसमूहः =ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले पदार्थों के समूह से, (त्वम्) =तुम, (ओजसा) पराक्रमेण= पराक्रम से, (स्वराज्यम्) स्वकीयं राज्यम्=अपने राज्य की, (अनु) आनुकूल्ये= अनुकूलता, (अर्चन्) सत्कुर्वन्=सत्कार करते हुए, (यथा) =जैसे, (सूर्य्यः)=सूर्य, (अद्भ्यः) जलेभ्यः प्रजाभ्यो वा=जलों या प्रजाओं के लिये, (पृथक्)= पृथक्, (कृत्य)= करके, (वृत्रम्) जलं स्वीकुर्वन्तं प्रजासुखं स्वीकुर्वन्तं वा=जल या प्रजा के सुख को स्वीकार करता है, ( मेघम्)=बादल को, (निः) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (जघान)=छिन्न-भिन्न करता है, (तथा)=वैसे ही, (प्रजाभ्यः)= प्रजा के लिये, (पृथक्) = पृथक्, (कृत्य) =करके, (प्रजासुखम्)= प्रजा के सुख को, (स्वीकुर्वन्तम्) =स्वीकार करते हुए, (शत्रुम्)=शत्रु को, (निः) नितराम्= अच्छे प्रकार से, (जघन्थ) हन्ति=मार देता है, (सः)=वह, (वृषा) न्यायवर्षकः= न्याय की वर्षा करनेवाला, (मदः) आह्लादकारकः=प्रसन्न कर देनेवाला, (श्येनाभृतः) यः श्येन इव विज्ञानादिगुणैः समन्ताद् भ्रियते सः= बाज के समान विशेष ज्ञान आदि के गुणों से हर ओर से जकड़ा हुआ, (सुतः) संतापितः= तपाया हुआ, (सोमः) ऐश्वर्यप्रदः पदार्थसमूहः= ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले पदार्थों का समूह, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (अमदत्) हर्षयेत्=हर्षित करे ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा पदार्थों और कर्मों से प्रजा प्रसन्न होवे और अच्छे प्रकार से उन्नति करें। शत्रुओं को दूर करके, स्थापित धर्म का राज्य नित्य प्रशंसनीय है ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्र विद्या के ज्ञाता! (येन) जिस (वृष्णा) न्याय की वर्षा करनेवाले के द्वारा (मदेन) हर्षित होकर के (श्येनाभृतेन) बाज के समान विशेष ज्ञान आदि के गुणों से, हर ओर से जकड़े हुए (सुतेन) पुत्र के द्वारा, (सोमेन) ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले पदार्थों के समूह से, (त्वम्) तुम (ओजसा) पराक्रम से (स्वराज्यम्) अपने राज्य की (अनु) अनुकूलता में (अर्चन्) सत्कार करते हुए, (यथा) जैसे (सूर्य्यः) सूर्य (अद्भ्यः) जलों या प्रजाओं के लिये (पृथक्) पृथक् (कृत्य) करके (वृत्रम्) जल या प्रजा के सुख को स्वीकार करता है और (मेघम्) बादल को (निः) अच्छे प्रकार से (जघान) छिन्न-भिन्न करता है। (तथा) वैसे ही (प्रजाभ्यः) प्रजा के लिये (पृथक्) पृथक् (कृत्य) करके (प्रजासुखम्) प्रजा के सुख को (स्वीकुर्वन्तम्) स्वीकार करते हुए (शत्रुम्) शत्रु को (निः) अच्छे प्रकार से (जघन्थ) मार देते हो। (सः) वह (वृषा) न्याय की वर्षा करनेवाला है और (मदः) प्रसन्न कर देनेवाला है, (श्येनाभृतः) बाज के समान विशेष ज्ञान आदि के गुणों से हर ओर से जकड़ा हुआ है और (सुतः) अच्छे प्रकार से तपाया हुआ है। (सोमः) ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले पदार्थों का समूह (त्वा) तुमको (अमदत्) हर्षित करे ॥२॥
संस्कृत भाग
सः । त्वा॒ । अ॒म॒द॒त् । वृषा॑ । मदः॑ । सोमः॑ । श्ये॒नऽआ॑भृतः । सु॒तः । येन॑ । वृ॒त्रम् । निः । अ॒त्ऽभ्यः । ज॒घन्थ॑ । व॒ज्रि॒न् । ओज॑सा । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। पुरुषैर्यैः पदार्थैः कर्मभिश्च प्रजा प्रसन्ना स्यात्तैः समुन्नेया। शत्रून्निवार्य्य धर्मराज्यं नित्यं प्रशंसनीयम्॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी ज्या पदार्थ व कार्यांनी प्रजा प्रसन्न होईल त्या गोष्टींनी प्रजेला उन्नत करावे व शत्रूंचे निवारण करून धर्मयुक्त राज्याची नित्य प्रशंसा करावी. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
That excitement and enthusiasm arising from the eagle-shaped vedi of yajna and defended and advanced by the army in eagle array, raining from showers of divinity from Brahma, may boost your morale, and thereby, O Indra, lord of the thunderbolt, doing homage to the freedom and self-government of your people with your valour and heroism, you break the cloud of darkness, want and suffering and release the flow of plenty and prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O powerful wielder of the war weapons, just as the sun shatters the cloud that keeps waters bound, so do thou. utilising those objects of the earth like a hawk which is developed, shower blessings on mankind, dispel the foe that robs thy subjects of their peace and happiness, thus making thy kingdom acceptable and respectable and so may these objects be to thy rejoicing.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सोम:) ऐश्वर्यप्रद: पदार्थसमूहः | = Objects that cause prosperity. (श्येनाभूतः) यः श्येन इव विज्ञानादिगुणैः समन्ताद् भ्रिययते सः = Which is supported by scientific knowledge and its application etc.like a hawk. (वृत्रम्) जलं स्वीकुर्वन्तं प्रजासुखं स्वीकुर्वन्तं वा = Cloud accumulating water or a foe that robs the subjects of their happiness.
Translator's Notes
The word सोम is derived from षु प्रसवैश्वर्ययो: hence the meaning given above by Rishi Dayananda Sarasvati. The word श्येन is derived from श्यैङ् गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च Here the first meaning of ra or knowledge has been taken by Rishi Dayananda as quoted above.
Subject of the mantra
Then, how are those President of the Assembly etc.?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vajrin) =expert of missiles and weapon, (yena) =by which, (vṛṣṇā) =by the one who showers justice, (madena) =with joy, (śyenābhṛtena) =Like a hawk, with the qualities of special knowledge etc., clinging to him from all sides, (sutena)= the son, (somena)= by the group of things that provide opulence, (tvam) =you, (ojasā) =bravely, (svarājyam) =of own kingdom, (anu)= in compatibility, (arcan) =With hospitality, (yathā) =like (sūryyaḥ) =Sun, (adbhyaḥ) =for the waters or the people, (pṛthak) =separate, (kṛtya) =by doing, (vṛtram)=accepts the happiness of water or people and, (megham) =to cloud, (niḥ) =well, (jaghāna) =disintegrats, (tathā) =similarly, (prajābhyaḥ) =for people, (pṛthak) =separate, (kṛtya) =by doing, (prajāsukham) =to the happiness of people, (svīkurvantam) =accepting, (śatrum) =to enemy, (niḥ) =properly, (jaghantha) =kill, (saḥ) =that, (vṛṣā) = is the one who showers justice and, (madaḥ)=is pleasing, (śyenābhṛtaḥ)= Like an eagle, he is surrounded on all sides by the qualities of special knowledge etc. and, (sutaḥ) =well heated, (somaḥ) =group of substances that provide opulence, (tvā) =to you, (amadat) make happy.
English Translation (K.K.V.)
O expert of missiles and weapon! Being happy with the one who showers justice, with the qualities of special knowledge etc. like an eagle, with the son who is clinging on all sides, with the group of things that bestow opulence, you are giving hospitality to your kingdom with great valour, like the Sun accepts the happiness of the waters or people by separating them and disperses the clouds in a good way. Similarly, for the sake of the people, by separating them and accepting the happiness of the people, you kill the enemy in a good manner. He is the one who showers justice and gives happiness, is surrounded on all sides with the qualities of special knowledge etc. like an eagle and is well tempered. May the collection of things that provide opulence make you happy.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent simile as a figurative in this mantra. May the people be happy with the things and deeds of human beings and may they progress well. By removing the enemies, the rule of righteousness established is always praiseworthy.
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