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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स॒हस्रं॑ सा॒कम॑र्चत॒ परि॑ ष्टोभत विंश॒तिः। श॒तैन॒मन्व॑नोनवु॒रिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मोद्य॑त॒मर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑म् । सा॒कम् । अ॒र्च॒त॒ । परि॑ । स्तो॒भ॒त॒ । विं॒श॒तिः । श॒ता । ए॒न॒म् । अनु॑ । अ॒नो॒न॒वुः॒ । इन्द्रा॑य । ब्रह्म॑ । उत्ऽय॑तम् । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रं साकमर्चत परि ष्टोभत विंशतिः। शतैनमन्वनोनवुरिन्द्राय ब्रह्मोद्यतमर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रम्। साकम्। अर्चत। परि। स्तोभत। विंशतिः। शता। एनम्। अनु। अनोनवुः। इन्द्राय। ब्रह्म। उत्ऽयतम्। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः राजपुरुषैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यः स्वराज्यं स्वकीयं राष्ट्रमर्चन् सत्कुर्वन् वर्त्तते तमाश्रित्य तदधर्माचरणात् पृथक् परिष्टोभत साकं सहस्रमर्चत यं विंशतिः शतान्यन्वनोनवुर्य उद्यतं ब्रह्मार्चन् वर्त्तते तस्मा इन्द्राय सभाध्यक्षायानु स्तुवत ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (सहस्रम्) असंख्यातगुणसम्पन्नम् (साकम्) परस्परं मिलित्वा (अर्चत) सत्कुरुत (परि) सर्वतः (स्तोभत) स्तम्भयत (विंशतिः) एतत्संख्याकानि (शता) शतानि सैन्यानि (एनम्) सभाध्यक्षम् (अनु) आनुकूल्ये (अनोनवुः) स्तुवत (इन्द्राय) उत्कृष्टैश्वर्य्याय (ब्रह्म) वेदं सुसंस्कृमन्नं वा (उद्यतम्) उद्वृत्तम् (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    नहि विरोधत्यागेन विना परस्परं सुखं भवति, नहि मनुष्यैर्विद्योत्तमसुशिक्षारहितो निन्दितो मनुष्यः सभाद्यध्यक्षः कार्य्यः ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर राजपुरुषों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जो सभाध्यक्ष (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) सत्कार करता हुआ वर्त्तमान होता है (एनम्) उसका आश्रय करके उस अपने राज्य को सब प्रकार से अधर्माचरण से (परिष्टोभत) रोको, (साकम्) परस्पर मिल के (सहस्रम्) असंख्यात गुणों से युक्त पुरुषों से सहित (अर्चत) सत्कार करो। जिसको (विंशतिः) बीस (शता) सैकड़े (अनु) अनुकूलता से (अनोनवुः) स्तुति करो, जो (उद्यतम्) प्रसिद्ध (ब्रह्म) वेद वा अन्न को (अर्चन्) सत्कार करता हुआ वर्त्तता है, उस (इन्द्राय) अधिक सम्पत्तिवाले सभाध्यक्ष के लिये अनुकूल हो के स्तुति करो ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को विरोध के विना छोड़े परस्पर सुख कभी नहीं होता। मनुष्यों को उचित है कि विद्या तथा उत्तम सुख से रहित और निन्दित मनुष्य को सभाध्यक्ष आदि का अधिकार कभी न देवें ॥ ९ ॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = ( सहस्रम् ) = हज़ार ( साकम् ) = साथ मिलकर ( अर्चत ) = स्तुति करो ( परि  स्तोभत ) = स्तोत्र उच्चारण करो ( विंशतिः ) = बीस ( शता ) = सैकड़ों ने  ( एनम् ) = इसकी  ( अनु अनोनवुः ) = वारंवार स्तुति की है। ( इन्द्राय ) = इन्द्र के लिए ( ब्रह्म ) = मन्त्ररूप स्तुति ( उद् ) = ऊपर ( यतम् ) = उठाई गई, वह ( अनुस्वराज्यम् ) = अपने राज्य को ( अर्चन् ) = प्रकाशित करता हुआ विराजमान है। 

     

    भावार्थ

    भावार्थ = हे मुमुक्षु पुरुषो! आप हज़ार इकट्ठे होकर इन्द्र भगवान् की स्तुति करो, बीस इकट्ठे होकर स्तोत्र उच्चारण करो, इसकी सैकड़ों ने वारंवार स्तुति की है। ऋषि महात्माओं ने मन्त्ररूप स्तुति की ध्वनि को ऊपर उठाया है वह इन्द्र भगवान् अपने राज्य को प्रकाशित करता हुआ विराजमान है। जो विदेशी लोग कहा करते हैं कि भारतवासी मिलकर बैठना और मिलकर प्रभु की प्रार्थना करना जानते ही नहीं, उनको चाहिये कि इस मन्त्र को देखें । हमारे महर्षि लोग, जो वेदों का अभ्यास करते थे, वे सब इस बात को जानते थे । एकान्त वनों में बैठकर उपासना करते, सभा-समाजों में भी आते, इकट्ठे बैठकर प्रभु प्रार्थना करते-कराते थे ।

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    विषय

    सहस्त्रं - विंशतिः - शता

    पदार्थ

    १. (सहस्त्रम्) = [स+हस्] हँसने के साथ, अर्थात् अत्यन्त प्रसन्नता के साथ (साकम्) = सब मिलकर, घर में सब पारिवारिक सदस्य एक स्थान में [अस्मिन् सधस्थे] एकत्र होकर (अर्चत) = उस प्रभु का अर्चन करो । प्रातः - सायं सब मिलकर उस प्रभु की अर्चना करें, यही बच्चों को उत्तम बनाने का वास्तविक मार्ग है । २. एकत्र होकर हम सब प्रयत्न करें कि (विंशतिः) = हमारी दस इन्द्रियों व दस प्राण मिलकर - ये बीस - के - बीस (परिष्टोभत) = उस प्रभु का स्तवन करनेवाले हों । उन - उन क्रियाओं को करते हुए ये प्रभु का स्मरण करनेवाले हों। सब क्रियाएँ प्रभु - स्मरण के साथ ही चलें । इस प्रभु - स्मरण में हम एक आनन्द का अनुभव करें [सहस्रम्] । ३. मेरे जीवन के (शता) = सौ - के - सौ वर्ष (एनम्) = इस परमात्मा को (अन्वनोनवुः) = स्तवन करनेवाले हों । मैं प्रभुस्तवन से कभी दूर न होऊँ । मेरी प्रत्येक क्रिया प्रभुस्तवन का रूप धर ले - मेरी भक्ति कर्ममयी हो । मेरा भोजन भी प्रभु के मन्दिर की मरम्मत के रूप में हो । ऐसा होने पर (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (ब्रह्म) = वे प्रभु (उद्यतम्) = स्वागत के लिए तैयार होते हैं । यह मोक्षलोक वा ब्रह्मलोक में पहुँचता है जहाँ कि इसका अभिनन्दन ब्रह्म के द्वारा किया जाता है । यह सब होता तभी है जबकि हम (अर्चन अनु स्वराज्यम्) = आत्मशासन की भावना का आदर करते है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - घर में हम सब मिलकर प्रभु - अर्चन करें । हमारी इन्द्रियों व प्राणों से प्रभुस्तवन ही चले । आजीवन हम प्रभुस्तवन से दूर न हों ।

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    विषय

    पक्षान्तर में ईश्वरोपासना और परमेश्वर के स्वराट् रूप की अर्चना ।

    भावार्थ

    जो राजा ( स्वराज्यम् ) अपने राज्यपद की ( अनु ) प्रतिदिन ( अर्चन् ) अर्चना, मान आदर और वृद्धि करता रहे उस ( सहस्रं ) बलवान् सहस्रों प्रजाओं, ऐश्वर्यों और राष्ट्र कार्यों के आश्रय स्वरूप पुरुष का आप सब लोग ( साकम् ) एक साथ मिल कर ( अर्चत ) सत्कार करो । ( विंशतिः ) बीसों अमात्य, सहायक मिल कर ( परिस्तोभत ) सब प्रकार से राज्य कार्य को संभालें । ( एनम् ) इस राज्यपद को ( शता ) सैकड़ों सेना के पुरुष ( अनु अनोनवुः ) आदर से नमस्कार और सत्कार करें। ( ब्रह्म ) यह महान राष्ट्र, धनैश्वर्य और महान् पद और ज्ञानमय वेद ( इन्द्राय ) परम ऐश्वर्यवान् राजा की वृद्धि के लिये (उद्यतम्) उत्तम रीति से व्यवस्था पूर्वक स्थिर हो, वही उसका रक्षक स्वामी हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर राजपुरुषों को क्या-करना चाहिये, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यः स्वराज्यं स्वकीयं राष्ट्रम् अर्चन् सत्कुर्वन् वर्त्तते तम् आश्रित्य तद् अधर्म आचरणात् पृथक् परि स्तोभत साकं सहस्रम् अर्चत यं विंशतिः शतानि अनोनवुः यः उद्यतं ब्रह्म अर्चन् वर्त्तते तस्मा इन्द्राय सभाध्यक्षाय अनु स्तुवत ॥९॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः)=जो, (अनु) आनुकूल्ये =भलाई के लिये, (स्वकीयम्)=अपने, (राष्ट्रम्)= राष्ट्र के, (अर्चन्) सत्कुर्वन्=उत्तम कार्य करते हुए, (वर्त्तते)=उपस्थित रहता है, (तम्)=उसका, (आश्रित्य)=आश्रय लेकर, (तद्)=उस, (अधर्म)=अधर्म के, (आचरणात्)= आचरण से, (पृथक्)= पृथक् होकर, (परि) सर्वतः=पूरी तरह से, (स्तोभत) स्तम्भयत=स्थिर होकर, (साकम्) परस्परं मिलित्वा=आपस में मिलकर, (सहस्रम्) असंख्यातगुणसम्पन्नम्=असंख्य गुणों से युक्त होकर, (अर्चत) सत्कुरुत= भलाई करते हुए, (यम्)=जिन, (विंशतिः+शतानि+सैन्यानि) एतत्संख्याकानि=बीस हजार सैनिकों के द्वारा, (अनोनवुः) स्तुवत=स्तुति करता हुआ, (यः)=जो, (उद्यतम्) उद्वृत्तम्=समृद्ध, (ब्रह्म) वेदं सुसंस्कृमन्नं वा=वेद के ज्ञान से पूरी तरह से परिपूर्ण, (अर्चन्)=स्तुति करता हुआ, (वर्त्तते) =उपस्थित होता है, (तस्मा)=उसके लिये, (इन्द्राय) उत्कृष्टैश्वर्य्याय=उत्कृष्ट ऐश्वर्य के लिये, {एनम्} सभाध्यक्षम् =सभाध्यक्ष के, (यः)=जो, (अनु) आनुकूल्ये=अनुकूल हो, उसकी, (स्तुवत)= स्तुति करो॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- विरोध को त्याग किए विना परस्पर सुख नहीं होता है। मनुष्यों के द्वारा विद्या और उत्तम शिक्षा से रहित और निन्दित मनुष्य से सभा आदि के अध्यक्ष के कार्य नहीं करवाने चाहिएँ ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब, [उसकी] (स्तुवत) स्तुति करो (यः) जो (अनु) भलाई के लिये (स्वकीयम्) अपने (राष्ट्रम्) राष्ट्र के (अर्चन्) उत्तम कार्य करते हुए (वर्त्तते) उपस्थित रहता है, (तम्) उसका (आश्रित्य) आश्रय लेकर, (तद्) उस (अधर्म) अधर्म के (आचरणात्) आचरण से (पृथक्) पृथक् होकर, (परि) पूरी तरह से (स्तोभत) स्थिर होकर और (साकम्) आपस में मिलकर, (सहस्रम्) असंख्य गुणों से युक्त होकर, (अर्चत) उत्तम कार्य करते हुए, (यम्) जिन (विंशतिः+शतानि+सैन्यानि) बीस हजार सैनिकों के द्वारा (अनोनवुः) स्तुति करता हुआ (यः) जो (उद्यतम्) समृद्ध और (ब्रह्म) वेद के ज्ञान से पूरी तरह से परिपूर्ण है, [वह] (अर्चन्) स्तुति करता हुआ, (वर्त्तते) उपस्थित होता है, (तस्मा) उस (इन्द्राय) उत्कृष्ट ऐश्वर्य के लिये (यः) जो {एनम्} सभाध्यक्ष के (अनु) अनुकूल हो ॥९॥

    संस्कृत भाग

    स॒हस्र॑म् । सा॒कम् । अ॒र्च॒त॒ । परि॑ । स्तो॒भ॒त॒ । विं॒श॒तिः । श॒ता । ए॒न॒म् । अनु॑ । अ॒नो॒न॒वुः॒ । इन्द्रा॑य । ब्रह्म॑ । उत्ऽय॑तम् । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनः राजपुरुषैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि विरोधत्यागेन विना परस्परं सुखं भवति, नहि मनुष्यैर्विद्योत्तमसुशिक्षारहितो निन्दितो मनुष्यः सभाद्यध्यक्षः कार्य्यः ॥९॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विरोधाचा त्याग केल्याशिवाय माणसांना परस्पर सुख कधी प्राप्त होत नाही. विद्या व सुशिक्षण नसणाऱ्या निंदित माणसाला सभाध्यक्षाचा अधिकार कधी देऊ नये. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Let all together with unanimity honour Indra, the ruler dedicated in faith and honour to the freedom and sovereignty of the Republic and the law and constitution in force under the rules of Veda, universal knowledge and universal values of humanity. Let a council of twenty assist and support him for work and stability of the government. Let hundreds of commanders obey and admire him for the success and glory of the land and the people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should officers of the State do is taught further in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men taking shelter under Indra (President or King ) who has a high regard for his sovereign authority, purge your kingdom of all evil. Unite in your thousands to welcome such a noble ruler and bands of scores of hundreds of you should extol him favourably and submit and offer allegiance to him, who accepts with reverence (as his rule of life) the ever useful Vedic teachings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सहस्रम्) असंख्यातगुणसम्पन्नम् । = Endowed with innumerable virtues.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There can not be mutual happiness without giving up all animosiry and disputes. Men should never appoint as President a person who is devoid of knowledge, wisdom and good education and who is ignoble.

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    Subject of the mantra

    Then, what should the royal staffers do?This topic is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, [usakī]=his, (stuvata) =praise, (yaḥ) =who, (anu) =for welfare, (svakīyam) =own, (rāṣṭram) =of nation, (arcan) =doing good deeds, (varttate) =is present, (tam) =his, (āśritya) =taking shelter, (tad) =that, (adharma)=of unrighteous, (ācaraṇāt) =by conduct, (pṛthak) =separated, (pari) =completely, (stobhata)=being stable, (sākam)=united with each other, (sahasram)=having innumerable virtues, (arcata)=doing great work, (yam)=those, (viṃśatiḥ+śatāni+sainyāni) =by twenty thousand soldiers, (anonavuḥ) =being praised, (yaḥ) =who,(udyatam)= prosperous and, (brahma)=is completely filled with the knowledge of the Vedas, [vaha]=he, (arcan) =praising, (varttate)= is present, (tasmā) =that, (indrāya) =for the ultimate opulence, (yaḥ) =which {enam}= for the President of the Assembly (anu) =be favourable.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! All of you should praise him who is present doing good deeds for the welfare of His nation, taking his shelter, separated from that unrighteous conduct, being completely stable and united with each other, having innumerable virtues, attaining the best while working, the one who is prosperous and completely filled with the knowledge of the Vedas, being praised by those twenty thousand soldiers, is present praising him, who is favourable for the President of the Assembly for that ultimate opulence.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is no mutual happiness without renouncing rivalry. A person who is devoid of knowledge and good education and who is condemned by people should not be made to do the work of President of the Assembly et cetera.

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    সহস্রং সাকমর্চত পরিষ্টোভত বিংশতিঃ।

    শতৈনমন্বনোনবুরিন্দ্রায় ব্রহ্মোদ্যতমর্চন্ননু স্বরাজ্যম্।।৫৩।।

    (ঋগ্বেদ ১।৮০।৯)

    পদার্থঃ (সহস্রম্) সহস্র জনের (সাকম্) সাথে মিলিত হয়ে (অর্চত) স্তুতি করো, (পরি স্তোভত) স্তোত্র উচ্চারণ করো। (বিংশতিঃ) বিশ (শতা) শত শত জন (এনম্) তাঁর (অনু অনোনবুঃ) বারবার স্তুতি করেছেন। (ইন্দ্রায়) ইন্দ্রের জন্য (ব্রহ্মঃ) মন্ত্ররূপ স্তুতি (উত) ঊর্ধ্বে (অয়তম্) উঠে গিয়েছে, যিনি (অনু স্বরাজ্যম্) নিজের জগত সাম্রাজ্যকে (অর্চতঃ) প্রকাশিত করে বিরাজমান।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে মুমুক্ষু পুরুষ! তোমরা সহস্র জন একত্র হয়ে ভগবান ইন্দ্রের তথা পরমৈশ্বর্যযুক্ত ঈশ্বরের স্তুুতি করো। তাঁকে শত শত জন বারবার স্তুতি করেছেন। ঋষি মহাত্মাগণ মন্ত্ররূপ স্তুতির ধ্বনিকে ঊর্ধ্বে আকাশে প্রতিধ্বনি করিয়েছেন সমবেত স্বরে। সেই সর্বশক্তিমান ঈশ্বর আপন রাজ্যকে প্রকাশিত করে বিরাজমান।

    যে অজ্ঞ ব্যক্তিরা বলে থাকে যে, ভারতবাসী মিলিত হয়ে বসতে এবং মিলিতরূপে প্রভুর প্রার্থনা করতে জানতেনই না; তাদের উচিৎ এই মন্ত্রকে দেখা। আমাদের প্রাচীন মহর্ষি ব্যক্তিগণ যাঁরা বেদের অভ্যাস করতেন, তাঁরা সবাই একথা জানতেন। একান্তে বনমধ্যে সকলে মিলে একসাথে উপাসনা করতেন, সভ্য সমাজেও আসতেন, একত্রে বসে প্রার্থনা করতেন ও করাতেন।।৫৩।।

     

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