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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    न॒हि नु याद॑धी॒मसीन्द्रं॒ को वी॒र्या॑ प॒रः। तस्मि॑न्नृ॒म्णमु॒त क्रतुं॑ दे॒वा ओजां॑सि॒ सं द॑धु॒रर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । नु । यात् । अ॒धि॒ऽइ॒मसि॑ । इन्द्र॑म् । कः । वी॒र्या॑ । प॒रः । तस्मि॑न् । नृ॒म्णम् । उ॒त । क्रतु॑म् । दे॒वाः । ओजां॑सि । सम् । द॒धुः॒ । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि नु यादधीमसीन्द्रं को वीर्या परः। तस्मिन्नृम्णमुत क्रतुं देवा ओजांसि सं दधुरर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि। नु। यात्। अधिऽइमसि। इन्द्रम्। कः। वीर्या। परः। तस्मिन्। नृम्णम्। उत। क्रतुम्। देवाः। ओजांसि। सम्। दधुः। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरं परमविद्वांसञ्च प्राप्य विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यः परः स्वराज्यमन्वर्चन् वर्त्तते यस्मिन् देवा नृम्णमुत क्रतुमुताप्योजांसि नु नहि संदधुर्यं प्राप्य वीर्य्याधीमसि तमिन्द्रं प्राप्य कः नृम्णं नहि यात् तस्मिन् को नृम्णमुत क्रतुमप्योजांसि नहि सन्दध्यात् ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (नहि) निषेधे (नु) शीघ्रं (यात्) यायात्। लेट् प्रयोगः। (अधीमसि) सर्वोपरि विराजमानं प्राप्नुमः (इन्द्रम्) अनन्तपराक्रमं जगदीश्वरं पूर्णं वीर्य्यं विद्वांसं वा (कः) कश्चित् (वीर्या) विद्यादिवीर्याणि (परः) प्रकृष्टगुणः (तस्मिन्) इन्द्रे (नृम्णम्) धनम् (उत) अपि (क्रतुम्) प्रज्ञां पुरुषार्थं वा (देवाः) विद्वांसः (ओजांसि) शरीरात्ममनः पराक्रमान् (सम्) सम्यक् (दधुः) दधति। अन्यत् सर्वे पूर्ववद् बोध्यम्। (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    नहि कश्चिदपि परमेश्वरं विद्वांसं चाप्राप्य विद्यां शुद्धां धियमुत्कृष्टं सामर्थ्यं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतदाश्रयः सदा सर्वैः कर्त्तव्यः ॥ १५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ईश्वर और परम विद्वान् को प्राप्त होकर विद्वान् लोग क्या-क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    जो (परः) उत्तमगुणयुक्त राजा (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) अनुकूलता से सत्कार करता हुआ वर्त्तता है, जिस राज्य में (देवाः) दिव्यगुणयुक्त विद्वान् लोग (नृम्णम्) धन को (क्रतुम्) और बुद्धि वा पुरुषार्थ को (उत) और भी (ओजांसि) शरीर, आत्मा और मन के पराक्रमों को (संदधुः) धारण करते हैं तथा जिस परमेश्वर को प्राप्त होकर हम लोग (वीर्य्या) विद्या आदि वीर्यों को (अधीमसि) प्राप्त होवें, उस (इन्द्रम्) अनन्त पराक्रमी जगदीश्वर वा पूर्ण वीर्य्ययुक्त राजा को प्राप्त होकर (कः) कौन मनुष्य धन को (नु) शीघ्र (नहि) (यात्) प्राप्त हो, उस राज्य में कौन पुरुष धन को तथा बुद्धि वा पुरुषार्थ वा बलों को शीघ्र नहीं धारण करता ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    कोई भी मनुष्य परमेश्वर वा परम विद्वान् की प्राप्ति के विना उत्तम विद्या और श्रेष्ठ सामर्थ्य को नहीं प्राप्त हो सकता, इस हेतु से इनका सदा आश्रय करना चाहिये ॥ १५ ॥

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    विषय

    नृम्णं - क्रतु - ओजस्

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार सिंहनाद करनेवाले (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (नु) = अब वृत्र (न हि यात्) = आक्रान्त नहीं करता, उसकी ओर जाने का वह साहस नहीं करता । २. इस पुरुष का जीवन इतना उत्तम होता है कि हम इस जितेन्द्रिय पुरुष को (अधीमसि) = [अधि + म = स्मरण] स्मरण करते हैं । इसके उत्तम जीवन को आनेवाली पीढ़ियों याद करती हैं । राम को कौन भूल सकता है । कृष्ण का स्मरण सदा रहेगा । दयानन्द का जीवन सदा प्रेरणा प्राप्त करानेवाला होगा ! ३. (कः) = कौन (वीर्या परः) = शक्ति के दृष्टिकोण से इस जितेन्द्रिय पुरुष से बढ़कर हो सकता है ! (तस्मिन्) = उस इन्द्र में तो (देवाः सूर्य) = चन्द्र, नक्षत्र व पृथिव्यादि सब देवों ने (नृम्णम्) = धन को (उत) = और (क्रतुम्) = कर्म - संकल्प को अथवा ज्ञान को तथा (ओजांसि) = ओजस्विताओं को (सन्दधुः) = स्थापित किया है । सब प्राकृतिक शक्तियों की अनुकूलता के कारण यह धन, ज्ञान व बल से सम्पन्न हुआ है, इसीलिए तो यह सबसे आगे बढ़ गया है । इसको कोई लाँध नहीं सका । यह होता तभी है जबकि (अर्चन् अनु स्वराज्यम्) = यह आत्मशासन की भावना का समादर करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम इन्द्र बनें, वासनाओं को नष्ट करें । देवानुग्रह से हमें नृम्ण, क्रतु व ओजस् की प्राप्ति होगी ।

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    विषय

    पक्षान्तर में ईश्वरोपासना और परमेश्वर के स्वराट् रूप की अर्चना ।

    भावार्थ

    (क नहि नु इन्द्रं यात्) कोई क्यों नहीं राजा की शरण में जावे ? (अधि इमसि इन्द्रं) हम राजा को ही शरण रूप से प्राप्त करें। हम विचार करें कि (वीर्या) बल वीर्य में ( परः कः ) राजा से बढ़ कर दूसरा कौन है । जो (स्वराज्यम् अर्चन् अनु) अपने राज्य की प्रतिष्ठा बढ़ाता रहे । (तस्मिन्) उसका आश्रय लेकर ( देवाः ) दानशील, ज्ञानी और विजय या ऐश्वर्य की कामना करने वाले पुरुष (नृम्णम्) मनुष्यों के अभिलाषा योग्य मन चाहे धन, ( उत क्रतुम् ) ज्ञान और कर्म सामर्थ्य और (ओजांसि ) समस्त बल पराक्रमों को ( संदधुः ) अच्छी प्रकार स्वयं धारण करते हैं और उस ही में वे सब ऐश्वर्यों, सामर्थ्य और पराक्रमों को ( संदधुः ) स्थापित करते हैं। परमेश्वर के पक्ष में—(इन्द्रं नहि नुयात् कः ?) उस भगवान्, परमेश्वर को कोई क्यों न प्राप्त हो । कोई क्यों न उसकी शरण में जावे। (अधीमसि इन्द्रम् ) हम तो नित्य उस परमेश्वर का ही स्मरण करते हैं। (वीर्या परः कः ) वीर्य और बल में सब से श्रेष्ठ दूसरा कौन है ? ( देवाः ) सूर्य आदि लोक और विद्वान् जन ( तस्मिन् ) उसमें ही (नृम्णम् क्रतुम् ओजांसि संदधुः ) समस्त ऐश्वर्य, ज्ञान, कर्म और बल पराक्रम स्थापित करते और उसके आश्रय पर स्वयं इन को अपने में अच्छी प्रकार धारण करें। अथवा—( यात् इन्द्रं नहि नु अधीमसि ) सर्वव्यापक परमेश्वर को हम नहीं जान सकते । ( वीर्या कः परः ) समस्त बलों को दूसरा कौन धारण करता है ? सिवाय परमेश्वर के दूसरा नहीं । (शेष पूर्ववत् ) ( स्वराज्यम् अनु अर्चन् ) वही प्रभु परमेश्वर अपने परम शासन को प्रतिष्ठित न को किये हुए है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

    वैदिक मन्त्र
    नहि नु यादधीमसि,इन्द्रं को वीर्या पर:
    तस्मिन् नृम्ण मुत क्रतुं,देवा ओजांसि संदधु:अर्चन्ननु‌ स्वराज्यम्।। ऋ•१.८०.१५
                         वैदिक भजन ११५८  वां
                                राग जोग
              गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
                         ‌    ताल अ‌ध्धा
    स्वराज की करें अर्चना 
    उत्कृष्ट नेता का मिले नेतृत्व 
    इन्द्र नेता है वह अपना 
    स्वराज्य......... 
    राष्ट्रीय आध्यात्मिक स्वराज्य की 
    पुकार वेद की होगी 
    बाह्य शक्ति से पराधीनता 
    स्थितियां उत्पन्न होगीं 
    दासता सहते- सहते अन्त में 
    जन- जागृति भी होगी 
    स्वराज्य........ 
    जागृत जनता ओजस्वी 
    महापुरुष इन्द्र को चुनती 
    प्रज्ञावान वीर कर्मण्य 
    इन्द्र की महिमा बढ़ती 
    खोए हुए स्वराज्य की प्राप्ति 
    इन्द्र नेता से पनपती 
    स्वराज्य.......
    कौन चलाएं प्राप्त स्वराज्य 
    प्रजा ही राजा चुनती 
    इसी तरह अध्यात्म- राष्ट्र में 
    इन्द्रियां इन्द्र को चुनती 
    क्षीण करें ना आत्म- स्वराज्य को 
    बाह्य आसुरी शक्ति 
    स्वराज....... 
    मन, बुद्धि, निज प्राण इन्द्रियां 
    स्वतंत्रता ना खोयें 
    उन्हें देव बनाना है उत्तम 
    ना कि दैत्य ही होये 
    इन्द्रात्मा की सुने वाणियां 
    निज स्वराज्य ना खोये
    स्वराज्य......... 
    पाशविक शक्तियां दुर्बल होतीं
    आत्मा बने यदि नेता 
    बागडोर स्वराज्य की आत्मा 
    स्वत: निज हाथ में लेता 
    अपार बल प्रज्ञान कर्म का 
    आत्मा बने प्रणेता 
    स्वराज्य........... 
                    ‌    २३. १०.२०२३
                       ‌‌‌     ११.३५ रात्रि

    अर्चना= पूजा, वन्दना
    नेतृत्व= मार्गदर्शन एवं संचालन करना
    पराधीनता=गुलामी
    ओजस्वी= शक्तिशाली,प्रभावशाली
    प्रज्ञावान= बुद्धिमान,ज्ञानी
    क्षीण= कमज़ोर
    दैत्य= राक्षस
    पाशविक= पशुओं जैसा, क्रूर, निर्दयी
    प्रज्ञान= विवेक, बुद्धि
    प्रणेता= निर्माण करने वाला ,रचयिता
    🕉🧘‍♂️द्वितीय श्रृंखला का १५१ वां वैदिक भजन 
    और अब तक का ११५८ वां वैदिक भजन 🙏
    वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🙏
     

    Vyakhya

    स्वराज की अर्चना
    स्वराज्य की साधना अत्यन्त कठिन है। प्रथम तो विदेशी शक्तियों को बाहर निकाल कर स्वराज्य प्राप्त करना ही दुष्कर है फिर मिले हुए स्वराज्य की रक्षा कर सकता तो और भी अधिक जटिल है। इसके लिए किसी उत्कृष्ट नेता के नेतृत्व की आवश्यकता है। इन्द्र ही हमारा नेता है। भले ही कोई उसके पीछे चले या ना चले हम तो चलेंगे ही, क्योंकि समर्थ में उससे अधिक अन्य कौन है ? देवों ने उसके अन्दर असीम शक्तियों को स्थापित किया है। वह स्वराज्य की अर्चना करने वाला है।
    भाइयों ! वेद की यह स्वराज्य की पुकार राष्ट्रीय और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की है। बाहर जब कोई देश पराधीन हो जाता है, विदेशी जाकर उसपर अपना प्रभुत्व जमा लेते हैं और वह उसकी सम्पत्ति का अपहरण करने लगते हैं। जब दासता को सहते-सहते अन्त में उस देश में जन- जागृति उत्पन्न होती है और उसके निवासी अपने में से ही किसी वीर प्रज्ञावान, कर्मण्य, ओजस्वी महापुरुष को इन्द्र चुनते हैं, अपना नेता बनाते हैं, और उसके नेतृत्व में स्वतंत्रता का उद्घोष कर, खोए हुए स्वराज को पुनः पा लेते हैं। इसी प्रकार अध्यात्मराष्ट्र में हमारा अपना आत्म इन्द्र है।अभ्यांतर राष्ट्र के स्वराज पर भी आसुरी शक्तियां अपना अधिकार कर लेती हैं हमारे मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियां सबकी स्वतंत्रता का हरण हो जाता है और मनुष्य जिसे देव बनना चाहिए दैत्य  बन जाता है। इस आत्मा को अपना नेता बनाएं। आत्मा की वाणी सुनें तो पुनः आध्यात्मिक स्वराज की प्राप्ति हो सकती है। आत्मा को ही स्वराज की बागडोर हम थमाये रहें तो वह स्वराज को स्थिर भी रख सकता है। अन्यथा पाशविक  शक्तियां प्राप्त स्वराज को छीन भी सकती हैं। आओ ! आत्मा को ही हम अपना नेता बनाएं क्योंकि उसके अन्दर देवों ने ईश्वरीय शक्तियों ने अपार बल,प्रज्ञान, कर्म और ओज निहित किया है। हे मेरे आत्मा! तुम सदा ही स्वराज की अर्चना करते रहो। 

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणताही माणूस परमेश्वर व विद्वानाच्या प्राप्तीखेरीज उत्तम विद्या व श्रेष्ठ सामर्थ्य प्राप्त करू शकत नाही त्या कारणाने त्यांचा सदैव आश्रय घेतला पाहिजे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Who would not approach Indra? We all approach and admire him. Supreme are his virtues and attributes. Who can surpass? The divinities vest in him all the wealth desired by humanity, noble yajnic action and all the valour, splendour and heroism, dedicated as he is in reverence and faith to freedom and self- government. In him and under his rule all good people are blest with wealth of knowledge, action, valour and fame.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What men do after attaining God and a highly learned person is taught further in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Who will not acquire those multifarious boons-rich wealth, industry, perserverance and various powers (of body, mind and soul) under the shelter of Almighty God and the patronage of that noble King of innumerable excellences, who deals honourably with his sovereign authority, under whose patronage the learned attain all those things and are secure by education and various powers ?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रम्) अनन्तपराक्रमं जगदीश्वरं पूर्णवीर्य विद्वांसम् ॥ = Almighty God or a mighty learned person. (ओजांसि) शरीरात्ममनः पराक्रमान् || = The strength of body, soul and mind.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can get knowledge, pure intellect and sublime power without attaining God and highly educated persons. Therefore all should take refuge in them.

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