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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 16
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    यामथ॑र्वा॒ मनु॑ष्पि॒ता द॒ध्यङ् धिय॒मत्न॑त। तस्मि॒न्ब्रह्मा॑णि पू॒र्वथेन्द्र॑ उ॒क्था सम॑ग्म॒तार्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । अथ॑र्वा । मनुः॑ । पि॒ता । द॒ध्यङ् । धिय॑म् । अत्न॑त । तस्मि॑न् । ब्रह्मा॑णि । पू॒र्वऽथा॑ । इन्द्रे॑ । उ॒क्था । सम् । अ॒ग्म॒त॒ । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यामथर्वा मनुष्पिता दध्यङ् धियमत्नत। तस्मिन्ब्रह्माणि पूर्वथेन्द्र उक्था समग्मतार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम्। अथर्वा। मनुः। पिता। दध्यङ्। धियम्। अत्नत। तस्मिन्। ब्रह्माणि। पूर्वऽथा। इन्द्रे। उक्था। सम्। अग्मत। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 16
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यस्तौ प्राप्य किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा स्वराज्यमन्वर्चन् दध्यङ्ङथर्वा पिता मनुर्यां धियं प्राप्य यस्मिन् सुखानि तनुते तथैतां प्राप्य यूयं सुखान्यत्नत, यस्मिन्निन्द्रे पूर्वथा ब्रह्माण्युक्था प्राप्नोति तस्मिन् सेविते सत्येतानि समग्मत सङ्गच्छध्वम् ॥ १६ ॥

    पदार्थः

    (याम्) वक्ष्यमाणम् (अथर्वा) हिंसादिदोषरहितः (मनुः) विज्ञानवान् (पिता) अनूचानोऽध्यापकः (दध्यङ्) दधति यैस्ते दधयः सद्गुणास्तानञ्चति प्रापयति वा सः। अत्र कृतो बहुलमिति करणे किस्ततोऽञ्चतेः क्विप्। (धियम्) शुभविद्यादिगुणक्रियाधारिकां बुद्धिम् (अत्नत) प्रयतध्वम् (तस्मिन्) (ब्रह्माणि) प्रकृष्टान्यन्नानि धनानि (पूर्वथा) पूर्वाणि (इन्द्रे) सम्यक् सेविते (उक्था) वक्तुं योग्यानि (सम्) सम्यक् (अग्मत) प्राप्नुत अन्यत्सर्वं पूर्ववत् (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ १६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः परमेश्वरोपासकानां विद्वत्सङ्गप्रीतीनामनुकरणं कृत्वा प्रशस्तां प्रज्ञामनुत्तमान्यन्नानि धनानि वा वेदविद्यासुशिक्षितानि भाषणानि प्राप्यैतानि सर्वेभ्यो देयानि ॥ १६ ॥ अस्मिन् सूक्ते सभाध्यक्षसूर्यविद्वदीश्वरशब्दार्थवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ अस्मिन्नध्याय इन्द्रमरुदग्निसभाद्यध्यक्षस्वराज्यपालनाद्युक्तत्वाच्चतुर्थाध्यायार्थेन सहास्य पञ्चमाध्यायार्थस्य सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां सुविभूषिते ऋग्वेदभाष्ये पञ्चमोऽध्यायः समाप्तिमगमत् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य उनको प्राप्त होकर किसको प्राप्त होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे (स्वराज्यम्) अपने राज्य की उन्नति से सबका (अन्वर्चन्) सत्कार करता हुआ (दध्यङ्) उत्तम गुणों को प्राप्त होनेवाला (अथर्वा) हिंसा आदि दोषरहित (पिता) वेद का प्रवक्ता अध्यापक वा (मनुः) विज्ञानवाला मनुष्य ये (याम्) जिस (धियम्) शुभ विद्या आदि गुण क्रिया के धारण करनेवाली बुद्धि को प्राप्त होकर जिस व्यवहार में सुखों को (अत्नत) विस्तार करता है, वैसे इसको प्राप्त होकर (तस्मिन्) उस व्यवहार में सुखों का विस्तार करो और जिस (इन्द्रे) अच्छे प्रकार सेवित परमेश्वर में (पूर्वथा) पूर्व पुरुषों के तुल्य (ब्रह्माणि) उत्तम अन्न, धन (उक्था) कहने योग्य वचन प्राप्त होते हैं (तस्मिन्) उसको सेवित कर तुम भी उनको (समग्मत) प्राप्त होओ ॥ १६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य परमेश्वर की उपासना करनेवाले विद्वानों के संग प्रीति के सदृश कर्म करके सुन्दर बुद्धि, उत्तम अन्न, धन और वेदविद्या से सुशिक्षित संभाषणों को प्राप्त होकर उनको सब मनुष्यों के लिये देना चाहिये ॥ १६ ॥ इस सूक्त में सभा आदि अध्यक्ष, सूर्य, विद्वान् और ईश्वर शब्दार्थ का वर्णन करने से पूर्वसूक्त के साथ इस सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये ॥ इस अध्याय में इन्द्र, मरुत्, अग्नि, सभा आदि के अध्यक्ष और अपने राज्य का पालन आदि का वर्णन करने से चतुर्थ अध्याय के अर्थ के साथ पञ्चम अध्याय के अर्थ की संगति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य श्रीयुतविरजानन्दसरस्वतीस्वामी जी के शिष्य श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामी ने संस्कृत और आर्यभाषाओं से सुभूषित ऋग्वेदभाष्य में पञ्चम अध्याय पूरा किया ॥

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    विषय

    अथर्वा मनुष्पिता दध्यङ्

    पदार्थ

    १. (याम्) = जिस (धियम्) = बुद्धिपूर्वक कर्म [धी = ज्ञान व कर्म] को (अथर्वा) = [न थर्वति] डाँवाडोल न होनेवाला, स्थिरवृत्ति का पुरुष, (मनुः) = मननशील ज्ञानी व्यक्ति, (पिता) = रक्षणात्मक वृत्तिवाला व्यक्ति तथा (दध्यङ्) = ध्यान की वृत्तिवाला पुरुष (अत्नत) = विस्तृत करते हैं, (तस्मिन्) = उस बुद्धिपूर्वक कर्म में ही (ब्रह्माणि) = सब अन्न व धन (समग्मत) = संगत होते हैं [ब्रह्म = अन्न, नि० २/७ ; ब्रह्म = धन, नि० २/१०], अर्थात् स्थितप्रज्ञ, मननशील, रक्षणात्मक वृत्तिवाला, ध्यानी पुरुष बुद्धिपूर्वक कर्मों के द्वारा उत्तम अन्नों व धनों को पाता है । २. (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (पूर्वथा) = पहले की भाँति अर्थात् जैसे सदा से यह होता ही है कि (उक्था) = प्रभु के स्तोत्र (समग्मत) = संगत होते हैं । जितेन्द्रिय पुरुष प्रभु का स्तवन करनेवाला बनता है । वस्तुतः उसकी जितेन्द्रियता का रहस्य इस स्तवनशीलता में ही है । यह स्तवनशीलता व जितेन्द्रियता उसमें उत्पन्न होती है जबकि वह (अर्चन् अनु स्वराज्यम्) = आत्मशासन की भावना का आदर करता है अथवा आत्मशासन के दृष्टिकोण से प्रभु की अर्चना करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम बुद्धिपूर्वक कर्मों से उत्तम अन्न व धन का सम्पादन करें । हममें प्रभु के स्तोम संगत हों ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार है कि - शरीररूप पृथिवी से वासनारूप अहि को दूर करो [१] । हृदय से वासना को दूर भगाओ [२] । वृत्र के विनाश के द्वारा रेतः कणों का विजय करो [३] । ये रेतः कण ही प्राणशक्ति व उत्तम जीवन देंगे [४] । अशान्ति के कारणभूत वृत्र का विनाश आश्यक है [५] । शतपर्व वन से वृत्र का विनाश करने पर ही आनन्द का अनुभव होगा [६] । मायामृगरूप वासना का वध आवश्यक है [७] । शरीररूप नाव को ठीक रखने का एक ही मार्ग है कि हम अपने विविध कर्तव्यों के पालन में लगे रहें [८] । हम आजीवन प्रभुस्तवन से दूर न हों [९] । वृत्र के बल का विनाश आवश्यक है [१०] । वृतविनाश से वह शक्ति उत्पन्न होती है जो सारे संसार को प्रभावित कर देती है [११] । क्रियाशील इन्द्र ही वज्रपाणि है, वह निर्भीक होता है [१२] । इसमें ज्ञान और शक्ति का समन्वय होता है [१३] । इस जितेन्द्रिय पुरुष की शक्ति चराचर को कम्पित कर सकती है [१४] । इस इन्द्र में देव नृम्ण, क्रतु व ओजस् का धारण करते हैं [१५] । हम बुद्धिपूर्वक कर्मों के द्वारा अन्न व धन का सम्पादन करें [१६] । हमें चाहिए कि हम वृत्रहा बनें - इन शब्दों से अगला सूक्त प्रारम्भ होता है -

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    विषय

    पक्षान्तर में ईश्वरोपासना और परमेश्वर के स्वराट् रूप की अर्चना ।

    भावार्थ

    ( अथर्वा ) प्रजा का पीड़न न होने देने वाला, प्रजा के दुःखों की शान्ति करने वाला, ( मनुः ) मननशील, ज्ञानवान् (पिता) सबका पालक गुरु (दध्यङ् ) प्रजाओं का धारण पोषण करने वाले समस्त उपायों और गुणों को स्वयं प्राप्त करने और अन्यों को प्राप्त कराने वाला होकर ( याम् ) जिस (घियम्) ज्ञान या कर्म को करता उसी कर्म को तुम लोग भी ( अत्नत ) करो। और (तस्मिन्) उस (इन्द्रे) ऐश्वर्यवान् वीर पुरुष के आश्रय रहकर ( पूर्वथा ) पूर्व पुरुषों के ( ब्रह्माणि ) समस्त ऐश्वर्य और ( उक्था ) स्तुति योग्य गुणों को ( सम् अग्मत ) प्राप्त कराओ। वह ( स्वराज्यम् अनु अर्चन् ) अपने राज्य की सदा वृद्धि करे । यह समस्त सूक्त परमेश्वरोपासना परक भी है। ‘स्वराज्य’ अपने आत्मा के प्रकाशस्वरूप का साक्षात्कार या स्वतः प्रकाशक परमेश्वर परम स्वरूप ही स्वराज्य है। उस की प्राप्ति उस की अर्चना है। इन्द्र यह आत्मा है । (१) सोम परमानन्द रस है। उस में मग्न आत्मा ईश्वर की स्तुति अपनी वृद्धि के लिये करे । अज्ञान का नाश करे ( २ ) ज्ञानवान् पुरुष है । वृत्र अज्ञान है । ( ३ ) नृ-इन्द्रियां । उनको दबाने वाला सामर्थ्य ‘नृम्ण’ है । ‘अपः’ प्राणगण । वज्र ज्ञान है । ( ४ ) भूमि = चित्तभूमि । ‘मरुत्वती अपः’ प्राणमय वृत्तियां ( ५ ) अन्धसः, आनन्द रस । ‘सखायः’ प्राण गण, (७) मायी मृग मन है । ‘नवतिः नाव्या’ ९० वर्ष है । ( ८ ) ‘विंशति’ दश २ ब्राह्या और आभ्यन्तर प्राणगण, ‘शत’ सौ वर्ष । (११) मही, प्राण और अपान ( १४ ) त्वष्टा-प्राण । ( १५ ) दध्यङ्-ध्यानी पुरुष । ( ब्रह्माणि ) उत्तम स्तुतियां । इतिदिक् । इत्येकत्रिंशो वर्गः ॥ इति पञ्चमोध्यायः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी परमेश्वराची उपासना करणाऱ्या विद्वानांचा संग करून, प्रेमाने वागून, चांगली बुद्धी, उत्तम अन्न, धन, वेदविद्येने सुसंस्कृत झालेल्या वाणीद्वारे सर्वांना ते प्रदान करावे. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That intelligence, knowledge and enlightenment which Atharva, men of love and settled peace, Manu, men of thought and science, Pita, parents and teachers, and men of attainment and acquisition developed and spread across the land in faith and service to the sovereign republic of the peoples’ freedom and self- governance, and, like the ancients, vested in Indra, the ruler, the same multiple sciences and songs of celebration, the same intelligence, knowledge and enlightenment, you all, people of the land, acquire and develop in furtherance of the freedom and sovereignty of the republic with faith and reverence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does a man do after attaining them is taught further in the sixteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! even as the righteous abstaining from all sorts great of injury to creatures,(or observing non-violence") great thinkers and teachers of the Vedic Lore-men endowed with great qualities-extending a friendly welcome to all by first developing their our capacity refined with learning and devoted to good needs, adopt such measures as would advance the happiness of mankind. You also attaining such an intellectual capacity should should do likewise. By serving God Almighty the ancients before you in all ages obtained riches by honourable means and the faculty to speak well and wisely, which you too, by taking recourse to that Almighty God can acquire.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अथर्वा) हिंसादिदोषरहतिः = A man of non-violent nature. (दध्यङ्) दधति यै: ते दधय: सद्गुरगाः ताम् अंचति प्रापयति वा । = A man endowed with great merit. (ब्रह्माणि ) = Good food and wealth. (पिता ) = A teacher of the Vedic lore.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should imitate the association with the wise and love of the devotees of God and having attained good intellect, good food, wealth and speech. refined with the Vedic knowledge, these things should be given to them.

    Translator's Notes

    अघर्वा is derived from थर्व-हिंसायाम्-काशकृत्स्नीय धातुपाने hence the above meaning given by Rishi Dayananda Sarasvati. ब्रह्मति धननाम (निघ०) ब्रह्मति अन्त्रनाम (निघo ) This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the President of there assembly, sun learned persons and God as before. Here ends the commentary of the eightieth hymn and thirty-first varga of the first Mandala of the Rigveda.

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