ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 6
अधि॒ सानौ॒ नि जि॑घ्नते॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा। म॒न्दा॒न इन्द्रो॒ अन्ध॑सः॒ सखि॑भ्यो गा॒तुमि॑च्छ॒त्यर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । सानौ॑ । नि । जि॒घ्नी॒ते॒ । वज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा । म॒न्दा॒नः । इन्द्रः॑ । अन्ध॑सः । सखि॑ऽभ्यः । गा॒तुम् । इ॒च्छ॒ति॒ । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि सानौ नि जिघ्नते वज्रेण शतपर्वणा। मन्दान इन्द्रो अन्धसः सखिभ्यो गातुमिच्छत्यर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठअधि। सानौ। नि। जिघ्नते। वज्रेण। शतऽपर्वणा। मन्दानः। इन्द्रः। अन्धसः। सखिऽभ्यः। गातुम्। इच्छति। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तस्य कर्त्तव्यानि कर्माण्युपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यथेन्द्रो विद्युच्छतपर्वणा वज्रेण वृत्रस्य सानावधि प्रहरन्तीव प्रकाशं निजिघ्नते मेघाय प्रतिकूलो वर्त्तते तथैव गातुमिच्छति स भवान् सखिभ्यो मन्दानः स्वराज्यमन्वर्चन्नन्धसो दाता भव ॥ ६ ॥
पदार्थः
(अधि) उपरिभावे (सानौ) अवयवे (नि) नितराम् (जिघ्नते) हन्त्रे (वज्रेण) (शतपर्वणा) शतान्यसंख्यातानि पर्वाण्यलं कर्माणि वा यस्मात्तेन (मन्दानः) कामयमानो हर्षयन् वा (इन्द्रः) दाता (अन्धसः) अन्नस्य (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (गातुम्) सुशिक्षितां वाणीम् (इच्छति) काङ्क्षति (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सर्वजगदुपकारी सूर्य्योऽस्ति, तथैव सभाद्यध्यक्षादयः सततं स्युः ॥ ६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसके करने योग्य कर्मों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जैसे (इन्द्रः) विद्युत् अग्नि (शतपर्वणा) असंख्यात अच्छे-अच्छे कर्मों से युक्त (वज्रेण) अपने किरणों से मेघ के (सानावधि) अवयवों पर प्रहार करता हुआ (निजिघ्नते) प्रकाश को रोकनेवाले मेघ के लिये सदैव प्रतिकूल रहता है, वैसे ही जो आप (गातुम्) उत्तम रीति से शिक्षायुक्त वाणी की (इच्छति) इच्छा करते हैं सो (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (मन्दानः) आनन्द बढ़ाते हुए और (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) सत्कार करते हुए (अन्धसः) अन्न के दाता हों ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सब जगत् का उपकार करनेवाला सूर्य्य है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि को भी होना चाहिये ॥ ६ ॥
विषय
शतपर्व वज्र
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (शतपर्वणा) = सौ पर्वोंवाले (वज्रेण) = वज्र से, अर्थात् सौ - के - सौ वर्षपर्यन्त चलनेवाली क्रियाशीलता से (सानौ अधिनिजिघ्नते) = वृत्र के शिखर पर प्रहार करता है, वासना के सिर पर घातक प्रहार करता है और वासना को समाप्त कर देता है, उसका सिर कुचल देता है । २. वासना को समाप्त कर देने पर यह इन्द्र (अन्धसः) = सोम के रक्षण से (मन्दानः) = जीवन में अद्भुत आनन्द व तृप्ति का अनुभव करता है और इस अनुभव के आधार पर (सखिभ्यः) = अपने सखाओं के लिए भी (गातुं इच्छति) = इसी मार्ग को चाहता है । उन्हें भी वासना को समाप्त करके सोमरक्षण की प्रेरणा देता है । ३.यह सब वह करता तभी है जबकि (अर्चन अनु स्वराज्यम्) = वह आत्मशासन की भावना का पूजन करता है । यही भावना उसके जीवन के उत्थान का कारण बनती है ।
भावार्थ
भावार्थ - जीवनपर्यन्त क्रियाशील बनकर वासना की समाप्ति से वीर्यरक्षण करते हुए हम आनन्द का अनुभव करें ।
विषय
पक्षान्तर में ईश्वरोपासना और परमेश्वर के स्वराट् रूप की अर्चना ।
भावार्थ
( स्वराज्यम् अनु अर्चन् ) अपने राजत्वपद की प्रतिष्ठा करता हुआ ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा, सूर्य के समान तेजस्वी होकर (शतपर्वणा वज्रेण) सैकड़ों अंगों वाले शास्त्रास्त्र बल से ( जिघ्नते ) प्रहार करने वाले शत्रु के ( सानौ अधि ) प्रत्येक अंग पर (नि) अच्छी प्रकार प्रहार करे । और स्वयं ( अन्धसः ) अन्नादि ऐश्वर्य का ( इन्द्रः ) स्वामी, और दाता होकर ( मन्दानः ) सब को प्रसन्न करता हुआ ( सखिभ्यः ) मित्र राजाओं के हित के लिये ( गातुम् ) भूमि को ( इच्छति ) चाहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर उस सभाध्यक्ष के करने योग्य कर्मों का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे राजन् ! यथा इन्द्रः विद्युत् शतपर्वणा वज्रेण वृत्रस्य सानौ अधि प्रहरन्ति इव प्रकाशं नि जिघ्नते मेघाय प्रतिकूलः वर्त्तते तथा एव गातुम् इच्छति स भवान् सखिभ्यः मन्दानः स्वराज्यम् अनु अर्चन् अन्धसः दाता भव ॥६॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (राजन्)= राजन् ! (यथा)=जैसे, (इन्द्रः) दाता=देनेवाला, (विद्युत्)= विद्युत्, (शतपर्वणा) शतान्यसंख्यातानि पर्वाण्यलं कर्माणि वा यस्मात्तेन=सौ अथवा असंख्य सुन्दर पर्व कर्मोंवाले, (वज्रेण) तीव्रेण तेजसा=तीव्र तेज से, (वृत्रस्य)=बादल के, (सानौ) अवयवे=अङ्गों में, (अधि) उपरिभावे=ऊपर से, (प्रहरन्ति)= प्रहार करने के, (इव)=समान, (प्रकाशम्)= प्रकाश का, (नि) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (जिघ्नते) हन्त्रे= प्रहार करते हो। (मेघाय)=बादल के लिये, (प्रतिकूलः)= प्रतिकूल, (वर्त्तते)=होता है, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (गातुम्) सुशिक्षितां वाणीम्= उत्तम रूप से शिक्षित की हुई वाणी, (इच्छति) काङ्क्षति=कामना करता हुआ (सः)=वह, (भवान्)=आप, (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः=मित्रों के लिये, (मन्दानः) कामयमानो हर्षयन् वा= आनन्दित करता हुआ, (स्वराज्यम्) =अपने राज्य की, (अनु) आनुकूल्ये=भलाई के लिये, (अर्चन्) सत्कुर्वन्=उत्तम कार्य करते हुए, (अन्धसः) अन्नस्य=अन्न के, (दाता) =देनेवाले, (भव)=हूजिये ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सब जगत् का उपकार करनेवाला सूर्य है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि को भी निरन्तर होना चाहिये ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (राजन्) राजन् ! (यथा) जैसे (इन्द्रः) देनेवाला (विद्युत्) विद्युत्, (शतपर्वणा) सौ अथवा असंख्य सुन्दर पर्व और कर्मोंवाले (वज्रेण) तीव्र तेज से (वृत्रस्य) बादल के (सानौ) अङ्गों में (अधि) ऊपर से (प्रहरन्ति) प्रहार करने के (इव) समान, (प्रकाशम्) प्रकाश का (नि) अच्छे प्रकार से, (जिघ्नते) प्रहार करते हुए (मेघाय) बादल के लिये (प्रतिकूलः) प्रतिकूल (वर्त्तते) होता है। (तथा) वैसे (एव) ही, (गातुम्) उत्तम रूप से शिक्षित की हुई वाणी की (इच्छति) कामना करता हुए (सः) वह (भवान्) आप, (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (मन्दानः) आनन्दित करता हुआ, (स्वराज्यम्) अपने राज्य की (अनु) भलाई के लिये (अर्चन्) उत्तम कार्य करते हुए (अन्धसः) अन्न के (दाता) देनेवाले (भव) हूजिये ॥६॥
संस्कृत भाग
अधि॑ । सानौ॑ । नि । जि॒घ्नी॒ते॒ । वज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा । म॒न्दा॒नः । इन्द्रः॑ । अन्ध॑सः । सखि॑ऽभ्यः । गा॒तुम् । इ॒च्छ॒ति॒ । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनस्तस्य कर्त्तव्यानि कर्माण्युपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सर्वजगदुपकारी सूर्य्योऽस्ति, तथैव सभाद्यध्यक्षादयः सततं स्युः ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व लुप्तोपमालंकार आहेत. जसे सर्व जगावर उपकार करणारा सूर्य आहे तसेच सभाध्यक्ष इत्यादींनीही असावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra strikes on the head and shoulders of Vrtra, demon of want and suffering with his thunderbolt of a hundredfold power and, rejoicing and doing honour and reverence to freedom and self-government, wants and plans to clear the way for the food and joy of his friendly allies and citizens of the nation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of Indra (President of the Council of Ministers) are taught further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O King, even as lightning with hundreds of its streaks seems to strike on the different parts of and to be hostile to the cloud which obstructs its lighl, so shouldst thou, who likest words of noble teaching, regarding thy own sovereign rule first, be the bestower of food and joy on thy friends, and subjects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(गातुम्) सुशिक्षितां वाणीम् = Refined speech. (अन्धसः) अन्नस्य = Of the food.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun is benefactor of all, so should always be the President of the council of Ministers and others.
Subject of the mantra
Then, what actions should be performed by that Speaker of the Assembly?This has been preached in this mantra
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (rājan) =king, (yathā)=like, (indraḥ) =provider, (vidyut)=lightning, (śataparvaṇā)=of hundred or innumerable beautiful festivals and deeds, (vajreṇa)= with intense radiance, (vṛtrasya) =of cloud, (sānau) =in the parts, (adhi) =from above, (praharanti) prahāra karane ke (iva) samāna, (prakāśam) prakāśa kā (ni) acche prakāra se, (jighnate) =striking, (meghāya) =for the cloud,(pratikūlaḥ)= unfavourable, (varttate) =is, (tathā+eva) =similarly, (gātum)= of well-trained speech, (icchati) =desiring, (saḥ) =that, (bhavān) =you, (sakhibhyaḥ) =for friends, (mandānaḥ) =bringing joy, huā, (svarājyam) apane rājya kī (anu) bhalāī ke liye (arcan) =doing good deeds, (andhasaḥ) =of food, (dātā) =provider, (bhava) =be.
English Translation (K.K.V.)
O king! Just like the lightning that provides, striking the parts of a cloud from above with its intense radiance of hundred or innumerable beautiful festivals and deeds, it is not favourable for the cloud when it strikes the light in a good manner. Similarly, desiring to have a well-trained speech, may you be a provider of food, bringing joy to your friends, and doing good deeds for the welfare of your kingdom.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There are paronomasia and silent vocal simile as figurative in this mantra. Just as the Sun is the benefactor of the entire world, in the same way the President the Assembly etc. should also continuously be.
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