ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 11
जि॒ह्मं नु॑नुद्रेऽव॒तं तया॑ दि॒शासि॑ञ्च॒न्नुत्सं॒ गोत॑माय तृ॒ष्णजे॑। आ ग॑च्छन्ती॒मव॑सा चि॒त्रभा॑नवः॒ कामं॒ विप्र॑स्य तर्पयन्त॒ धाम॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठजि॒ह्मम् । नु॒नु॒द्रे॒ । अ॒व॒तम् । तया॑ । दि॒शा । असि॑ञ्चन् । उत्स॑म् । गोत॑माय । तृ॒ष्णऽजे॑ । आ । ग॒च्छ॒न्ति॒ । ई॒म् । अव॑सा । चि॒त्रऽभा॑नवः । काम॑म् । विप्र॑स्य । त॒र्प॒य॒न्त॒ । धाम॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
जिह्मं नुनुद्रेऽवतं तया दिशासिञ्चन्नुत्सं गोतमाय तृष्णजे। आ गच्छन्तीमवसा चित्रभानवः कामं विप्रस्य तर्पयन्त धामभिः ॥
स्वर रहित पद पाठजिह्मम्। नुनुद्रे। अवतम्। तया। दिशा। असिञ्चन्। उत्सम्। गोतमाय। तृष्णऽजे। आ। गच्छन्ति। ईम्। अवसा। चित्रऽभानवः। कामम्। विप्रस्य। तर्पयन्त। धामऽभिः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कस्मै किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यथा दातारोऽवतं जिह्ममुत्सं खनित्वा तृष्णजे गोतमाय जलेन ईमसिञ्चन् तया दिशा पिपासां नुनुद्रे चित्रभानवः प्राणा इव धामभिर्विप्रस्यावसा कामं तर्पयन्त सर्वतः सुखमागच्छन्ति तथोत्तमैर्मनुष्यैर्भवितव्यम् ॥ ११ ॥
पदार्थः
(जिह्मम्) कुटिलम् (नुनुद्रे) प्रेरयन्ति (अवतम्) निम्नदेशस्थम् (तया) अभीष्टया (दिशा) (असिञ्चन्) सिञ्चन्ति (उत्सम्) कूपम्। उत्स इति कूपनामसु पठितम्। (निघं०३.२३) (गोतमाय) गच्छतीति गौः सोऽतिशयितो गोतमस्तस्मै भृशं मार्गे गन्त्रे जनाय (तृष्णजे) तृषितुं शीलाय। स्वपितृषोर्नजिङ्। (अष्टा०३.२.१७२) अनेन सूत्रेण तृषधातोर्नजिङ् प्रत्ययः। (आ) समन्तात् (गच्छन्ति) यान्ति (ईम्) पृथिवीम् (अवसा) रक्षणादिना (चित्रभानवाः) आश्चर्यप्रकाशाः (कामम्) इच्छासिद्धिम् (विप्रस्य) मेधाविनः (तर्पयन्त) तर्प्पयन्ति (धामभिः) स्थानविशेषैः ॥ ११ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याः कूपं सम्पाद्य क्षेत्रवाटिकादीनि संसिच्य तत्रोत्पन्नेभ्योऽन्नफलादिभ्यः प्राणिनः सन्तर्प्य सुखयन्ति तथैव सभाध्यक्षादयः शास्त्रविशारदान् विदुषः कामैरलंकृत्यैतैर्विद्यासुशिक्षाधर्मान् सम्प्रचार्य प्राणिन आनन्दयन्तु ॥ ११ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे किसके लिये क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जैसे दाता लोग (अवतम्) निम्नदेशस्थ (जिह्मम्) कुटिल (कुत्सम्) कूप को खोद के (तृष्णजे) तृषायुक्त (गोतमाय) बुद्धिमान् पुरुष को (ईम्) जल से (असिञ्चन्) तृप्त करके (तया) (दिशा) उस अभीष्ट दिशा से (नुनुद्रे) उसकी तृषा को दूर कर देते हैं, जैसे (चित्रभानवः) विविध प्रकाश के आधार प्राणों के समान (धामभिः) जन्म, नाम और स्थानों से (विप्रस्य) विद्वान् के (अवसा) रक्षण से (कामम्) कामना को (तर्पयन्त) पूर्ण करते और सब ओर से सुख को (आगच्छन्ति) प्राप्त होते हैं, वैसे उत्तम मनुष्यों को होना चाहिये ॥ ११ ॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य कूप को खोद खेत वा बगीचे आदि को सींचके उसमें उत्पन्न हुए अन्न और फलादि से प्राणियों को तृप्त करके सुखी करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि लोग वेदशास्त्रों में विशारद विद्वानों को कामों से पूर्ण करके इनसे विद्या, उत्तम शिक्षा और धर्म का प्रचार कराके सब प्राणियों को आनन्दित करें ॥ ११ ॥
विषय
गोतम की तृष्णा का शमन
पदार्थ
१. गतमन्त्र में कही गई (तया दिशा) = उस ऊर्ध्व दिशा की ओर ये प्राण उस व्यक्ति को (नुनुद्रे) = प्रेरित करते हैं जोकि आज तक (जिह्मम्) = कुछ कुटिल स्वभाव का था तथा (अवतम्) = नीचे - अधर्म में, पापगर्त में गिरा हुआ था । प्राणसाधना के द्वारा अधर्म की वृत्ति नष्ट होती है और मनुष्य उन्नत की दिशा में चलना आरम्भ करता है । उसकी कुटिलता नष्ट होकर उसके स्वभाव में सरलता आ जाती है । २. अब यह मनुष्य प्रशस्तेन्द्रिय बन जाता है, इसमें ज्ञानप्राप्ति की प्यास उत्पन्न हो जाती है । इस (गोतमाय) = [गाबः = इन्द्रियाणि] प्रशस्तेन्द्रिय (तृष्णजे) = [तृष्णा जाता यस्मिन्, जन्+ड] ज्ञानपिपासु के लिए ये मरुत् - प्राण (उत्सम्) = ज्ञान के निर्झर [चश्मे] को (असिञ्चन्) = ज्ञानजल से सिक्त कर देते हैं, इनमें ज्ञानप्रवाह उमड़ पड़ता है । प्राणसाधना का यह परिणाम है ही कि ज्ञान दीप्त हो उठता है । ३. इस प्रकार (चित्रभानवः) = ये अद्भुत दीप्तिवाले प्राण [मरुत्] (ईम्) = निश्चय से (अवसा) = रक्षण के हेतु (आगच्छन्ति) = इस प्राणसाधक को प्राप्त होते हैं और (विप्रस्य) = इस विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले पुरुष को ये प्राण (धामभिः) = [Lustre or strength] ज्ञान के प्रकाश व बल से (कामम्) = खुब ही (तर्पयन्त) = तृप्त करते हैं । इसे ज्ञानी व सबल बनाकर इसका प्रीणन करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना 'सरलता, ज्ञान के प्रकाश व सामर्थ्य' को देनेवाली है ।
विषय
प्रजा की रक्षा और शत्रुनाश का कर्तव्य । दानी लोगों का कर्तव्य । वृष्टि विज्ञान । मरुतों का प्यासे गोतम के लिये कूप उखाड़ लाने की कथा का रहस्य ।
भावार्थ
वायुगण ( तृष्णजे गोतमाय ) प्यासे भूमिपालक किसान जन के हित के लिये या प्यासे उत्तम प्रदेशों के लिये ( तया दिशा ) उसी दिशा से ( अवतम् ) प्रजा की रक्षा करने वाले ( उत्सम् ) कूप के समान अगाध जल को धारण करने वाले जलप्रद मेघ को ( जिह्यम् ) तिरछा, आकाश मार्ग से ( नुनुद्रे ) उड़ा ले जाते हैं और ( असिञ्चन् ) जल बरसा देते हैं। वे ( चित्रभानवः ) अद्भुत विद्युत् कान्तियों से युक्त होकर ( ईम् आगच्छन्ति ) उस प्रदेश को प्राप्त हो जाते हैं (विप्रस्य) विविध प्रकारों से भूमियों को जल और अन्नादि से पूर्ण कर देने वाले मेघ के ( धामभिः ) धारण पोषणकारी जलों से ( कामं ) कामना युक्त प्रजाजन को ( तर्पयन्तः ) उनकी अभिलाषानुसार खूब तृप्त कर देते हैं। उसी प्रकार ( चित्रभानवः ) चित्र विचित्र दीप्ति वाले, सूर्य के समान तेजस्वी, अग्नि के समान प्रतापी और नाना चमचमाते, आग्नेयादि अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित वीरगण ( तृष्णजे गोतमाय ) और अधिक ऐश्वर्य के अभिलाषी ‘गोतम’ अर्थात् पुरुष पुंगव, नरश्रेष्ठ राजा की वृद्धि के लिये (तया दिशा) उसी दिशा से अर्थात् विजय करने की रीति से (अवतं) कूप के समान नीच ( जिह्मम् ) कूटिलगामी, शत्रुजन को ( नुनुद्रे ) मार भगावें और ( उत्सं ) उत्तम मार्ग से जाने वाले भले पुरुषों को (धामभिः) नाना ऐश्वर्यों से वृक्ष के समान सींच २ कर बढ़ावें । (अवसा) अपने रक्षण सामर्थ्य और ज्ञानबल से (ईम्) इस राजा को (आगच्छन्ति) प्राप्त हों । और उस को (विप्रस्य ) विद्वान् गण तथा विविध ऐश्वर्यों और तेजों से पूर्ण सूर्य के (धामभिः) किरणों के समान प्रजा को धारण पोषण कारी नाना सामर्थ्यों, तेजों और प्रतापों से ( तर्पयन्त ) खूब तृप्त करें, खूब बढ़ावें । सामान्यतः—दानी लोग प्यासे पथिकों के लिये गहरा कुआ खोदें, जल पिलावें, भूमियों को सींचें, विद्वान् ब्राह्मणों की अभिलाषाओं को स्थान, अन्नादि से तृप्त करें । उनकी रक्षा करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर इच्छाओं की सिद्धि के लिये क्या करें, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यथा दातारः अवतं जिह्मम् उत्सं खनित्वा तृष्णजे गोतमाय जलेन ईम् असिञ्चन् तया दिशा पिपासां नुनुद्रे चित्रभानवः प्राणाः इव धामभिः विप्रस्य अवसा कामं तर्पयन्त सर्वतः सुखम् आगच्छन्ति तथा उत्तमैः मनुष्यैः भवितव्यम् ॥११॥
पदार्थ
पदार्थः- (यथा)=जिस प्रकार से, (दातारः)=देनेवाले, (अवतम्) निम्नदेशस्थम्=नीचे की ओर स्थित स्थान में, (जिह्मम्) कुटिलम्=तिरछे, (उत्सम्) कूपम्=कुएँ को, (खनित्वा)=खोद करके, (तृष्णजे) तृषितुं शीलाय= प्यास बुझाने के लिये ठण्डे, (गोतमाय) गच्छतीति गौः सोऽतिशयितो गोतमस्तस्मै भृशं मार्गे गन्त्रे= जाने के लिये अत्यन्त कठिन गिरने योग्य मार्ग में, (जलेन)=जल से, (ईम्) पृथिवीम्=भूमि को, (असिञ्चन्) सिञ्चन्ति=सींचते हैं, उस, (तया) अभीष्टया=अभीष्ट, (दिशा)= दिशा में, (पिपासाम्)=प्यास को, (नुनुद्रे) प्रेरयन्ति=प्रेरित करते हैं, (चित्रभानवाः) आश्चर्यप्रकाशाः=आश्चर्य से प्रकट होनेवाले, (प्राणाः)= प्राणों के, (इव)=समान, (धामभिः) स्थानविशेषैः=विशेष स्थानों के द्वारा, (विप्रस्य) मेधाविनः=मेधावी और, (अवसा) रक्षणादिना=रक्षा किये हुओं आदि की, (कामम्) इच्छासिद्धिम्=इच्छाओं की सिद्धि के लिये, (तर्पयन्त) तर्प्पयन्ति=तृप्ति करते हैं, (सर्वतः)=हर ओर से, (सुखम्)= सुख को, (आ) समन्तात्= हर ओर, (गच्छन्ति) यान्ति=ले जाते हैं, (तथा)=वैसे ही, (उत्तमैः)=उत्तम, (मनुष्यैः)= मनुष्यों के द्वारा, (भवितव्यम्)=होना चाहिए ॥११॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग कूप को खोद करके खेत के बाग आदि को अच्छे प्रकार से सींच करके वहाँ उत्पन्न हुए अन्न और फल आदि से प्राणियों को अच्छे प्रकार से तृप्त करके सुखी करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि शास्त्रों में विशारद विद्वानों के द्वारा कामनाओं को सुशोभित करके, उनके द्वारा विद्या, उत्तम शिक्षा और धर्म का अच्छे प्रकार से प्रचार करके प्राणियों को आनन्दित करें ॥११॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यथा) जिस प्रकार से (दातारः) देनेवाले (अवतम्) नीचे की ओर स्थित स्थान में (जिह्मम्) तिरछे (उत्सम्) कुएँ को (खनित्वा) खोद करके (तृष्णजे) प्यास बुझाने के लिये ठण्डे (जलेन) जल से, (गोतमाय) जाने के लिये अत्यन्त कठिन गिरने योग्य मार्ग में, (ईम्) भूमि को (असिञ्चन्) सींचते हैं, [उस] (तया) अभीष्ट (दिशा) दिशा में (पिपासाम्) प्यास को (नुनुद्रे) प्रेरित करते हैं। (चित्रभानवाः) आश्चर्य से प्रकट होनेवाले (प्राणाः) प्राणों के (इव) समान (धामभिः) विशेष स्थानों के द्वारा (विप्रस्य) मेधावी और (अवसा) रक्षा किये हुओं आदि की (कामम्) इच्छाओं की सिद्धि के लिये (तर्पयन्त) तृप्ति करते हैं और (सर्वतः) हर ओर से (सुखम्) सुख को (गच्छन्ति) ले जाते हैं, (तथा) वैसे ही (उत्तमैः) उत्तम (मनुष्यैः) मनुष्यों को (भवितव्यम्) होना चाहिए ॥११॥
संस्कृत भाग
जि॒ह्मम् । नु॒नु॒द्रे॒ । अ॒व॒तम् । तया॑ । दि॒शा । असि॑ञ्चन् । उत्स॑म् । गोत॑माय । तृ॒ष्णऽजे॑ । आ । ग॒च्छ॒न्ति॒ । ई॒म् । अव॑सा । चि॒त्रऽभा॑नवः । काम॑म् । विप्र॑स्य । त॒र्प॒य॒न्त॒ । धाम॑ऽभिः ॥ विषयः- पुनस्ते कस्मै किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याः कूपं सम्पाद्य क्षेत्रवाटिकादीनि संसिच्य तत्रोत्पन्नेभ्योऽन्नफलादिभ्यः प्राणिनः सन्तर्प्य सुखयन्ति तथैव सभाध्यक्षादयः शास्त्रविशारदान् विदुषः कामैरलंकृत्यैतैर्विद्यासुशिक्षाधर्मान् सम्प्रचार्य प्राणिन आनन्दयन्तु॥११॥
मराठी (1)
भावार्थ
जशी माणसे कूप खोदून शेत किंवा बगीचे इत्यादींना सिंचन करून उत्पन्न झालेले अन्न व फळे इत्यादीनी प्राण्यांना तृप्त करून सुखी करतात तसेच सभाध्यक्ष इत्यादी लोकांनी वेदशास्त्रात विशारद असलेल्या विद्वानांकडून कार्य पूर्ण करून घेऊन त्याच्याकडून विद्या, उत्तम शिक्षण व धर्माचा प्रसार करवून सर्व प्राण्यांना आनंदित करावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, powers of wondrous light with their might and generosity direct the controlled waters of the cloud by various paths in the desired directions, filling wells, tanks, springs and depressions for the thirsting children of the earth. Thus do the powers of beneficence come to the earth with protection and progress fulfilling the need of noble humanity with their power and potential.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should Maruts do for whom is taught further in the eleventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As charitably disposed persons dig a curved well in nether ground and wet the land with water for a thirsty traveler, in the same manner, good men should be like the wonderful pranas fulfilling the desires of wisemen at places. by giving them houses to live in. They with beautiful splendor approach needy persons with help and satisfy their wants.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(उत्सम्) कूपम् उत्स इति कूपनाम (निघ० ३.२३) (गोतमाय) गच्छतीतिगौः सोऽतिशयितः गोतमस्तस्मै भृशं मार्गे गन्त्रे जनाय | = For the benefit of a constant traveller. (ईम्) पृथिवोम् = Earth
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As men dig wells, water fields and gardens etc. and make people happy by satisfying their hunger with corn and fruits produced there, in the same manner, the Presidents of the Assembly and other officers of the State should satisfy the desires of learned wisemen who are experts in various Shastras and enable them to preach knowledge, good education and Dharma (righteousness) among the public at large and thus make them happy.
Translator's Notes
(ईम्) इति पदनाम निघ० ४.२) पद- गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च प्रत्रगमनार्थमादाय गोपदवाच्याया गतिशीलायाः पृथिव्या ग्रहरणम् ॥
Subject of the mantra
Then, what should they do to fulfill their desires?This matter has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā) =Like, (dātāraḥ) =giver, (avatam) in the lower placed, (jihmam)=slant, (utsam) =to well, (khanitvā) =digging, (tṛṣṇaje)= cool to quench thirst, (jalena) =by water, (gotamāya)= In a very difficult fallable path to go, (īm) =to earth, (asiñcan) =irrigate, [usa=that, (tayā) =desired, (diśā) =in the direction, (pipāsām) =to thirst, (nunudre) =inspire, (citrabhānavāḥ)=surprisingly appearing, (prāṇāḥ) =of life-breath, (iva) =like, (dhāmabhiḥ)= through special places, (viprasya) =intelligent and, (avasā)= of the protected etc., (kāmam)= for fulfillment of desires, (tarpayanta) satisfy and, (sarvataḥ) =from every side, (sukham) =to happiness, (gacchanti) =carry, (tathā) =similarly, (uttamaiḥ) =best, (manuṣyaiḥ) =to humans, (bhavitavyam) =should be.
English Translation (K.K.V.)
The way the giver digs a well at a slant lower place and irrigates the land with water to quench the thirst, which is very difficult to reach through a narrow path, he inspires thirst in that desired direction. Just as the life-breath that appear by surprise, satisfy the desires of the intelligent and protected ones etc. through special places and carry happiness from every side, similarly the best human beings should be.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Human beings by digging wells, irrigating the gardens etc. well and making the living beings happy by satisfying them with the food grains and fruits etc. grown there. Similarly, by beautifying the wishes of the President of the assembly etc. by the wise scholars in the scriptures, should make living beings happy by propagating knowledge, good education and righteousness through them.
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