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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    वि ये भ्राज॑न्ते॒ सुम॑खास ऋ॒ष्टिभिः॑ प्रच्या॒वय॑न्तो॒ अच्यु॑ता चि॒दोज॑सा। म॒नो॒जुवो॒ यन्म॑रुतो॒ रथे॒ष्वा वृष॑व्रातासः॒ पृष॑ती॒रयु॑ग्ध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ये । भ्राज॑न्ते । सुऽम॑खासः । ऋ॒ष्टिऽभिः॑ । प्र॒ऽच्य॒वय॑न्तः । अच्यु॑ता । चि॒त् । ओज॑सा । म॒नः॒ऽजुवः॑ । यत् । म॒रु॒तः॒ । रथे॑षु । आ । वृष॑ऽव्रातासः । पृष॑तीः । अयु॑ग्ध्वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि ये भ्राजन्ते सुमखास ऋष्टिभिः प्रच्यावयन्तो अच्युता चिदोजसा। मनोजुवो यन्मरुतो रथेष्वा वृषव्रातासः पृषतीरयुग्ध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। ये। भ्राजन्ते। सुऽमखासः। ऋष्टिऽभिः। प्रऽच्यावयन्तः। अच्युता। चित्। ओजसा। मनःऽजुवः। यत्। मरुतः। रथेषु। आ। वृषऽव्रातासः। पृषतीः। अयुग्ध्वम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते किं किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे प्रजासभामनुष्या ! ये मनोजुवो मरुतश्चिदिव वृषव्रातासः सुमखास ऋष्टिभिरच्युतौजसा शत्रुसैन्यानि प्रच्यावयन्तः सन्तो व्याभ्राजन्ते तैः सह येषु रथेषु यत् पृषतीरयुग्ध्वं तैः शत्रून् विजयध्वम् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (वि) विशेषार्थे (ये) सभाद्यध्यक्षादयः (भ्राजन्ते) प्रकाशन्ते (सुमखासः) शोभनाः शिल्पसंबन्धिनः संग्रामा यज्ञा येषान्ते (ऋष्टिभिः) यन्त्रचालनार्थैर्गमनागमननिमित्तैर्दण्डैः (प्रच्यावयन्तः) विमानादीनि यानानि प्रचालयन्तः सन्तः (अच्युता) क्षेतुमशक्येन (चित्) इव (ओजसा) बलयुक्तेन सैन्येन सह वर्त्तमानाः (मनोजुवः) मनोवद्गतयः (यत्) याः (मरुतः) वायवः (रथेषु) विमानादियानेषु (आ) समन्तात् (वृषव्रातासः) वृषाः शस्त्रास्त्रवर्षयितारो व्रातासो मनुष्या येषान्ते (पृषतीः) मरुत्सम्बन्धिनीरपः (अयुग्ध्वम्) योजयत ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्मनोजवेषु विमानादियानेषु जलाग्निवायून् संप्रयुज्य तत्र स्थित्वा सर्वत्र भूगोले गत्वागत्य शत्रून् विजित्य प्रजाः सम्पाल्य शिल्पविद्याकार्याणि प्रवृध्य सर्वोपकाराः कर्त्तव्याः ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे क्या-क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे प्रजा और सभा के मनुष्यो ! (ये) जो (मनोजुवः) मन के समान वेगवाले (मरुतः) वायुओं के (चित्) समान (वृषव्रातासः) शस्त्र और अस्त्रों को शत्रुओं के ऊपर वर्षानेवाले मनुष्यों से युक्त (सुमखासः) उत्तम शिल्पविद्या सम्बन्धी वा संग्रामरूप क्रियाओं के करनेहारे (ऋष्टिभिः) यन्त्र कलाओं को चलानेवाले दण्डों और (अच्युता) अक्षय (ओजसा) बल पराक्रम युक्त सेना से शत्रु की सेनाओं को (प्रच्यावयन्तः) नष्ट-भ्रष्ट करते हुए (व्याभ्राजन्ते) अच्छे प्रकार शोभायमान होते हैं, उनके साथ (यत्) जिन (रथेषु) रथों में (पृषतीः) वायु से युक्त जलों को (अयुग्ध्वम्) संयुक्त करो, उनसे शत्रुओं को जीतो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यो को उचित है कि मन के समान वेगयुक्त विमानादि यानों में जल, अग्नि और वायु को संयुक्त कर, उसमें बैठ के, सर्वत्र भूगोल में जा-आके शत्रुओं को जीतकर, प्रजा को उत्तम रीति से पाल के, शिल्पविद्या कर्मों को बढ़ा के सबका उपकार किया करें ॥ ४ ॥

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    विषय

    अच्युत = च्यावन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के सैनिकों का ही उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (ये) = वे चीर हैं जोकि (सुमखासः) = राष्ट्ररक्षा के लिए युद्ध को उत्तम यज्ञ समझनेवाले हैं, (ऋष्टिभिः) = शत्रुनाशक अस्त्र - शस्त्रों से (विभ्राजन्ते) = विशेषरूप से चमकते हैं और (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (अच्युता चित्) = अत्यन्त दृढ़ - न हिलाये जाने योग्य पर्वतादि को भी (प्रच्यावयन्तः) मार्ग से हटानेवाले होते हैं । अपनी युद्धयात्रा से पर्वत भी इनको रोक नहीं सकते । २. ये तो (यत्) = चूँकि (मनोजुवः) = [मनोवद् वेगगतयः = सा०] मन के समान वेगयुक्त गतिवाले हैं, अतः (वृषव्रातासः) = शत्रुओं का वर्षण करनेवाले मनुष्य होते हैं [व्राताः = मनुष्याः] । इस प्रकार के ये मरुतः देशरक्षण के लिए मर मिटनेवाले [म्रियन्ते] वीर सैनिक (रथेषु) = रथों में (पृषतीः) = [पृष् to vex, pain, weary] शत्रुओं को व्याकुल कर देनेवाली अपनी घोड़ियों को (आ अयुग्ध्वम्) = समन्तात् जोतते हैं, युद्धयात्रा के लिए तैयार हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = वीर सैनिक आगे बढ़ते हैं, पर्वत भी इन्हें रोक नहीं पाते ।

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    विषय

    ‘पृश्निमातरः’ का रहस्य

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( मरुतः ) वायुगण ( सुमखासः ) उत्तम सूर्य प्रकाश को धारण करने वाले होकर ( ऋष्टिभिः ) तीव्र आघात करने वाली विद्युतों से चमकते हैं (ओजसा) बल से (अच्युता प्रच्यावयन्तः) न गिरने वाले जलों को बरसाते हुए, ( मनोजुवः ) मन के समान तीव्र वेग वाले तथा ( वृषव्रातासः ) वर्षणशील मेघ के समूहों से युक्त होकर ( पृषतीः ) चर्षणशील मेघमालाओं को एकत्र करते हैं, उसी प्रकार ( ये ) जो (सुमखासः) उत्तम संग्राम में कुशल होकर (ऋष्टिभिः) शत्रुबल के नाशकारी शस्त्रों से ( भ्राजन्ते ) चमचमाते हैं और अपने (अच्युता ओजसा) अक्षय बल पराक्रम से ( प्रच्यावयन्तः ) प्रबल शत्रुओं को भी पदभ्रष्ट और रण से विमुख करते हुए ( यत् ) जब ( मनोजुवः ) मन के समान अति तीव्र वेग वाले होकर ( रथेषु ) रथों पर विराजते हो तब हे (मरुतः) वीर पुरुषो ! आप लोग ( वृषव्रातासः ) शत्रुओं पर शस्त्रास्त्रों के वर्षण करने वाले बलवान् वीर पुरुषों के गणों को साथ लिये हुए (पृषतीः) प्रबल सेनाओं को ( अयुग्ध्वम् ) अपने अधीन नियुक्त करो, उनको अपनी आज्ञा में संचालित करो । अथवा—(ओजसा अच्युता प्रच्यावयन्तः) पराक्रम से प्रबल शत्रुओं को भी गिराते हुए ( रथेषु ) अपने रथों में ( पृषतीः ) हृष्ट पुष्ट घोड़ियों के समान ( रथेषु पृषतीः ) रथों के अधीन शस्त्र वर्षी अगल बगल में पदाति सेनाओं का सञ्चालन करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे सभा आदि के अध्यक्ष क्या-क्या करें, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे प्रजासभामनुष्या ! ये मनोजुवः मरुतः चित् इव वृषव्रातासः सुमखासः ऋष्टिभिः अच्युता ओजसा शत्रुसैन्यानि प्रच्यावयन्तः सन्तः वि आ भ्राजन्ते तैः सह येषु रथेषु यत् पृषतीः अयुग्ध्वं तैः शत्रून् विजयध्वम्॥४॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (प्रजासभामनुष्या)= प्रजा और सभा के मनुष्यों ! (ये) सभाद्यध्यक्षादयः=सभा आदि के अध्यक्ष आदि, (मनोजुवः) मनोवद्गतयः=मन के समान गतियाँ, (मरुतः) वायवः=वायुओं के, (चित्) इव=समान, (वृषव्रातासः) वृषाः शस्त्रास्त्रवर्षयितारो व्रातासो मनुष्या येषान्ते=शस्त्र और अस्त्रों की वर्षा करनेवाले मनुष्यों के अन्त में, (सुमखासः) शोभनाः शिल्पसंबन्धिनः संग्रामा यज्ञा येषान्ते=शोभनीय शिल्प सम्बन्धी संग्रामों और यज्ञों के अन्त में, (ऋष्टिभिः) यन्त्रचालनार्थैर्गमनागमननिमित्तैर्दण्डैः=यन्त्रों को चलाने के लिये, जाने और आने के लिये बनाये गये डण्डों से, (अच्युता) क्षेतुमशक्येन=क्षय न किये जाने योग्य, (ओजसा) बलयुक्तेन सैन्येन सह वर्त्तमानाः=बल से युक्त सेना के साथ वर्त्तमान, (शत्रुसैन्यानि)= शत्रु के सैनिक, (प्रच्यावयन्तः) विमानादीनि यानानि प्रचालयन्तः सन्तः=विमान आदि यानों को चलाते हुए, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (भ्राजन्ते) प्रकाशन्ते=प्रकाशित करते हैं, (तैः)=उनके, (सह)=साथ, (येषु)=जिन, (रथेषु) विमानादियानेषु= विमान आदि यानों में, (यत्) याः=जो, (पृषतीः) मरुत्सम्बन्धिनीरपः=वायु सम्बन्धी जलों को, (अयुग्ध्वम्) योजयत=जोड़ता है, (तैः) =उन, (शत्रून्)=शत्रुओं पर, (विजयध्वम्)= विजयी होओ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यो के द्वारा मन के समान गतिवाले विमान आदि यानों में जल, अग्नि और वायु को अच्छी तरह से प्रयोग करके, वहाँ यान में बैठ करके, समस्त संसार में आवागमन करके, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके, सन्तान का उचित रूप से पालन करके, शिल्पविद्या के कार्यों को बढ़ा करके सबका उपकार करना चाहिए ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (प्रजासभामनुष्या) प्रजा और सभा (ये) के अध्यक्ष आदि मनुष्यों ! (मनोजुवः) मन के समान गतियों और (मरुतः) वायुओं के (चित्) समान (वृषव्रातासः) शस्त्र और अस्त्रों की वर्षा करनेवाले मनुष्यों के अन्त में और (सुमखासः) शोभनीय शिल्प सम्बन्धी संग्रामों और यज्ञों के अन्त में, (ऋष्टिभिः) यन्त्रों को चलाने के लिये, जाने और आने के लिये बनाये गये डण्डों से (अच्युता) क्षय न किये जाने योग्य (ओजसा) बल से युक्त सेना के साथ वर्त्तमान, (शत्रुसैन्यानि) शत्रु के सैनिक (प्रच्यावयन्तः) विमान आदि यानों को चलाते हुए, (वि) विशेष रूप से (आ) हर ओर से (भ्राजन्ते) प्रकाशित होते हैं। (तैः) उनके (सह) साथ (येषु) जिन (रथेषु) विमान आदि यानों में, (यत्) जो (पृषतीः) वायु सम्बन्धी जलों को (अयुग्ध्वम्) जोड़ता है, (तैः) उन (शत्रून्) शत्रुओं पर (विजयध्वम्) विजयी होओ॥

    संस्कृत भाग

    वि । ये । भ्राज॑न्ते । सुऽम॑खासः । ऋ॒ष्टिऽभिः॑ । प्र॒ऽच्य॒वय॑न्तः । अच्यु॑ता । चि॒त् । ओज॑सा । म॒नः॒ऽजुवः॑ । यत् । म॒रु॒तः॒ । रथे॑षु । आ । वृष॑ऽव्रातासः । पृष॑तीः । अयु॑ग्ध्वम् ॥ विषयः- पुनस्ते किं किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्मनोजवेषु विमानादियानेषु जलाग्निवायून् संप्रयुज्य तत्र स्थित्वा सर्वत्र भूगोले गत्वागत्य शत्रून् विजित्य प्रजाः सम्पाल्य शिल्पविद्याकार्याणि प्रवृध्य सर्वोपकाराः कर्त्तव्याः ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी मनाप्रमाणे वेगवान विमान इत्यादी यानांमध्ये जल, अग्नी व वायूला संयुक्त करून त्यातून भूगोलात जाणे-येणे करावे व शत्रूंना जिंकून प्रजेचे उत्तम रीतीने पालन करून शिल्पविद्येचे कार्य वृद्धिंगत करून सर्वांवर उपकार करावेत. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    They are the heroes, Maruts, who shine with their own lustre, powers of noble yajnic action and scientific achievement who, moving at the speed of mind, shake even the unshakable with their mighty weapons, using the energy of wind, water and electricity. Ye, rulers and commanders of the forces, powerful tacticians and organisers, deploy the maruts and use the power of versatile wind, water and electricity in your cars and battle chariots.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should Maruts do is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men belonging to the general public and the assembly, you should gain victory over the enemies with the help of the Maruts (brave soldiers like the swift winds) who have among them men raining down the missiles and weapons, good performers of the Yajnas in the form of the arts and battles with wicked persons, driving various swift cars like air-planes with suitable sticks and implements shaking by strength or strong invincible army what is un-shakable, i. e. the army of the foes and who shine with their missiles and weapons. They use in their cars swift like the wind, water, fire and other elements.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ॠष्टिभिः) यन्त्रचालनार्थे: गमनागमन निमित्तैः दण्डैः = By the sticks and other implements used for moving the machines for transportation. (वृषवातासः) वृषा: शस्त्रास्त्रवर्षयितारो व्रातास: मनुष्या येषां ते = Who have men rainers down of weapons and missiles.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should be engaged in doing benevolent acts by yoking water, fire and wind in their chariots like aeroplanes which are swift like the wind and then sitting in then they should go to distant places and come back after conquering their enemies, protecting their subjects and developing their works of art and industry.

    Translator's Notes

    व्राता इति मनुष्यनाम (निघ० २.३ ) In his commentary on Rig. 5.54.11 Rishi Dayananda Sarasvati has explained ऋष्टयः as शस्त्रास्त्राणि i.e. weapons and missilles ऋभिः so here also if the word may be taken in that sense besides the above meaning. Prof. Maxmuller's translation of ये भ्राजन्ते ऋष्टिभि as "The powerful who shine with your spears, and of Maruts, the manly hosts shaking even what is un-shakable by strength" (Vedic Hymn Vol. P. 126) proves clearly that by Maruts are meant not "Storm Gods as" supposed by him but brave soldiers as interpreted by Rishi Dayananda Sarasvati.

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    Subject of the mantra

    Then, what should the President of the Assembly etc. do?This topic has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (prajāsabhāmanuṣyā)= people and assembly, (ye)= President etc. humans, (manojuvaḥ)= mind-like movements and, (marutaḥ) =of air, (cit) =like, (vṛṣavrātāsaḥ) =at the end of the rain of missiles and arms and the people, (sumakhāsaḥ)= at the end of the battles and sacrifices related to beautiful crafts, (ṛṣṭibhiḥ)= with sticks made to operate machines, to go and come, (acyutā)= indestructible, (ojasā)= present with a mighty army, (śatrusainyāni)= enemy soldiers, (pracyāvayantaḥ)=while driving vehicles like aircraft etc., (vi) =especially, (ā) =from all sides, (bhrājante)=are illuminated, (taiḥ) =their, (saha) =with, (yeṣu) =those, (ratheṣu) =in aircraft etc. vehicles, (yat) =those, (pṛṣatīḥ) =to atmospheric waters, (ayugdhvam)= connecs, (taiḥ) =to those, (śatrūn) =on enemies, (vijayadhvam)= be victorious.

    English Translation (K.K.V.)

    O people and the President of the Assembly and other human beings! At the end of the human beings who have movements like the mind and weapons like the winds and shower missiles and arms at the end of the wars and sacrifices related to beautiful crafts, the indestructible force made by the sticks made to move the machines and to go and come. Present with the army consisting of, enemy soldiers driving aircraft etc., are especially illuminated from all sides. Be victorious over those enemies along with the aircraft and other vehicles that connect the air and water.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    By using water, fire and air well in vehicles like aircrafts etc., which move like the mind, by sitting in the vehicle, by traveling in the whole world, by conquering the enemies, by properly up brining children, one should do good to everyone by increasing the work of craftsmanship.

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