ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 6
आ वो॑ वहन्तु॒ सप्त॑यो रघु॒ष्यदो॑ रघु॒पत्वा॑नः॒ प्र जि॑गात बा॒हुभिः॑। सीद॒ता ब॒र्हिरु॒रु वः॒ सद॑स्कृ॒तं मा॒दय॑ध्वं मरुतो॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वः॒ । व॒ह॒न्तु॒ । सप्त॑यः । र॒घु॒ऽस्यदः॑ । र॒घु॒ऽपत्वा॑नः । प्र । जि॒गा॒त॒ । बा॒हुऽभिः॑ । सीद॑ता । ब॒र्हिः । उ॒रु । वः॒ । सदः॑ । कृ॒तम् । मा॒दय॑ध्वम् । म॒रु॒तः॒ । मध्वः॑ । अन्ध॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वो वहन्तु सप्तयो रघुष्यदो रघुपत्वानः प्र जिगात बाहुभिः। सीदता बर्हिरुरु वः सदस्कृतं मादयध्वं मरुतो मध्वो अन्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठआ। वः। वहन्तु। सप्तयः। रघुऽस्यदः। रघुऽपत्वानः। प्र। जिगात। बाहुऽभिः। सीदता। बर्हिः। उरु। वः। सदः। कृतम्। मादयध्वम्। मरुतः। मध्वः। अन्धसः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ये रघुस्यदो रघुपत्वानो मरुत इव सप्तयोऽश्वा वो युष्मान् वहन्तु तान् बाहुभिः प्राऽऽजिगात तैरुरुबर्हिरासीदत यैर्वो युष्माकं सदस्कृतं भवेत् तैर्मध्वोऽन्धसः प्राप्यास्मान् मादयध्वम् ॥ ६ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (वः) युष्मान् (वहन्तु) देशान्तरं प्रापयन्तु (सप्तयः) संयुक्ताः शीघ्रं गमयितारोऽग्निवायुजलादयोऽश्वाः (रघुस्यदः) ये मार्गान् स्यन्दन्ते ते। गत्यर्थाद् रघिधातोर्बाहुलकादौणादिक उः प्रत्ययो नकारलोपश्च। (रघुपत्वानः) ये रघून् पथः पतन्ति ते। अत्रान्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति वनिप् प्रत्ययः। (प्र) उत्कृष्टार्थे (जिगात) स्तुत्यानि कर्माणि कुरुत (बाहुभिः) हस्तक्रियाभिः (सीदत) देशान्तरं गच्छत (आ) सर्वतः (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (उरु) बहु (वः) युष्माकम् (सदः) स्थानम्। अत्र छन्दसि वा कःकरत्करतिकृधिकृतेष्वनदितेः। (अष्टा०८.३.५०) अनेन सूत्रेण विसर्जनीयस्य सत्वम्। (कृतम्) निष्पादितम् (मादयध्वम्) आनन्दं प्रापयत (मरुतः) वायव इव ज्ञानयोगेन शीघ्रं गन्तारो मनुष्याः (मध्वः) मधुरगुणयुक्तानि (अन्धसः) अन्नानि ॥ ६ ॥
भावार्थः
सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्याः क्रियाकौशलेन शिल्पविद्यासिद्धानि कार्याणि कृत्वा संभोगान् प्राप्नुवन्तु, नहि केनचिदस्मिन् जगति पदार्थविज्ञानक्रियाभ्यां विनोत्तमा भोगाः प्राप्तुं शक्यन्ते तस्माद् एतन्नित्यमनुष्ठेयम् ॥ ६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (रघुस्यदः) गमन करने-करानेहारे (रघुपत्वानः) थोड़े वा बहुत गमन करनेवाले (मरुतः) वायुओं के समान (सप्तयः) शीघ्र चलनेहारे अश्व (वः) तुमको (वहन्तु) देश-देशान्तर में प्राप्त करें, उनको (बाहुभिः) बल पराक्रमयुक्त हाथों से (प्राजिगात) उत्तम गतिमान् करो उनसे (उरु) बहुत (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आसीदत) बैठ के आकाशादि में गमनागमन करो। जिनसे तुम्हारे (सदः) स्थान (कृतम्) सिद्ध (भवेत्) होवें, उनसे (मध्वः) मधुर (अन्धसः) अन्नों को प्राप्त हो के हमको (मादयध्वम्) आनन्दित करो ॥ ६ ॥
भावार्थ
सभाध्यक्षादि मनुष्य लोग क्रियाकौशल से शिल्पविद्या से सिद्ध करने योग्य कार्यों को करके अच्छे भोगों को प्राप्त हों, कोई भी मनुष्य इस जगत् में पदार्थविज्ञान क्रिया के विना उत्तम भोगों को प्राप्त होने में समर्थ नहीं होता। इससे इस काम का नित्य अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ६ ॥
विषय
गतिमय इन्द्रियाश्व
पदार्थ
१. 'मरुतः' का अर्थ आधिदैविक जगत् में 'वृष्टि की वायुएँ हैं, आधिभौतिक क्षेत्र में ये वीर सैनिक हैं और अध्यात्म में ये प्राण हैं । प्राणसाधक पुरुष भी 'मरुतः' कहलाते हैं । प्राणसाधना से शरीर के सब शत्रु उसी प्रकार नष्ट होते हैं जैसेकि वीर सैनिक रणभूमि में शत्रुओं का नाश करते हैं । इस प्रकार प्राणसाधना से इन्द्रियों के दोष दूर होकर इन इन्द्रियाश्वों की गति व शक्ति बढ़ जाती है, अतः कहते हैं कि (वः) = तुम्हें (सप्तयः) = सर्पणशील अपने - अपने कार्यों को उत्तमता से करनेवाले (रघुष्यदः)= वेगयुक्त गतिवाले (रघुपत्वानः) = शीघ्रता से मार्ग का आक्रमण करनेवाले इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = जीवन - यात्रा में वहन करनेवाले हों । २. (बाहुभिः) = अपने प्रयत्नों व पराक्रमों से (प्रजिगात्) = तीव्रता से आगे और आगे चलो । जीवनपथ को प्रशस्त व उन्नत बनाते हुए तुम (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय में (सीदत) = बैठो । प्राणसाधना से हृदय वासनाशून्य बनता ही है । (वः) = तुम्हारा (सदः) = यह बैठने का स्थान - हृदय (उरु कृतम्) = विशाल बनाया गया है । विशालता में ही तो उसकी पवित्रता है । सब अशुभ वासनाएँ संकुचित हृदय की ही उपज हैं । ३. हे (मरुतः) प्राणो व प्राणसाधक पुरुषो ! आप (मध्वः) = अत्यन्त माधुर्य को लिये हुए (अन्धसः) = इस ध्यान से रक्षणीय सोम के पान से (मादयध्वम्) = आनन्द का अनुभव करो । सोमरक्षण ही सब आनन्दों का मूल है । ४. सैनिक पक्ष में (अन्धसः) = अन्नवाचक हो जाता है । सैनिकों को भी 'आयु, सत्त्व [उत्साह], बल व आरोग्य' वर्धक अन्न का सेवन करना है । यह अन्न उनको मस्ती देनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना से इन्द्रियाश्व निर्दोष होकर हमें यात्रा में आगे ले - चलते हैं । पुरुषार्थ बढ़ता है, हृदय विशाल व पवित्र बनता है । सोमरक्षण होकर आनन्द की वृद्धि होती है ।
विषय
वेगवान् यान और विशाल भवनों के उपयोग की आज्ञा । बाहुबल से विजय करने का आदेश ।
भावार्थ
(मरुतः) जिस प्रकार वायुगण के (सप्तयः रघुस्यदः) वेगवान् झकोरे अति शीघ्रगामी होते हैं, (बर्हिः) अन्तरिक्ष में व्यापते और (मध्वः) जलों और ( अन्धसः ) अन्नों से सब को तृप्त करते हैं। उसी प्रकार हे ( मरुतः ) विद्वान् और वीर पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों को ( रघुस्यदः) वेग से मार्गों में जाने वाले, (रघुपत्वानः) अति स्वल्प काल में बहुतसा मार्ग चले जाने वाले ( सप्तयः ) अश्व गण ( वहन्तु ) धारण करें, अर्थात् आप अति वेगवान् अश्वों पर सवारी करें। आप लोग ( बाहुभिः ) अपने बाहुबलों से ( प्र जिगात ) अच्छी प्रकार आगे बढ़ो । (बर्हिः सीदत) इन भूमिवासी प्रजाओं पर शासक रूप से विराजमान होवो । ( वः सदः ) आप लोगों का गृह, सभास्थान आदि (उरुकृतम्) विशाल रूप में बनाया जावे। आप लोग ( मध्वः ) मधुर जल और ( अन्धसः ) अन्न आदि रसों का ( मादयध्वम् ) उपभोग कर के स्वयं खूब तृप्त और स्वतः आनन्दित हों और औरों को भी तृप्त करें । इति नवमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे मनुष्य क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ये रघुस्यदः रघुपत्वानः मरुतः इव सप्तयः अश्वाः वः युष्मान् वहन्तु तान् बाहुभिः प्र आ जिगात तैः उरु बर्हिः आ सीदत यैः वः युष्माकं सदः कृतं भवेत् तैः मध्वः अन्धसः प्राप्य अस्मान् मादयध्वम् ॥६॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों! (ये)=जो, (रघुस्यदः) ये मार्गान् स्यन्दन्ते ते=मार्गों में तेजी से जानेवाले, (रघुपत्वानः) ये रघून् पथः पतन्ति ते=ज्ञान की सीमा के मार्ग से गिर जानेवाले, (मरुतः) वायव इव ज्ञानयोगेन शीघ्रं गन्तारो मनुष्याः=वायु के समान ज्ञान की सहायता से शीघ्र जानेवाले मनुष्य के, (इव)=समान, (सप्तयः) संयुक्ताः शीघ्रं गमयितारोऽग्निवायुजलादयोऽश्वाः=मिलकर शीघ्र जानेवाले अग्नि और जल आदि की अश्व शक्ति के, (वः) युष्मान्=तुम्हारे, (वहन्तु) देशान्तरं प्रापयन्तु=विभिन्न स्थानों को पहुँचें, (तान्)=उन, (बाहुभिः) हस्तक्रियाभिः=हाथों की क्रियाओं के द्वारा, (प्र) उत्कृष्टार्थे=उत्कृष्ट रूप से, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (जिगात) स्तुत्यानि कर्माणि कुरुत तैः=स्तुति कर्मों को कर रहे उनके द्वारा, (उरु) बहु= विस्तृत, (बर्हिः) अन्तरिक्षम्=अन्तरिक्ष में, (आ) सर्वतः=हर ओर से, (सीदत) देशान्तरं गच्छत= विभिन्न स्थानों को जाते हुए, (यैः)=जिनके द्वारा, (वः) युष्माकम्=तुम्हारा, (सदः) स्थानम्=स्थान, (कृतम्) निष्पादितम्=प्राप्त, (भवेत्)=होवे, (तैः)=उनके द्वारा, (मध्वः) मधुरगुणयुक्तानि=मधुर गुणों से युक्त, (अन्धसः) अन्नानि=अन्न, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (अस्मान्)=हमें, (मादयध्वम्) आनन्दं प्रापयत= आनन्द प्राप्त कराइये॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- सभा आदि के अध्यक्ष आदि मनुष्यों के द्वारा क्रिया और कुशलता से शिल्पविद्या को सिद्ध करने का कार्य करके, उत्तम भोगों को प्राप्त करना चाहिए। कोई भी मनुष्य इस जगत् में पदार्थ विज्ञान क्रिया के विना उत्तम भोगों को प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिये इनका नित्य अनुष्ठान करना चाहिये ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (ये) जो (रघुस्यदः) मार्गों में तेजी से जानेवाले, (रघुपत्वानः) ज्ञान की सीमा के मार्ग से गिर जानेवाले और (मरुतः) वायु के समान ज्ञान की सहायता से शीघ्र जानेवाले मनुष्य के (इव) समान, (सप्तयः) मिलकर शीघ्र जानेवाले अग्नि और जल आदि की अश्व शक्ति से, (वः) तुम्हारे (वहन्तु) विभिन्न स्थानों को पहुँचें। (तान्) उन (बाहुभिः) हाथों की क्रियाओं के द्वारा (प्र) उत्कृष्ट रूप से, (आ) हर ओर से (जिगात) स्तुति कर्मों को कर रहे, उनके द्वारा (उरु) विस्तृत (बर्हिः) अन्तरिक्ष में, (आ) हर ओर से (सीदत) विभिन्न स्थानों को जाते हुए, (यैः) जिनके द्वारा (वः) तुम्हारा (सदः) स्थान (कृतम्) प्राप्त (भवेत्) होवे। (तैः) उनके द्वारा (मध्वः) मधुर गुणों से युक्त (अन्धसः) अन्न (प्राप्य) प्राप्त करके (अस्मान्) हमें (मादयध्वम्) आनन्द प्राप्त कराइये॥६॥
संस्कृत भाग
आ । वः॒ । व॒ह॒न्तु॒ । सप्त॑यः । र॒घु॒ऽस्यदः॑ । र॒घु॒ऽपत्वा॑नः । प्र । जि॒गा॒त॒ । बा॒हुऽभिः॑ । सीद॑ता । ब॒र्हिः । उ॒रु । वः॒ । सदः॑ । कृ॒तम् । मा॒दय॑ध्वम् । म॒रु॒तः॒ । मध्वः॑ । अन्ध॑सः ॥ विषयः- पुनस्ते किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥ शक्यन्ते तस्माद् एतन्नित्यमनुष्ठेयम् ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्याः क्रियाकौशलेन शिल्पविद्यासिद्धानि कार्याणि कृत्वा संभोगान् प्राप्नुवन्तु, नहि केनचिदस्मिन् जगति पदार्थविज्ञानक्रियाभ्यां विनोत्तमा भोगाः प्राप्तुं शक्यन्ते तस्माद् एतन्नित्यमनुष्ठेयम् ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभाध्यक्ष इत्यादींनी क्रियाकौशल्ययुक्त शिल्पविद्येद्वारे सिद्ध कार्य करून चांगल्या प्रकारे भोग प्राप्त करावेत. कोणताही माणूस या जगात पदार्थ विज्ञान क्रियेशिवाय उत्तम भोग प्राप्त करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. त्यामुळे या कामाचे सदैव अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, may superfast vehicles transport you here and everywhere. May the flying planes at top speed take you anywhere by the force of their arms. Come, the chamber is made ready for you. Come and be comfortable in the seats. Enjoy yourselves with honey sweets of food and drink.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do the Maruts do is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, may the swiftly gliding quick-paced combined horses in the form of fire, air and water etc. carry you hither. Moving swiftly come hither and do admirable deeds with your arms. Go to distant places in the firmament. O ye men quick going like the winds with the help of sciences, i. e. the knowledge of various sciences. Be delighted and gladden others by taking sweet food.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सप्तय:) संयुक्ताः शीघ्र गमयितारः अग्निवायु-जलादयः अश्वाः = Causing swift movement when combined,horses in the form of fire, air and water etc. (जिगात) स्तुत्यानि कर्माणि कुरुत = Do admirable deeds. (बर्हि:) अन्तरिक्षम् = Firmament. (मरुतः) वायवः इव ज्ञानयोगेन शीघ्र गन्तारो ममुष्याः = Men who go quickly to distant places like the winds with the help of scientific knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly and others should enjoy by accomplishing many works with the help of the arts and industries. It is not possible for any one to get good enjoyment without the scientific knowledge and its practical application. Therefore this should ever be done by all.
Translator's Notes
बहिरिति अन्तरिक्ष नाम (निघ० १.३) गा-स्तुतौ
Subject of the mantra
Then, what do those humans do? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =hukans, (ye) =those, (raghusyadaḥ)= those who travel fast on the roads, (raghupatvānaḥ) =those who fall from the path of limits of knowledge and,(marutaḥ) =like the air, a person who travels quickly with the help of knowledge, (iva) =like, (saptayaḥ) =together with the horse power of fast-moving fire and water etc., (vaḥ) =your, (vahantu)=reach different places, (tān) =those, (bāhubhiḥ) =through hand movements, (pra) =excellently, (ā) =from all sides, (jigāta) =doing praiseworthy deeds, through them, (uru) =vast, (barhiḥ) =in space, (ā) =from all sides, (sīdata)= going to different places, (yaiḥ) =by whom, (vaḥ) =your, (sadaḥ) =place, (kṛtam) attain, (bhavet) =be, (taiḥ) =by them, (madhvaḥ)=having sweet qualities, (andhasaḥ) =food, (prāpya) =having attained, (asmān) =to us, (mādayadhvam)=make us happy.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Who, like a man who travels quickly on the roads, who falls short of the limits of knowledge and who travels quickly with the help of knowledge like the air, reaches your various places with the horse power of fire and water etc., who move quickly together. Through the actions of those hands, performing praise rituals from all sides excellently, through them in the vast space, going to different places from every side, through which your place can be attained. Make us happy by getting food with sweet qualities from them.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
By doing the work of perfecting craftsmanship through action and skill by people like the President of the assembly etc., one should get the best pleasures. No human being can attain the best pleasures in this world without material science activities, hence these proceedings should be performed daily.
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