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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    गोमा॑तरो॒ यच्छु॒भय॑न्ते अ॒ञ्जिभि॑स्त॒नूषु॑ शु॒भ्रा द॑धिरे वि॒रुक्म॑तः। बाध॑न्ते॒ विश्व॑मभिमा॒तिन॒मप॒ वर्त्मा॑न्येषा॒मनु॑ रीयते घृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गोऽमा॑तरः॑ । यत् । शु॒भय॑न्ते । अ॒ञ्जिऽभिः॑ । त॒नूषु॑ । शु॒भ्राः । द॒धि॒रे॒ । वि॒रुक्म॑तः । बाध॑न्ते । विश्व॑म् । अ॒भि॒ऽमा॒तिन॑म् । अप॑ । वर्त्मा॑नि । ए॒षा॒म् । अनु॑ । री॒य॒ते॒ । घृ॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गोमातरो यच्छुभयन्ते अञ्जिभिस्तनूषु शुभ्रा दधिरे विरुक्मतः। बाधन्ते विश्वमभिमातिनमप वर्त्मान्येषामनु रीयते घृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गोऽमातरः। यत्। शुभयन्ते। अञ्जिऽभिः। तनूषु। शुभ्राः। दधिरे। विरुक्मतः। बाधन्ते। विश्वम्। अभिऽमातिनम्। अप। वर्त्मानि। एषाम्। अनु। रीयते। घृतम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यद्ये गोमातरो विरुक्मतः शुभ्रा वीरा यथा मरुतस्तनूष्वञ्जिभिः शुभयन्ते विश्वमनुदधिर एषां सकाशाद् घृतं रीयते वर्त्मानि यान्ति तथाऽभिमातिनमपबाधन्ते तैः सह यूयं विजयं लभध्वम् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (गोमातरः) गौः पृथिवीव माता मानप्रदा येषां वीराणां ते (यत्) ये (शुभयन्ते) शुभमाऽऽचक्षते (अञ्जिभिः) व्यक्तैर्विज्ञानादिगुणनिमित्तैः (तनूषु) विस्तृतबलयुक्तेषु शरीरेषु (शुभ्राः) शुद्धधर्माः (दधिरे) धरन्ति (विरुक्मतः) प्रशस्ता विविधा रुचो दीप्तयो विद्यन्ते येषु ते (बाधन्ते) (विश्वम्) सर्वम् (अभिमातिनम्) शत्रुगणम् (अप) विरुद्धार्थे (वर्त्मानि) मार्गान् (एषाम्) सेनाध्यक्षादीनाम् (अनु) आनुकूल्ये (रीयते) गच्छति (घृतम्) उदकम् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    यथा वायुभिरनेकानि सुखानि प्राणबलेन पुष्टिश्च भवति, तथैव शुभगुणयुक्तविद्याशरीरात्मबलान्वितसभाध्यक्षादिभिः प्रजाजना अनेकानि रक्षणानि लभन्ते ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यत्) जो (गोमातरः) पृथिवी समान मातावाले (विरुक्मतः) विशेष अलंकृत (शुभ्राः) शुद्ध स्वभावयुक्त शूरवीर लोग जैसे प्राण (तनूषु) शरीरों में (अञ्जिभिः) प्रसिद्ध विज्ञानादि गुणनिमित्तों से (शुभयन्ते) शुभ कर्मों का आचरण कराके शोभायमान करते हैं, (विश्वम्) जगत् के सब पदार्थों का (अनुदधिरे) अनुकूलता से धारण करते हैं, (एषाम्) इनके संबन्ध से (घृतम्) जल (रीयते) प्राप्त और (वर्त्मानि) मार्गों को जाते हैं, वैसे (अभिमातिनम्) अभिमानयुक्त शत्रुगण का (अपबाधन्ते) बाध करते हैं, उनके साथ तुम लोग विजय को प्राप्त हो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायुओं से अनेक सुख और प्राण के बल से पुष्टि होती है, वैसे ही शुभगुणयुक्त विद्या, शरीर और आत्मा के बलयुक्त सभाध्यक्षों से प्रजाजन अनेक प्रकार के रक्षणों को प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    वीर सैनिक

    पदार्थ

    १. (गोमातरः) = [गौः = पृथिवी] इस पृथिवी को अपनी माता समझनेवाले ये वीर (यत्) = जब (अञ्जिभिः) = रूपाभिव्यञ्जक - अलंकृत करनेवाले आभूषणों से (शुभयन्ते) = अपने को शोभायुक्त करते हैं और (तनूषु) = शरीरों पर (शुभ्राः) = शुद्ध व निर्मल (विरुक्मतः) = विशेषेण रोचमान अलंकारों को (दधिरे) = धारण करते हैं । २. इस प्रकार ये वीर सैनिक पूर्ण उत्साह में होते हैं । ये शत्रु पर आक्रमण के लिए प्रस्थान करते हुए संकल्पात्मक सोत्साह मन से आगे बढ़ते हैं और (विश्वम्) = सब (अभिमातिनम्) = शत्रुओं को (अपबाधन्ते) = दूर ही रोक देते हैं । ३. (एषाम्) = इनके (वर्त्मानि अनु) = मार्गों से पीछे (घृतम्) = दीप्ति (रीयते) = गति करती है । इनका मार्ग दीप्तिमय होता है । तेजस्विता से दीप्त होते हुए ये शत्रु पर आक्रमण करते हैं । इस स्थिति में इनके न जीतने का प्रश्न ही नहीं उठता । वीर सैनिक विजयी बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = एक वीर सैनिक पूर्ण उत्साह के साथ युद्ध में जुटता है और जिधर जाता है, शत्रुओं को मार भगाता है ।

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    विषय

    उनको मातृभूमि का सेवक होना अवश्यक है।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( गोमातरः ) सूर्य या पृथिवी या तीव्र गमन से उत्पन्न होने वाले वायुगण ( अञ्जिभिः ) प्रकाशित होने वाली विद्युतों से सुशोभित होते हैं, अपने में (विरुक्मतः) विध कान्तिवाले मेघों को धारण करते हैं (विश्वम् अभिमातिनम् बाधन्ते) विविध दिशाओं में फैलाने वाले मेघ को पीड़ित करते हैं तब ( एषां वर्त्मानि घृतम् रीयते ) उनके मार्गों पर ही मेघ का जल भी जाता है अर्थात् जिधर वायु बहता मेघ की वृष्टि उधर ही जाती है, ठीक इसी प्रकार ( गोमातरः ) पृथिवी माता के पुत्र, देशभक्त वीरजन (यत्) जय ( अञ्जिभिः ) नाना पदों और मान प्रतिष्ठा के सूचक पदकों और चिह्नों से ( शुभयन्ते ) अपने को सुशोभित करते हैं, अथवा—विद्याओं के प्रकाशक वचनों और शास्त्रों द्वारा शुभ, कल्याणकारी वचनों का उपदेश करते हैं और ( शुभ्राः ) शुद्ध होकर ( तनूषु ) शरीरों पर ( विरुक्मतः ) नाना रुचि, कान्ति और दीप्ति वाले आभूषणों और पदार्थों या वस्त्रों और शस्त्रास्त्रों को ( दधिरे ) धारण करते हैं और वे ( विश्वम् ) सब प्रकार के (अभिमातिनम् ) गर्वीले शत्रु को ( बाधन्ते ) पीड़ित करते हैं तब ( एषां वर्त्मानि ) इन मार्गों पर ही ( घृतम् ) तेजस्वी समस्त शस्त्रास्त्र बल और ऐश्वर्य, राज्यपद ( रीयते ) चलता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे शूरवीर लोग कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः यत् ये गोमातरः विरुक्मतः शुभ्राः वीराः यथा मरुतः तनूषु अञ्जिभिः शुभयन्ते विश्वम् अनु दधिरे एषां सकाशात् घृतं रीयते वर्त्मानि यान्ति तथा अभिमातिनम् अप बाधन्ते तैः सह यूयं विजयं लभध्वम् ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों! (यत्) ये=जो, (गोमातरः) गौः पृथिवीव माता मानप्रदा येषां वीराणां ते= माता को पृथिवी के समान सम्मान प्रदान करनेवाले वीरों के वे, (विरुक्मतः) प्रशस्ता विविधा रुचो दीप्तयो विद्यन्ते येषु ते=विभिन्न प्रकार की प्रशस्त दीप्तियोंवाले, (शुभ्राः) शुद्धधर्माः= शुद्ध धर्मवाले, (वीराः)= वीर लोग, (यथा)=जैसे, (मरुतः)=वायु, (तनूषु) विस्तृतबलयुक्तेषु शरीरेषु= विस्तृत बल से युक्त शरीरों में, (अञ्जिभिः) व्यक्तैर्विज्ञानादिगुणनिमित्तैः=व्यक्त किये हुए विशेष ज्ञान आदि गुणों के लिये, (शुभयन्ते) शुभमाऽऽचक्षते= कल्याण की घोषणा करते हैं, (विश्वम्) सर्वम्=सबकी, (अनु) आनुकूल्ये=भलाई के लिये, (दधिरे) धरन्ति=धारण करते हैं, (एषाम्) सेनाध्यक्षादीनाम्= सेनाध्यक्ष आदि की, (सकाशात्)=निकटता से, (घृतम्) उदकम्=जल, (रीयते) गच्छति=जाता है, (वर्त्मानि) मार्गान्=मार्गों से, (यान्ति)=जाते हैं, (तथा)=वैसे ही, (अभिमातिनम्) शत्रुगणम्=शत्रुओं के, (अप) विरुद्धार्थे=विरोध में, (बाधन्ते)= बाधा उत्पन्न करते हैं, (तैः)=उनके, (सह)= साथ, (यूयम्)=तुम सब, (विजयम्)=विजय, (लभध्वम्)=प्राप्त करो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जिस प्रकार से वायु से अनेक सुख और प्राण के बल से पुष्टि होती है, वैसे ही शुभगुणयुक्त विद्या, शरीर और आत्मा के बल से युक्त होकर सभाध्यक्ष आदि के द्वारा प्रजाजन अनेक प्रकार के रक्षणों को प्राप्त करते हैं ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (यत्) जो (गोमातरः) माता को पृथिवी के समान सम्मान प्रदान करनेवाले वीरों के, वे (विरुक्मतः) विभिन्न प्रकार की प्रशस्त दीप्तियोंवाले और (शुभ्राः) शुद्ध धर्मवाले (वीराः) वीर लोग, (यथा) जैसे (मरुतः) वायु (तनूषु) विस्तृत बल से युक्त शरीरों में (अञ्जिभिः) व्यक्त किये हुए विशेष ज्ञान आदि गुणों के लिये (शुभयन्ते) कल्याण की घोषणा करते हैं, [वैसे ही] (विश्वम्) सबकी (अनु) भलाई के लिये (दधिरे) [गुणों को] धारण करते हैं। (एषाम्) सेनाध्यक्ष आदि की (सकाशात्) निकटता से (घृतम्) जल (रीयते) (वर्त्मानि) मार्गों से (यान्ति) जाते हैं, (तथा) वैसे ही (अभिमातिनम्) शत्रुओं के (अप) विरोध में (बाधन्ते) बाधा उत्पन्न करते हैं। (तैः) उनके (सह) साथ (यूयम्) तुम सब (विजयम्) विजय (लभध्वम्) प्राप्त करो ३॥

    संस्कृत भाग

    गोऽमा॑तरः॑ । यत् । शु॒भय॑न्ते । अ॒ञ्जिऽभिः॑ । त॒नूषु॑ । शु॒भ्राः । द॒धि॒रे॒ । वि॒रुक्म॑तः । बाध॑न्ते । विश्व॑म् । अ॒भि॒ऽमा॒तिन॑म् । अप॑ । वर्त्मा॑नि । ए॒षा॒म् । अनु॑ । री॒य॒ते॒ । घृ॒तम् ॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा वायुभिरनेकानि सुखानि प्राणबलेन पुष्टिश्च भवति, तथैव शुभगुणयुक्तविद्याशरीरात्मबलान्वितसभाध्यक्षादिभिः प्रजाजना अनेकानि रक्षणानि लभन्ते ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूमुळे अनेक प्रकारचे सुख मिळते व प्राणाच्या बलाने पुष्टी होते. तसे शुभ गुणयुक्त विद्या, शरीर व आत्मा बलवान असलेल्या सभाध्यक्षाकडून प्रजेचे अनेक प्रकारे रक्षण होते. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Maruts, children of the earth, shining with noblest sciences and actions, commanding glowing health and handsomeness, bear light and grace of body and mind. They stall all their opponents in the world, and wherever they go, life’s nectar, ghrta and waters flow in abundance and follow in their footsteps.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the Maruts is told further in the 3rd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, when these brave persons who regard earth or the cow as their mother, resplendent and pure, adorn themselves with knowledge and other virtues and bright ones put bright weapons on their bodies, they drive away every adversary. The rain streams along their path. The president of the State and other officers should get victory with their aid.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अंजिभिः) व्यक्तै: विज्ञानादिनिमितैः = By knowledge and other virtues which are manifested. (घृतम्) उदकम्

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As with airs, much happiness is got and by the power of the pranas, much strength is acquired, in the same manner, with the President of the assembly and other officers of the 16 State who are virtuous and endowed with the power of knowledge, body and soul, subjects obtain all protection.

    Translator's Notes

    (अंजिभि)= is derived from अंजू व्यक्तिप्रक्षणकान्तिगतिषु Even prof. Max Muller's translation of अंजिमि: तनूषुशुभ्रा दधिरे विरुक्मतः as adorn themselves with glittering ornaments and the brighteners put bright weapons on their bodies. "clearly denotes that by Maruts are meant not "Storm Gods" as supposed by prof. Maxmuller and other Western Scholars but brave persons, particularly soldiers.

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    Subject of the mantra

    Then, how should those brave people be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O!(manuṣyāḥ)=humans! (yat) =those, (gomātaraḥ)=of the heroes who give equal respect to their mother as the earth, they, (virukmataḥ)=having different types of bright lights and, (śubhrāḥ)=having pure righteousness, (vīrāḥ)= brave men, (yathā) =like, (marutaḥ) =air, (tanūṣu)= in bodies with extended force, (añjibhiḥ)= for expressed special knowledge etc. qualities, (śubhayante)= declare about welfare, [vaise hī]=in the same way, (viśvam) =of all, (anu) =for welfare, (dadhire)=adopt, [guṇoṃ ko] =qualities, (eṣām) =of army chief etc., (sakāśāt) =by proximity, (ghṛtam) =water, (rīyate)=go, (vartmāni) =through paths, (yānti) =go, (tathā) =similarly, (abhimātinam) =of enemies, (apa) =in opposition, (bādhante) =create obstacles, (taiḥ) =their, (saha) =with, (yūyam) =all of you, (vijayam) =victory, (labhadhvam)= achieve.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Those brave men who give equal respect to mother Earth, those brave men of various types of bright lights and pure righteousness, just as they declare welfare for the qualities like special knowledge etc. expressed in bodies filled with air and expansive power, similarly, everyone adopts qualities for goodness. Those who go through water routes due to their proximity to the army chief etc., similarly create obstacles for the enemies. May you all achieve victory with them.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as air brings many pleasures and life-breaths gives nourishment, in the same way, people get auspicious knowledge, strength of body and soul and many types of protections by the President of the Assembly et cetera.

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