Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 85 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    शूरा॑इ॒वेद्युयु॑धयो॒ न जग्म॑यः श्रव॒स्यवो॒ न पृत॑नासु येतिरे। भय॑न्ते॒ विश्वा॒ भुव॑ना म॒रुद्भ्यो॒ राजा॑नइव त्वे॒षसं॑दृशो॒ नरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शूराः॑ऽइव । इत् । युयु॑धयह् । न । जग्म॑यः । श्र॒व॒स्यवः॑ । न । पृत॑नासु । ये॒ति॒रे॒ । भय॑न्ते । विश्वा॑ । भुव॑ना । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । राजा॑नःऽइव । त्वे॒षऽस॑न्दृशः । नरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शूराइवेद्युयुधयो न जग्मयः श्रवस्यवो न पृतनासु येतिरे। भयन्ते विश्वा भुवना मरुद्भ्यो राजानइव त्वेषसंदृशो नरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शूराःऽइव। इत्। युयुधयः। न। जग्मयः। श्रवस्यवः। न। पृतनासु। येतिरे। भयन्ते। विश्वा। भुवना। मरुत्ऽभ्यः। राजानःऽइव। त्वेषऽसन्दृशः। नरः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते वायवः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    ये वायवः शूरा इवेदेव वृत्रेण सह युयुधयो नेव जग्मयः पृतनासु श्रवस्यवो नेव येतिरे। राजान इव त्वेषसंदृशो नरः सन्ति येभ्यो मरुद्भ्यो विश्वा भुवना प्राणिनो भयन्ते बिभ्यति तान् सुयुक्त्योपयुञ्जत ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (शूराइव) यथा शस्त्राऽस्त्रप्रक्षेपयुद्धकुशलाः पुरुषास्तथा (इत्) एव (युयुधयः) साधुयुद्धकारिणः। उत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। (अष्टा०वा०३.२.१७१) अनेन वार्तिकेनाऽत्र युधधातोः किन् प्रत्ययः। (न) इव (जग्मयः) शीघ्रगमनशीलाः (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छन्तः (न) इव (पृतनासु) सेनासु (येतिरे) प्रयतन्ते (भयन्ते) बिभ्यति। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः स्थाने श्लुर्न व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (भुवना) भुवनानि लोकाः (मरुद्भ्यः) वायूनामाधारबलाकर्षणेभ्यः (राजानइव) यथा सभाध्यक्षास्तथा (त्वेषसंदृशः) त्वेषं दीप्तिं पश्यन्ति ते सम्यग्दर्शयितारः (नरः) नेतारः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा निर्भयाः पुरुषाः युद्धान्न निवर्त्तन्ते, यथा योद्धारो युद्धाय शीघ्रं धावन्ति, यथा बुभुक्षवोऽन्नमिच्छन्ति तथा ये सेनासु युद्धमिच्छन्ति, यथा दण्डाधीशेभ्यः सभाद्यध्यक्षेभ्योऽन्यायकारिणो जना उद्विजन्ते, तथैव वायुभ्योऽपि सर्वे कुपथ्यकारिणोऽन्यथा तत्सेविनः प्राणिन उद्विजन्ते स्वमर्यादायां तिष्ठन्ति ॥ ८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे वायु कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जो वायु (शूराइव) शूरवीरों के समान (इत्) ही मेघ के साथ (युयुधयो न) युद्ध करनेवाले के समान (जग्मयः) जाने-आनेहारे (पृतनासु) सेनाओं में (श्रवस्यवः) अन्नादि पदार्थों को अपने लिये बढ़ानेहारे के समान (येतिरे) यत्न करते हैं (राजान इव) राजाओं के समान (त्वेषसंदृशः) प्रकाश को दिखानेहारे (नरः) नायक के समान हैं, जिन (मरुद्भ्यः) वायुओं से (विश्वा) सब (भुवना) संसारस्थ प्राणी (भयन्ते) डरते हैं, उन वायुओं का अच्छी युक्ति से उपयोग करो ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे भयरहित पुरुष युद्ध से निवर्त्त नहीं होते, जैसे युद्ध करनेहारे लड़ने के लिये शीघ्र दौड़ते हैं, जैसे क्षुधातुर मनुष्य अन्न की इच्छा और जैसे सेनाओं में युद्ध की इच्छा करते हैं, जैसे दण्ड देनेहारे न्यायाधीशों से अन्यायकारी मनुष्य उद्विग्न होते हैं, वैसे ही कुपथ्यकारी, वायुओं का अच्छे प्रकार उपयोग न करनेहारे मनुष्य वायुओं से भय को प्राप्त होते और अपनी मर्यादा में रहते हैं ॥ ८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शूर - युयुधि - श्रवस्यु

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के प्राणसाधक पुरुष (इत्) = निश्चय से (शूराः इव) = शूरवीर पुरुषों की भांति (युयुधयः न) = युद्ध करते हुओं की भाँति (जग्मयः) = गतिशील, (श्रवस्यवः न) = यश की कामनावाले वीरों की भाँति (पृतनासु) = संग्रामों में (येतिरे) = प्रयत्न करते हैं । जैसे राष्ट्र के वीर सैनिक - शत्रुओं से शूरवीर पुरुषों की भाँति - प्रबल युद्ध करनेवालों की भाँति तथा कायरता के कलंक से बचने की कामनावाले होकर युद्ध करते हैं, इसी प्रकार प्राणसाधक पुरुष अध्यात्म = संग्राम में कामादि शत्रुओं को शीर्ण करने के लिए यत्नशील होते हैं । इन (मरुद्भ्यः) = युद्ध में प्राणों का त्याग करने की वृत्तिवाले पुरुषों से (विश्वा भुवना) = सब लोक (भयन्ते) = भयभीत हो उठते हैं । इसी प्रकार प्राणसाधक पुरुषों से काम - क्रोधादि शत्रु भयभीत होकर भाग खड़े होते हैं । २. कामादि का विनाश होने पर ये प्राणसाधक (नरः) = उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाले पुरुष (राजानः इव) = राजाओं की भाँति (त्वेषसंदृशः) = दीप्तदर्शन होते हैं । कामादि के विनाश से इनकी शक्ति का रक्षण होता है और ये तेजस्विता से इस प्रकार सुभूषित होते हैं जैसे राजा लोग वस्त्रों व अलंकारों से भूषित दिखते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम शूर, युयुधि व श्रवस्यु बनकर संग्राम में जुट जाएँ । शत्रु - संहार करके दीप्तदर्शनवाले बनें - चमकें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विद्वानों और वीरों का प्राणों के समान कर्तव्य। सूर्य के समान शस्त्रबल धारण करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार वायुगण ( पृतनासु ) समस्त मनुष्यों में प्राण रूप से सब प्रकार के प्रयत्नों और चेष्टाओं को करते हैं उसी प्रकार वे ( युयुधयः न ) युद्ध करने वाले ( शूरा इव ) शूरवीर उत्साही पुरुषों के समान विद्वान् गण सदा सावधान और आलस्य रहित होकर ( जग्मयः ) अपने कार्यों पर जाने वाले ( श्रवस्यवः न ) अन्नों और ज्ञानों के धर्त्ता और यशों के अभिलाषी होकर ( पृतनासु ) प्रजाओं और संग्रामों के बीच में ( येतिरे ) नाना प्रकार के प्रयत्न और उद्योग करें । उन ( मरुद्भ्यः ) विद्वान् पुरुषों से और उद्योगी पुरुषों से ( विश्वा भुवना ) समस्त लोक और प्राणी ( भयन्ते ) भय करते हैं । वे ( राजानः ) राजाओं के ( नरः ) नायक पुरुष ( त्वेषसंदृशः ) तेज और पराक्रम को दिखलाने वाले हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे वायु कैसे हैं, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- ये वायवः शूरा इव इत् एव वृत्रेण सह युयुधयः न इव जग्मयः पृतनासु श्रवस्यवः न इव येतिरे। राजानइव त्वेषसंदृशः नरः सन्ति येभ्यः मरुद्भ्यः विश्वा भुवना प्राणिनः भयन्ते बिभ्यति तान् सुयुक्त्या उपयुञ्जत ॥८॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (ये)=जो, (वायवः)=वायु, (शूराइव) यथा शस्त्राऽस्त्रप्रक्षेपयुद्धकुशलाः पुरुषास्तथा=शस्त्र और अस्त्र प्रक्षेपण की युद्ध कला में कुशल लोग, (इत्) एव=ही, (वृत्रेण)=बादल के, (सह)=साथ, (युयुधयः) साधुयुद्धकारिणः=उत्तम रूप से युद्ध करनेवाले के, (न) इव=समान, (जग्मयः) शीघ्रगमनशीलाः=शीघ्र गमन करने के स्वभाव की, (पृतनासु) सेनासु=सेना में, (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छन्तः=अपने लिये अन्न की इच्छा करते हुए के, (न) इव=समान, (येतिरे) प्रयतन्ते=प्रयत्न करते हैं, (राजानइव) यथा सभाध्यक्षास्तथा=सभा के अध्यक्ष के समान, (त्वेषसंदृशः) त्वेषं दीप्तिं पश्यन्ति ते सम्यग्दर्शयितारः=तीव्र दीप्ति को अच्छे प्रकार से देखनेवाले और, (नरः) नेतारः= नेतृत्व करनेवाले मनुष्य, (सन्ति)=हैं, (येभ्यः)=जिनसे, (मरुद्भ्यः) वायूनामाधारबलाकर्षणेभ्यः=वायु के आधार और बल के आकर्षण से, (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि=समस्त, (भुवना) भुवनानि लोकाः=संसार के लोक और, (प्राणिनः)=प्राणी, (भयन्ते) बिभ्यति=भयभीत होते हैं, (तान्)=उनका, (सुयुक्त्या)=उत्तम रीति से, (उपयुञ्जत)=उपयोग कीजिये ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे निर्भय लोग पुरुष युद्धों से [डर कर] वापस नहीं लौटते हैं, जैसे युद्ध करनेवाले युद्ध करने के लिये शीघ्र दौड़ते हैं, जैसे भूखे मनुष्य अन्न की इच्छा करते हैं, वैसे ही जो सेनामें युद्ध की इच्छा करते हैं, जैसे दण्ड देनेवाले न्यायाधीश से और सभा आदि के अध्यक्ष से अन्यायकारी मनुष्य भयभीत होते हैं, वैसे ही वायु से भी समस्त बुरे मार्ग पर चलनेवाले और अन्य प्रकार से उपयोग करनेवाले प्राणी भयभीत होते हैं और अपनी मर्यादा में रहते हैं ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (ये) जो (वायवः) वायु और (शूराइव) शस्त्र और अस्त्र प्रक्षेपण की युद्ध कला में कुशल लोग (इत्) ही, (वृत्रेण) बादल के (सह) साथ (युयुधयः) उत्तम रूप से युद्ध करनेवाले के (न) समान, (जग्मयः) शीघ्र गमन करने के स्वभाव की (पृतनासु) सेना में, (श्रवस्यवः) अपने लिये अन्न की इच्छा करते हुए के (न) समान (येतिरे) प्रयत्न करते हैं। (राजानइव) सभा के अध्यक्ष के समान, (त्वेषसंदृशः) तीव्र दीप्ति को अच्छे प्रकार से देखनेवाले और (नरः) नेतृत्व करनेवाले मनुष्य (सन्ति) हैं। (येभ्यः) जिनसे (मरुद्भ्यः) वायु के आधार और बल के आकर्षण से (विश्वा) समस्त (भुवना) संसार के लोक और (प्राणिनः) प्राणी (भयन्ते) भयभीत होते हैं, (तान्) उनका (सुयुक्त्या)उत्तम रीति से (उपयुञ्जत) उपयोग कीजिये ॥८॥

    संस्कृत भाग

    शूराः॑ऽइव । इत् । युयु॑धयह् । न । जग्म॑यः । श्र॒व॒स्यवः॑ । न । पृत॑नासु । ये॒ति॒रे॒ । भय॑न्ते । विश्वा॑ । भुव॑ना । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । राजा॑नःऽइव । त्वे॒षऽस॑न्दृशः । नरः॑ ॥ विषयः- पुनस्ते वायवः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा निर्भयाः पुरुषाः युद्धान्न निवर्त्तन्ते, यथा योद्धारो युद्धाय शीघ्रं धावन्ति, यथा बुभुक्षवोऽन्नमिच्छन्ति तथा ये सेनासु युद्धमिच्छन्ति, यथा दण्डाधीशेभ्यः सभाद्यध्यक्षेभ्योऽन्यायकारिणो जना उद्विजन्ते, तथैव वायुभ्योऽपि सर्वे कुपथ्यकारिणोऽन्यथा तत्सेविनः प्राणिन उद्विजन्ते स्वमर्यादायां तिष्ठन्ति ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे निर्भय पुरुष युद्धापासून निवृत्त होत नाहीत. जसे योद्धे लढण्यासाठी तात्काळ धावतात. जसे क्षुधातुर माणसे अन्नाची इच्छा करतात व सेना युद्ध करण्याची इच्छा बाळगते. जसे दंड देणाऱ्या न्यायाधीशाकडून अन्यायी माणसे उद्विग्न होतात. तसेच कुपथ्यकारी चांगल्या प्रकारे वायूचा उपयोग न करणारी माणसे वायूने भयभीत होतात व आपल्या मर्यादेत राहतात. ॥ ८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Like heroes they are warriors. Like warriors they rise and advance. In battles they strike like flying dragons. The entire world quakes with fear of the Maruts. They are leaders of men blazing in majesty like emperors.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are Maruts is taught further in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The winds are like heroes thirsting for fight against the wicked, like combatants eager for glory striving in battles. All beings are afraid of the Maruts (Winds as well as brave soldiers). They (winds) are like Maruts (Soldiers) leading men who are terrible for the wicked to behold or full of splendour like kings. As these brave soldiers should be properly treated, so the winds should be methodically utilised.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (शूराः इव) यथा शस्त्रास्त्रप्रक्षेप युद्धकुशलाः पुरुषा: = Like men experts in throwing missiles and weapons in the battles. (नरः) नेतारः = Leaders.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As fearless persons do not run away from the battle field, as warriors run towards the battle ground, as hungry persons desire food, so are soldiers eager to fight with adjust and wicked persons. As from Magistrates and Presidents of the State or Assemblies etc. unjust persons fear, in the same manner, from the winds or airs also men taking all sorts of things irregularly fear on account of their adverse consequences.

    Translator's Notes

    Even Prof. Maxmuller's translation of the Mantra as "Like Heroes indeed thirsting for fight they rush about, like combatants eager for glory they have striven in battles. All beings are afraid of the Maruts; they are men terrible to behold, like kings."(Vedic Hymns Vol. 1 by Prof. Maxmuller P.127). shows clearly that they are brave men and not "Storm Gods" as supposed by him and some other Western Scholars Prof. Maxmuller had to admit willy nilly their human nature while translating राजान इवत्वेषसन्दृशो नरः which he has rendered into English as‘ ‘They are men terrible to behold like Kings.” Griffith's translation of the Mantra is worth quoting. "In sooth like heroes fain for fight they rush about, like combatants fame-seeking have they striven in war. Before the Maruts every creature is afraid, the men are like Kings, terrible to behold.(Griffith's translation of the Hymns of the Rigveda Vol. 1,P.110).In foot-note Griffith adds: The men, the Maruts. This proves, whether admitted by the Western Scholars or not that the Maruts are brave soldiers and not some imaginary “Storm Gods". They have been likened to the impetuous winds in the Mantras as explained by Rishi Dayananda Sarasvati.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then, how are those air? This subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye) =Those, (vāyavaḥ) =air and, (śūrāiva)= people skilled in the art of warfare and launch og arms and missiles, (it) =only, (vṛtreṇa) =of cloud, (saha) =with, (yuyudhayaḥ) =of best warrior, (na) =like, (jagmayaḥ)=of fast moving nature, (pṛtanāsu)= in an army, (śravasyavaḥ)= desiring food for oneself, (na) =like, (yetire)= make efforts, (rājāniva) =like President of the assembly, (tveṣasaṃdṛśaḥ)= those who can see the intense light well and, (naraḥ)= leading men, (santi) =are, (yebhyaḥ) =by whom, (marudbhyaḥ) =due to the attraction and force of air, (viśvā) =all, (bhuvanā)= people of the world and, (prāṇinaḥ) =creatures, (bhayante) bhayabhīta hote haiṃ, (tān) unakā (suyuktyā) =in the best way (upayuñjata) =use them.

    English Translation (K.K.V.)

    Only those who are skilled in the art of launching of arms and missiles in war like air, make efforts like those who fight admirably with the clouds, in an army with a nature of moving quickly, desiring food for themselves. Like the President of the Assembly, there are people who can see and lead the intense light well. Those people and creatures of the whole world get scared due to the attraction of the base and force of air, use them in the best way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as fearless men do not return from wars out of fear, just as warriors run hastily to fight, just as hungry men desire food, just as those in the army desire war, just as a judge who gives punishment and unjust people are afraid of the president of the assembly etc., similarly, all the creatures who follow bad paths and use air in other ways are afraid of it and remain within their limits.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top