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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    त उ॑क्षि॒तासो॑ महि॒मान॑माशत दि॒वि रु॒द्रासो॒ अधि॑ चक्रिरे॒ सदः॑। अर्च॑न्तो अ॒र्कं ज॒नय॑न्त इन्द्रि॒यमधि॒ श्रियो॑ दधिरे॒ पृश्नि॑मातरः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । उ॒क्षि॒तासः॑ । म॒हि॒मान॑म् । आ॒श॒त॒ । दि॒वि । रु॒द्रासः॑ । अधि॑ । च॒क्रि॒रे॒ । सदः॑ । अर्च॑न्तः । अ॒र्कम् । ज॒नय॑न्तः । इ॒न्द्रि॒यम् । अधि॑ । श्रियः॑ । द॒धि॒रे॒ । पृश्नि॑ऽमातरः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त उक्षितासो महिमानमाशत दिवि रुद्रासो अधि चक्रिरे सदः। अर्चन्तो अर्कं जनयन्त इन्द्रियमधि श्रियो दधिरे पृश्निमातरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। उक्षितासः। महिमानम्। आशत। दिवि। रुद्रासः। अधि। चक्रिरे। सदः। अर्चन्तः। अर्कम्। जनयन्तः। इन्द्रियम्। अधि। श्रियः। दधिरे। पृश्निऽमातरः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथोक्षितासः पृश्निमातरः ते रुद्रासो वायवो दिवि सदो महिमानमध्याशत वाधिचक्रिर इन्द्रियं दधिरे तथार्कमर्चन्तो यूयं श्रियो जनयन्त आनन्दत ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (ते) पूर्वोक्ताः (उक्षितासः) वृष्टिद्वारा सेक्तारः (महिमानम्) उत्तमप्रतिष्ठाम् (आशत) व्याप्नुवन्ति। अत्र बहुलं छन्दसीति श्नोर्लुक्। (दिवि) दिव्यन्तरिक्षे (रुद्रासः) वायवः (अधि) उपरिभावे (चक्रिरे) कुर्वन्ति (सदः) स्थिरम् (अर्चन्तः) सत्कुर्वन्तः (अर्कम्) सत्कर्त्तव्यम् (जनयन्तः) प्रकटयन्तः (इन्द्रियम्) धनम्। इन्द्रियमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अधि) उपरिभावे (श्रियः) चक्रवर्त्यादिराज्यलक्ष्मीः (दधिरे) धरन्ति (पृश्निमातरः) पृश्निरन्तरिक्षं माता येषां वायूनां ते ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवो वृष्टिहेतवो भूत्वा दिव्यानि सुखानि जनयन्ति तथा सभाध्यक्षादयो विद्यया सुशिक्षिताः परस्परमुपकारिणः प्रीतिमन्तो भवन्तु ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (उक्षितासः) वृष्टि से पृथ्वी का सेचन करनेहारे (पृश्निमातरः) जिनकी आकाश माता है (ते) वे (रुद्रासः) वायु (दिवि) आकाश में (सदः) स्थिर (महिमानम्) प्रतिष्ठा को (अध्याशत) अधिक प्राप्त होते और उसी को (अधिचक्रिरे) अधिक करते और (इन्द्रियम्) धन को (दधिरे) धारण करते हैं, वैसे (अर्कम्) पूजनीय का (अर्चन्तः) पूजन करते हुए आप लोग (श्रियः) लक्ष्मी को (जनयन्तः) बढ़ा के आनन्दित रहो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु वृष्टि का निमित्त होके उत्तम सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे सभाध्यक्ष लोग विद्या से सुशिक्षित हो के परस्पर उपकारी और प्रीतियुक्त होवें ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रभुपूजन - शक्तिवर्धन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की समाप्ति पर कहा था कि वीर ज्ञानयज्ञों में शत्रुओं का घर्षण करनेवाले होते हैं । वासनाओं को जीतकर ये सोमकणों का शरीर में ही रक्षण करते हैं । इन सोमकणों से (उक्षितासः) = सिक्त हुए - हुए (ते) = वे वीर (महिमानम्) = महिमा को (आशत) = व्याप्त करते हैं । इनका जीबन महिमाशाली बनता है । २. ये वीर (रुद्रासः) = कामादि शत्रुओं को रुलानेवाले [रोदयन्ति] होते हुए (दिवि) = प्रकाशमय लोकों में (सदः अधि चक्रिरे) = स्थिति को आधिक्येन करते हैं । इनका निवास ज्ञान में होता है । ये वीरता के साथ ज्ञान को मिलाकर चलते हैं । ३. (अर्कम्) = उस पूजनीय प्रभु को (अर्चन्तः) = पूजते हुए ये (इन्द्रियम्) = वीर्य व बल को (जनयन्तः) = विकसित करते हुए (श्रियः) = शोभाओं को (अधि दधिरे) = खूब ही धारण करते हैं । प्रभु की उपासना से वासना का समूल विनाश होकर शक्ति का रक्षण व वर्धन होता ही है ४. इस प्रकार ये वीर (पृश्निमातरः) = भूमिरूपी मातावाले होते हैं, अर्थात् भूमि माता के सच्चे पुत्र होते हैं । इनके जीवन से मातृभूमि का मुख उज्ज्वल होता है । ये अपने देश के यश का कारण बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम प्रभु पूजनवाले हों और अपनी शक्ति का वर्धन करें ।

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    विषय

    उनके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( उक्षितासः ) जलों के वर्षण करने हारे (रुद्रासः) प्रबल वायुगण (दिवि सदः चक्रिरे) आकाश में स्थान प्राप्त करते या सूर्य के प्रकाश के आश्रय लेते हैं और (महिमानम् आशत) महान् बल को प्राप्त करते हैं (अर्कं अर्चन्तः इन्द्रियं जनयन्तः) सूर्य का आश्रय लेते हुए वे बल को और विद्युत् को उत्पन्न करते हैं और वे ( पृश्निमातरः श्रियो दधिरे ) आदित्य से उत्पन्न होने वाले या मेघ के उत्पादक वायुगण शोभा को धारण करते हैं उसी प्रकार (ते ) वे ( उक्षितासः ) अपने २ पदों पर नायक रूप से अभिषिक्त हुए (रुद्रासः) शत्रुओं को रुलाने हारे वीर नायकगण (महिमानम्) अपने महान् सामर्थ्य को ( आशत ) प्राप्त करें और ( दिवि ) सूर्य के समान तेजस्वी पद पर (सदः चक्रिरे) अपना उत्तम स्थान बनावें । अथवा ( दिवि सदः चक्रिरे ) भूमि पर ही सभाभवन और गृह आदि बनावें । वे ( अर्कम् अर्चन्तः ) सूर्य के समान तेजस्वी, आदर करने योग्य प्रधान राजा का आदर, मान, प्रतिष्ठा करते हुए ( इन्द्रियम् ) महान् ऐश्वर्य को ( जनयन्तः ) उत्पन्न करते हुए ( पृश्निमातरः ) भूमि को अपनी माता मानते हुए, मातृभूमि के पुत्र होकर ( श्रियः ) राज्यवासियों पर ( अधिदधिरे ) अपना पूर्ण अधिकार करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे वायु कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः यथा उक्षितासः पृश्निमातरः ते रुद्रासः वायवः दिवि सदः महिमानम् अधि आशत वा अधि चक्रिरे इन्द्रियं दधिरे तथा अर्कम् अर्चन्तः यूयं श्रियः जनयन्त आनन्दत ॥२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों! (यथा)=जिस प्रकार से, (उक्षितासः) वृष्टिद्वारा सेक्तारः=वर्षा के द्वारा सिञ्चन करनेवाले, (पृश्निमातरः) पृश्निरन्तरिक्षं माता येषां वायूनां ते=अन्तरिक्ष जिनकी माता है, उन वायुओं के, (ते) पूर्वोक्ताः=पहले कहे गये, (रुद्रासः) वायवः=वायु, (दिवि) दिव्यन्तरिक्षे= दिव्य अन्तरिक्ष में, (सदः) स्थिरम्=टिके हुए, (महिमानम्) उत्तमप्रतिष्ठाम्= उत्तम रूप से स्थित, (अधि) उपरिभावे=ऊपर से, (आशत) व्याप्नुवन्ति= व्याप्त होते हैं, (वा)=अथवा, (अधि) उपरिभावे= ऊपर से, (चक्रिरे) कुर्वन्ति=कार्य करते हैं, [वे] (इन्द्रियम्) धनम्=धन को, (दधिरे) धरन्ति=धारण करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (अर्कम्) सत्कर्त्तव्यम्=उत्तम कार्यों को, (अर्चन्तः) सत्कुर्वन्तः= उत्तम रूप से करते हुए, (यूयम्)=तुम सब, (श्रियः) चक्रवर्त्यादिराज्यलक्ष्मीः=चक्रवर्त्ती आदि राज्य के धन को, (जनयन्तः) प्रकटयन्तः=उत्पन्न करते हुए, (आनन्दत)= आनन्दित होओ ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु वर्षा के कारण होकर के दिव्य सुखों को उत्पन्न करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि विद्या से सुशिक्षित हो करके परस्पर उपकारी और प्रीतियुक्त होवें ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (यथा) जिस प्रकार से, (उक्षितासः) वर्षा के द्वारा सिञ्चन करनेवाले और (पृश्निमातरः) अन्तरिक्ष जिनकी माता है, उन वायुओं के, (ते) पहले कहे गये (रुद्रासः) वायु, (दिवि) दिव्य अन्तरिक्ष में (सदः) टिके हुए और (महिमानम्) उत्तम रूप से स्थित हैं, [वे] (अधि) ऊपर से (आशत) व्याप्त होते हैं, (वा) अथवा (अधि) ऊपर से (चक्रिरे) कार्य करते हैं। [वे] (इन्द्रियम्) धन को, (दधिरे) धारण करते हैं, (तथा) वैसे ही (अर्कम्) उत्तम कार्यों को (अर्चन्तः) उत्तम रूप से करते हुए, (यूयम्) तुम सब (श्रियः) चक्रवर्त्ती आदि राज्य के धन को (जनयन्तः) उत्पन्न करते हुए (आनन्दत) आनन्दित होओ ॥२॥

    संस्कृत भाग

    ते । उ॒क्षि॒तासः॑ । म॒हि॒मान॑म् । आ॒श॒त॒ । दि॒वि । रु॒द्रासः॑ । अधि॑ । च॒क्रि॒रे॒ । सदः॑ । अर्च॑न्तः । अ॒र्कम् । ज॒नय॑न्तः । इ॒न्द्रि॒यम् । अधि॑ । श्रियः॑ । द॒धि॒रे॒ । पृश्नि॑ऽमातरः ॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवो वृष्टिहेतवो भूत्वा दिव्यानि सुखानि जनयन्ति तथा सभाध्यक्षादयो विद्यया सुशिक्षिताः परस्परमुपकारिणः प्रीतिमन्तो भवन्तु ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू वृष्टीचे निमित्त बनून सुख देतात तसे सभाध्यक्षाने विद्येने सुशिक्षित होऊन परस्पर उपकार करावा व प्रेमाने राहावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Maruts, children of Rudra, lord of might and justice, born of space, showerers of fertility over the earth, they win grandeur for themselves and build their home high over the skies in heaven. Worshipping the sun and creating wealth of mind and material, they shine with grace over the wealth and beauty of the mortal world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Maruts) is taught further in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men As the winds which have the firmament as their mother and are causers of rain have established their majesty in the sky firmly and have acquired dominion there, in the same manner, glorifying God who merits to be glorified, attain prosperity of the vast and good Government increasing your wealth and thus enjoy bliss.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रुद्राः) वायव: = Winds. प्राणा व रुद्राः प्रारणा हीदं सर्व रोदयन्ति (जैमि० उप० ४.२.६.) (पृश्निमातरः) पृश्नि: अन्तरिक्षं माता येषां वायूनां ते (Winds or airs whose mother is firmament). (अकर्म्) सत्कर्तव्यम् (देवोभवति यदेम् अर्चन्ति निरु:)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the winds causing rain generate divine happiness in the same manner, the president of the Assembly and other officers of the State should be highly educated and being benevolent should love one another well.

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    Subject of the mantra

    Then, how those airs should be?This topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =like, (ukṣitāsaḥ=irrigated by rain and, (pṛśnimātaraḥ)= space is the mother of those winds, (te) =mentioned earlier, (rudrāsaḥ) =air, (divi) =in divine space, (sadaḥ) =are situated and, (mahimānam) =are sustained and perfectly, [ve]=they, (adhi) =from above, (āśata)=pervade, (vā) =or, (adhi) =from above, (cakrire) =working, [ve] (indriyam) =to wealth, (dadhire) =oossess, (tathā) =similarly, (arkam) =by doing good works, (arcantaḥ)= in the best way, (yūyam) =all of you, (śriyaḥ) =the wealth of the Chakravartti kingdom et cetera,(janayantaḥ) =creating, (ānandata) =you should be happy.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Just as the air, mentioned earlier, who provide irrigation through rain and are the mother of space, are sustained and perfectly situated in the divine space, they pervade from above, or work from above. They hold the wealth, in the same way, by doing good works in the best way, all of you should be happy while generating the wealth of the Chakravartti kingdom et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the air causes divine pleasures by causing rain, in the same way, the President of the Assembly etc. should be well educated and be helpful and loving to each other.

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