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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र यद्रथे॑षु॒ पृष॑ती॒रयु॑ग्ध्वं॒ वाजे॒ अद्रिं॑ मरुतो रं॒हय॑न्तः। उ॒तारु॒षस्य॒ वि ष्य॑न्ति॒ धारा॒श्चर्मे॑वो॒दभि॒र्व्यु॑न्दन्ति॒ भूम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यत् । रथे॑षु । पृष॑तीः । अयु॑ग्ध्वम् । वाजे॑ । अद्रि॑म् । म॒रु॒तः॒ । रं॒हय॑न्तः । उ॒त । अ॒रु॒षस्य॑ । वि । स्य॒न्ति॒ । धाराः॑ । चर्म॑ऽइव । उ॒दऽभिः॑ । वि । उ॒न्दन्ति॑ । भूम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यद्रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं वाजे अद्रिं मरुतो रंहयन्तः। उतारुषस्य वि ष्यन्ति धाराश्चर्मेवोदभिर्व्युन्दन्ति भूम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। यत्। रथेषु। पृषतीः। अयुग्ध्वम्। वाजे। अद्रिम्। मरुतः। रंहयन्तः। उत। अरुषस्य। वि। स्यन्ति। धाराः। चर्मऽइव। उदऽभिः। वि। उन्दन्ति। भूम ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यथा विद्वांसः शिल्पिनो यद्येषु रथेषु पृषतीः प्रयुग्ध्वं संप्रयुग्ध्वमुताद्रिं रंहयन्तो मरुतोऽरुषस्य वाजे चर्मेवोद्भिर्धारा विष्यन्ति भूम भूमिं व्युन्दन्ति तैरन्तरिक्षे गत्वागत्य श्रियं वर्द्धयत ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) येषु (रथेषु) विमानादियानेषु (पृषतीः) अग्निवायुयुक्ता अपः (अयुग्ध्वम्) संप्रयुग्ध्वम् (वाजे) युद्धे (अद्रिम्) मेघम्। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (मरुतः) वायवः (रंहयन्तः) गमयन्तः (उत) अपि (अरुषस्य) अश्वस्येव। अरुष इति अश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (वि) विशेषार्थे (स्यन्ति) कार्याणि समापयति (धाराः) जलप्रवाहान् (चर्मेव) चर्मवत् काष्ठादिनाऽऽवृत्य (उदभिः) उदकैः (वि) (उन्दन्ति) क्लेदन्ति (भूम) भूमिम्। अत्र सुपां सुलुगिति सुप्लुगिकारस्य स्थानेऽकारश्च ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या ! यथा वायुर्घनान् संधत्ते गमयति तथा शिल्पिनः सुशिक्षयाऽग्न्यादेः संप्रयोगेण स्थानान्तरं प्रापय्य कार्याणि साध्नुवन्ति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम जैसे विद्वान् शिल्पी लोग (यत्) जिन (रथेषु) विमानादि यानों में (पृषतीः) अग्नि और पवनयुक्त जलों को (प्रयुग्ध्वम्) संयुक्त करें (उत) और (अद्रिम्) मेघ को (रंहयन्तः) अपने वेग से चलाते हुए (मरुतः) पवन जैसे (अरुषस्य) घोड़े के समान (वाजे) युद्ध में (चर्मेव) चमड़े के तुल्य काष्ठ धातु और चमड़े से भी मढ़े कलाघरों में (उद्भिः) जलों से (धाराः) उनके प्रवाहों को (विष्यन्ति) काम की समाप्ति करने के लिये समर्थ करते और (भूम) भूमि को (व्युन्दन्ति) गीली करते अर्थात् रथ को चलाते हुए जल टपकाते जाते हैं, वैसे उन यानों से अन्तरिक्ष मार्ग से देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में जा-आ के लक्ष्मी को बढ़ाओ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे वायु बादलों को संयुक्त करता और चलाता है, वैसे शिल्पि लोग उत्तम शिक्षा और हस्तक्रिया अग्नि आदि अच्छे प्रकार जाने हुए वेगकर्त्ता पदार्थों के योग से स्थानान्तर को प्राप्त हो के कार्यों को सिद्ध करते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    रिपु = रुधिर = वर्षण

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) सैनिको ! (यत्) = जब आप (रथेषु) = रथों में (पृषतीः) = शत्रुओं को व्याकुल करनेवाली घोड़ियों को (अयुग्ध्वम्) = समन्तात् जोतते हो तब (वाजे) = संग्राम में (अद्रिम्) = पर्वत को भी (रंहयन्तः) = वेगवाला कर देते हो [shake it run away], पर्वत को भी मार्ग से दूर भगा देते हो । इनको पर्वत भी रोक नहीं पाते । २. (उत) = और उस समय वे वीर सैनिक संग्रामों में (अरुषस्य) = अरोचमान - चमकते हुए रुधिर की (धाराः) = धाराओं को (विष्यन्ति) = मुक्त करते हैं - रुधिर की धाराओं को बहा देते हैं तथा (उदभिः चर्म इव) = जैसे जलों से चमड़े को गीला करते हैं, उसी प्रकार ये सैनिक शत्रु - रुधिर से (भूम व्युन्दन्ति) = रणभूमि को क्लिन्न कर देते हैं । देशरक्षा के लिए शत्रु का नाश आवश्यक हो जाता है । आधिदैविक पक्ष में - (मरुतः) मानूसन विण्ड्स = वृष्टि की वायुएँ (यत्) = जब (रथेषु) = अपने रथों में (पृषतीः) = अपनी घोड़ियों को (अयुग्ध्वम्) = सर्वथा जोतती हैं, अर्थात् जब ये वायुएँ चलती हैं तब (वाजे) = अन्न की उत्पत्ति के निमित्त (अद्रिम्) = मेघ को (रंहयन्तः) = ये वेगयुक्त करती हैं, बादल को उड़ाकर ले जाती हैं । (उत) = और (अरुषस्य) = आरोचमान वृष्टिजल की (धाराः) = धाराओं को (विष्यन्ति) = मुक्त करती हैं । (उदभिः) = जलों से (भूम) = पृथिवी को (व्युन्दन्ति) = उसी प्रकार क्लिन्न कर देती हैं (चर्म इव) = जैसे एक चमड़े को । एक चर्मकार जैसे चमड़े को गीला करता है, उसी प्रकार ये वायुएँ मेघजल से भूमि को क्लिन्न करती हैं और भूमि को अन्न - उत्पादन के योग्य बनाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = वीर सैनिक शत्रुरुधिर से भूमि को स्नान कराते हुए देश का रक्षण करते हैं । रुधिर की वर्षा से भूमि इस प्रकार क्लिन्न हो जाती है जैसे बादलों की वर्षा से ।

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    विषय

    मरुतों के रथ में ‘पृषती’ नाम अश्वाओं के जोड़ने का रहस्य । दृष्टि विज्ञान ।

    भावार्थ

    ( मरुतः ) वायुएं जिस प्रकार ( वाजे ) पृथ्वी पर अन्नादि के उत्पत्ति के लिये ( अद्रिं रंहयन्तः ) मेघ को लाते हुए ( पृषतीः ) जल सेचन करने वाली मेघमालाओं को एकत्र करते हैं ( अरुषस्य ) चमचमाते सूर्य या विद्युत के बल से ( धाराः ) जलधाराओं को ( वि स्यन्ति ) विविध दिशाओं में बरसा देते हैं और ( उदभिः भूम व्युन्दन्ति ) जलों से समस्त भूमि को ( चर्म इव ) गाय के चमड़े के बराबर की थोड़ी सी भूमि के समान ही खूब गीला, तरबतर करते हैं, उसी प्रकार हे ( मरुतः ) हे विद्वान् जनो ! आप लोग (यत्) जब २ और जिन २ यन्त्र आदि में (पृषतीः) जल सेचन करने वाली यन्त्र कलाओं को ( अयुग्ध्वम् ) जोड़ कर बनाओ तब (वाजे) वेग उत्पन्न करने के लिये (अद्रिम् ) कभी नाश न होने वाले स्थिर मेघ के समान जल-वर्षक यन्त्र को ( रंहयन्तः ) चलाते रहो, ( उत) और (अरुषस्य ) अति दीप्त अग्नि के बल से (धाराः) नाना जल-धाराएं ( वि स्यन्ति ) विविध दिशाओं में छूटें । और वे ( उदभिः ) जलों से ( चर्म इव भूम व्युन्दति ) थोड़ीसी भूमि के समान ही बहुत बड़ी भूमि को तरबतर कर दें । वीरों के पक्ष में—( यत् ) जब (रथेषु) रथों में उनके अधीन आप लोग ( पृषतीः प्र अयुग्ध्वम् ) अश्व के समान अगल बगल रहने वाली शस्त्रवर्षण में कुशल पदाति सेनाओं को नियुक्त करो । ( वाजे ) युद्ध में (अद्रिम्) शत्रु से छिन्न भिन्न होने वाले मेघ के समान शस्त्रास्त्र वर्षण करने वाले सेना के प्रबल भाग को ( रंहयन्तः ) वेग से आगे को बढ़ाए हुए चलो । ( उत ) और ( अरुषस्य ) अश्व-बल की ( धाराः ) धाराएं, पंक्तियों की पंक्तियें लगातार ( विस्यन्ति ) विविध दिशाओं में छूटें । ( उदभिः) जलों के समान समस्त भूमि को ( चर्म इव ) छोटे से स्थान के समान ( वि उन्दन्ति ) गीला कर दें उसे भर दें । ‘चर्म इव-चर्म’ भूमि नापने का नपैना है । जिसमें लगभग १ १/२ वर्ग गज़ भूमि आती है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे विद्वांन् लोग और शिल्पी कैसे करें, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः यूयं यथा विद्वांसः शिल्पिनः यत् येषु रथेषु पृषतीः {अयुग्ध्वं} सं प्र युग्ध्वम् उत अद्रिं रंहयन्तः मरुतःअरुषस्य वाजे चर्मेव उदभिः धाराः वि स्यन्ति भूम भूमिं वि उन्दन्ति तैः अन्तरिक्षे गत्वा आगत्य श्रियं वर्द्धयत ॥५॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों! (यूयम्)=तुम सब, (यथा)=जिस प्रकार से, (विद्वांसः)=विद्वांन् लोग और, (शिल्पिनः)= शिल्पी, (यत्) येषु=जिन, (रथेषु) विमानादियानेषु=विमान आदि यानों में, (पृषतीः) अग्निवायुयुक्ता अपः= अग्नि और वायु से युक्त जल को, {अयुग्ध्वम्}= पृथक-पृथक करते हो, और, (सम्)=अच्छे प्रकार से, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (युग्ध्वम्)= युक्त करते हो, (उत) अपि=इसके अतिरिक्त, (अद्रिम्) मेघम्=बादल के, (रंहयन्तः) गमयन्तः=जाते हुए, (मरुतः) वायवः= वायुओं को, (अरुषस्य) अश्वस्येव= अश्व के समान, (वाजे) युद्धे= युद्ध में, (चर्मेव) चर्मवत् काष्ठादिनाऽऽवृत्य=चमड़े के समान लकड़ी से ढककर, (उदभिः) उदकैः=जल के द्वारा, (धाराः) जलप्रवाहान्=जल की धारा से, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (स्यन्ति) कार्याणि समापयति=कार्यों को सम्पन्न करता है, (भूम) भूमिम्=भूमि में, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (उन्दन्ति) क्लेदन्ति=गीला करते हैं, (तैः)=उन [विमान आदि के द्वारा], (अन्तरिक्षे)= अन्तरिक्ष में, (गत्वा+आगत्य)=आवागमन करके, (श्रियम्)=राज्य लक्षमी को, (वर्द्धयत)= बढ़ाओ ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यों ! जैसे वायु बादलों को घना करता है और धारण करके चलाता है, वैसे ही शिल्पी लोग उत्तम शिक्षा और अग्नि आदि के उचित प्रयोग सेएक स्थान से दूसरे स्थान में जाने का कार्य प्राप्त करके कार्यों को सिद्ध करते हैं॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (यूयम्) तुम सब (यथा) जिस प्रकार से, (विद्वांसः) विद्वांन् लोग और (शिल्पिनः) शिल्पी, (यत्) जिन (रथेषु) विमान आदि यानों में (पृषतीः) अग्नि और वायु से युक्त जल को {अयुग्ध्वम्} पृथक-पृथक करते हो और (सम्) अच्छे व (प्र) प्रकृष्ट रूप से (युग्ध्वम्) युक्त करते हो। (उत) इसके अतिरिक्त (अद्रिम्) बादल के (रंहयन्तः) जाते हुए (मरुतः) वायुओं को (अरुषस्य) अश्व के समान (वाजे) युद्ध में (चर्मेव) चमड़े के समान लकड़ी से ढककर, (उदभिः) जल के द्वारा [अर्थात्] (धाराः) जल की धारा से (वि) विशेष रूप से (स्यन्ति) कार्यों को सम्पन्न करता है, (भूम) भूमि को (वि) विशेष रूप से (उन्दन्ति) गीला करते हैं, (तैः) उन विमान आदि के द्वारा (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (गत्वा+आगत्य) आवागमन करके (श्रियम्) राज्य लक्षमी को (वर्द्धयत) बढ़ाओ ॥५॥

    संस्कृत भाग

    प्र । यत् । रथे॑षु । पृष॑तीः । अयु॑ग्ध्वम् । वाजे॑ । अद्रि॑म् । म॒रु॒तः॒ । रं॒हय॑न्तः । उ॒त । अ॒रु॒षस्य॑ । वि । स्य॒न्ति॒ । धाराः॑ । चर्म॑ऽइव । उ॒दऽभिः॑ । वि । उ॒न्दन्ति॑ । भूम॑ ॥ विषयः- पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या ! यथा वायुर्घनान् संधत्ते गमयति तथा शिल्पिनः सुशिक्षयाऽग्न्यादेः संप्रयोगेण स्थानान्तरं प्रापय्य कार्याणि साध्नुवन्ति ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो! जसे वायू मेघांना संयुक्त करतो व चालवितो तसे शिल्पी लोक (कारागीर) उत्तम शिक्षण व हस्तक्रिया, अग्नी इत्यादींना चांगल्या प्रकारे जाणून वेगवान पदार्थांच्या योगाने स्थानांतर करतात व कार्य सिद्ध करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Maruts, heroes of the nation, when in the battle of life you apply the versatile winds and water which move the cloud to shower the rains, then the brilliant streams issue forth and cover the earth with water just as the streams of soma flow and soak the filter spread out for distillation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should Maruts do is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, when you like learned artists use in suitable proportion waters with fire and air for various vehicles like the air-planes and as the winds set in motion the clouds and by raining them down they water the earth like the skin; so you use your cars (aero-planes etc.) like the horses in the battles and travelling through the air increase your wealth and be prosperous.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रथेषु) विमानादियानेषु = In the vehicles like the aeroplanes etc. (पृषतीः) अग्निवायुयुक्ताः श्रपः = Waters with fire and air etc. (अद्रिम्) मेघम् । अद्रिरीति मेघनाम (निघ o १.१० ) = Cloud.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the mon-soon winds generate and move the clouds,in the same manner, learned artists take people to distant places by the proper use of fire and other elements and accomplish many works.

    Translator's Notes

    The word पृषत् is used even in classical Sanskrit for a drop of water or of any other liquid पृषतः A Drop of water (पृषतैरथां शमयिताच रज:) (Kiratarjuniya 13.23) (See Apte's students' Sanskrit English Dictionary P.357).

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    Subject of the mantra

    Then, how should those learned people and craftsmen do?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yathā) =like, (vidvāṃsaḥ)=learned people and, (śilpinaḥ) =craftsmen, (yat) =which, (ratheṣu) =vehicles like airplanes etc., (pṛṣatīḥ)= water mixed with fire and air, {ayugdhvam} =separate and, (sam) =good and, (pra) =eminently, (yugdhvam) =combining, (uta) =apart from this, (adrim) =of cloud, (raṃhayantaḥ) =going, (marutaḥ) =to air, (aruṣasya) =like horse, (vāje) =in battle, (carmeva)=covered with wood like leather, (udabhiḥ) =by water, [arthāt]=i.e., (dhārāḥ) =by flow ofwater, (vi) =especially, (syanti)= accomplishes the tasks, (bhūma) =to the earth, (vi) =especially, (undanti)=gets it wet, (taiḥ) =by those planes etc., (antarikṣe) =in space, (gatvā+āgatya)=by traveling, (śriyam)=to wealth of the kingdom, (varddhayata)=increase.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! The way, you learned people and craftsmen, separate the water containing fire and air in the vehicles like airplanes etc. and combine it in a good and natural form. Apart from this, the clouds cover the moving winds with wood like leather in battle like a horse and accomplish special tasks through water, i.e. with the flow of water, especially wetting the land, those aircraft et cetera increase wealth of the kingdom by traveling in space through those aircraft et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and silent vocal simile as figurative in this mantra. O humans! Just as air thickens the clouds and keeps them moving, similarly craftsmen accomplish their tasks by getting the task of moving from one place to another through good training and proper use of fire et cetera.

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