ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 12
या वः॒ शर्म॑ शशमा॒नाय॒ सन्ति॑ त्रि॒धातू॑नि दा॒शुषे॑ यच्छ॒ताधि॑। अ॒स्मभ्यं॒ तानि॑ मरुतो॒ वि य॑न्त र॒यिं नो॑ धत्त वृषणः सु॒वीर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया । वः॒ । शर्म॑ । श॒श॒मा॒नाय॑ । सन्ति॑ । त्रि॒ऽधातू॑नि । दा॒शुषे॑ । य॒च्छ॒त॒ । अधि॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । तानि॑ । म॒रु॒तः॒ । वि । य॒न्त॒ । र॒यिम् । नः॒ । ध॒त्त॒ । वृ॒ष॒णः॒ । सु॒ऽवीर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
या वः शर्म शशमानाय सन्ति त्रिधातूनि दाशुषे यच्छताधि। अस्मभ्यं तानि मरुतो वि यन्त रयिं नो धत्त वृषणः सुवीरम् ॥
स्वर रहित पद पाठया। वः। शर्म। शशमानाय। सन्ति। त्रिऽधातूनि। दाशुषे। यच्छत। अधि। अस्मभ्यम्। तानि। मरुतः। वि। यन्त। रयिम्। नः। धत्त। वृषणः। सुऽवीरम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तेभ्यो मनुष्यैः किं किमाशंसनीयमित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्या ! यूयं मरुत इव वो या त्रिधातूनि शर्म शर्माणि सन्ति तानि शशमानाय दाशुषे यच्छतास्मभ्यं वि यन्त। हे वृष्णो ! नोऽस्मभ्यं सुवीरं रयिमधिधत्त ॥ १२ ॥
पदार्थः
(या) यानि (वः) युष्माकम् (शर्म) शर्माणि सुखानि (शशमानाय) विज्ञानवते। शशमान इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) (सन्ति) वर्त्तन्ते (त्रिधातूनि) त्रयो वातपित्तकफा येषु शरीरेषु वाऽयः सुवर्णरजतानि येषु धनेषु तानि (दाशुषे) दानशीलाय (यच्छत) दत्त (अधि) उपरिभावे (अस्मभ्यम्) (तानि) (मरुतः) मरणधर्माणो मनुष्यास्तत्सम्बुद्धौ (वि) (यन्त) प्रयच्छत। अत्र यमधातोर्बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (रयिम्) श्रीसमूहम् (नः) अस्मान् (धत्त) (वृषणः) वर्षन्ति ये तत्सम्बुद्धौ (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात्तम् ॥ १२ ॥
भावार्थः
सभाद्यध्यक्षादिभिः सुखदुःखावस्थायां सर्वान् प्राणिनः स्वात्मवन्मत्वा सुखधनादिभिः पुत्रवत् पालनीयाः। प्रजासेनास्थैः पुरुषैश्चैते पितृवत्सत्कर्त्तव्या इति ॥ १२ ॥ अत्र वायुवत्सभाद्यध्यक्षराजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थेन सह पूर्वसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उनसे मनुष्यों को क्या-क्या आशा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे सभाध्यक्ष आदि मनुष्यो ! तुम लोग (मरुतः) वायु के समान (वः) तुम्हारे (या) जो (त्रिधातूनि) वात, पित्त, कफयुक्त शरीर अथवा लोहा, सोना, चांदी आदि धातुयुक्त (शर्म) घर (सन्ति) हैं (तानि) उन्हें (शशमानाय) विज्ञानयुक्त (दाशुषे) दाता के लिये (यच्छत) देओ और (अस्मभ्यम्) हमारे लिये भी वैसे घर (वि यन्त) प्राप्त करो। हे (वृषणः) सुख की वृष्टि करनेहारे ! (नः) हमारे लिये (सुवीरम्) उत्तम वीर की प्राप्ति करनेहारे (रयिम्) धन को (अधिधत्त) धारण करो ॥ १२ ॥
भावार्थ
सभाध्यक्षादि लोगों को योग्य है कि सुख-दुःख की अवस्था में सब प्राणियों को अपने आत्मा के समान मान के, सुख धनादि से युक्त करके पुत्रवत् पालें और प्रजा सेना के मनुष्यों को योग्य है कि उनका सत्कार पिता के समान करें ॥ १२ ॥ इस सूक्त में वायु के समान सभाध्यक्ष राजा और प्रजा के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की संगति पूर्व सूक्तार्थ के साथ समझनी चाहिये ॥
विषय
त्रिधातु शर्म
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणो ! (या) = जो (वः) = आपके (त्रिधातूनि) = शरीर, मन व बुद्धि - तीनों का पोषण करनेवाले (शर्म) = सुख (शशमानाय) = प्लुतगति - स्फूर्ति से कर्म करनेवाले के लिए (सन्ति) = हैं, उन्हें (दाशुषे) = आत्मसमर्पण करनेवाले पुरुष के लिए, अपनी साधना के द्वारा प्रभु - चरणों में उपस्थित होनेवाले पुरुष के लिए (अधियच्छत) = आधिक्येन दीजिए । प्राणसाधना से हमारा शरीर नीरोग होता है, मन निर्मल बनता है और बुद्धि तीव्र होती है । इस प्रकार प्राणसाधना का सुख "त्रि = धातु" है । यह प्राप्त उसी को होता है जो शशमान = क्रियाशील व दाश्वान् = प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला होता है । २. हे प्राणो ! (तानि) = उन सुखों को (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए भी (वियन्त) = विशेषकर प्राप्त कराइए [विशेषेण प्रयच्छत = सा०] । हे (वृषणः) = हमपर सुखों की वर्षा करनेवाले व हमें शक्तिशाली बनानेवाले प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (सुवीरम्) = उत्तम वीर पुत्रोंवाले (रयिम्) = धन को (धत्त) = धारण कीजिए । हम वीर पुत्रों को प्राप्त करें, साथ ही धन भी प्राप्त करें ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना से शरीर, मन व बुद्धि तीनों का उत्तमता से पोषण होता है । वीर पुत्रों व धन की प्राप्ति होती हैं ।
विशेष / सूचना
विशेष = सूक्त के आरम्भ में कहा है कि हम 'जीवन को सद्गुणों से मण्डित करके प्रभु के प्रिय बनें' [१] । हमारा जीवन प्रभु = पूजन के द्वारा शक्तिवर्धनवाला हो [२] । एक वीर सैनिक की भाँति हम शत्रुओं को मार भगाएँ [३] । आगे बढ़ने के मार्ग में पर्वत भी हमें रोक न पाएँ [४] । हम शत्रु = रुधिर से भूमि को क्लिन्न करते हुए देश का रक्षण करनेवाले बनें, [५] प्राणसाधना से निर्दोष बने हुए इन्द्रियाश्व हमें यात्रा में आगे ले = चलें [६] हम शक्तिशाली हों, परन्तु शक्ति का गर्व न करें [७] । हम शत्रुसंहार करनेवाले बनकर चमकें [८] । प्रभुप्रदत्त क्रियाशीलता वज्र को धारण करें, [९] इसके द्वारा अविद्यापर्वत का भेदन करें [१०] । प्राणसाधना के द्वारा 'सरलता, ज्ञानप्रकाश व सामर्थ्य ' प्राप्त करें [११] । हमारे शरीर, मन व बुद्धि' तीनों का ही पोषण हो [१२] । 'प्राण हमें जितेन्द्रियता प्राप्त करानेवाले हों' = इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है
विषय
त्रिधातु गृह, विद्वानों को दान तथा ‘त्रिधातु शर्म’ का रहस्य ।
भावार्थ
( मरुतः ) प्राण गण जिस प्रकार ( शशमानाय दाशुषे ) शम आदि साधना करने वाले, भगवान् में आत्म समर्पण करने वाले पुरुष को ( त्रिधातूनि शर्म ) शरीर के धारण करने वाले वात, पित्त, कफ़ इन तीन धातुओं से युक्त सुखों या इन से बने देहों को वश करते हैं उसी प्रकार हे ( मरुतः ) विद्वानों और वीर पुरुषो ! (वः) तुम्हारे ( या ) जो ( त्रिधातूनि ) लोह, सुवर्ण और रजत तीनों धातुओं के बने अथवा वाणी, मन और काय तीनों को पोषण करने वाले ( शर्म ) सुखप्रद साधन या गृह ( सन्ति ) हैं उन को तुम लोग ( शशमानाय ) उत्तम ज्ञानोपदेश करने वाले ( दाशुषे ) ज्ञानप्रद गुरु विद्वान् पुरुषों के लिये (अधि यच्छत) प्रदान करो । ( तानि ) वेही सुख साधन हे ( मरुतः ) विद्वान् वीर पुरुष ! ( अस्मभ्यम् ) हमें भी ( वियन्त ) विशेष रूप से प्रदान करो । हे (वृषणः) सुखों के वर्षा करने हारे ! आप लोग ( नः ) हमें ( सुवीरम् ) उत्तम वीर पुत्रों और पुरुषों से युक्त ( रयिम् ) ऐश्वर्य ( धत्त ) प्रदान करो । इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर उनसे मनुष्यों को क्या-क्या आशा करनी चाहिये, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे सभाद्यध्यक्षादयः मनुष्याः यूयं मरुतः इव वः या त्रिधातूनि शर्म शर्माणि सन्ति तानि शशमानाय दाशुषे यच्छत अस्मभ्यं वि यन्त। हे वृष्णः ! नःअस्मभ्यं सुवीरं रयिम् अधि धत्त ॥१२॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (सभाद्यध्यक्षादयः)= सभा आदि के अध्यक्ष, (मनुष्याः)= मनुष्यों! (यूयम्) =तुम सब, (मरुतः) मरणधर्माणो मनुष्यास्तत्सम्बुद्धौ=मरने के स्वभाववाले मनुष्यों के, (इव)= समान, (वः) युष्माकम्=तुम सबको, (या) यानि=जो, (त्रिधातूनि) त्रयो वातपित्तकफा येषु शरीरेषु वाऽयः सुवर्णरजतानि येषु धनेषु तानि=शरीर में होनेवाले तीन प्रकार के वायु, पित्त और कफ में, अथवा स्वर्ण और रजत के जो धन हैं, उनमें, (शर्म) शर्माणि सुखानि=सुख, (सन्ति) वर्त्तन्ते=होते हैं, (तानि)=उनके, (शशमानाय) विज्ञानवते=विशेष रूप से जाननेवाले और (दाशुषे) दानशीला=दान देने के स्वभाववाले, (यच्छत) दत्त=देते हुए, (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (वि)=विशेष रूप से, (यन्त) प्रयच्छत=दीजिये, हे (वृषणः) वर्षन्ति ये तत्सम्बुद्धौ=वर्षा करनेवालों ! नः (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात्तम्=उत्तम वीरोंवाले, (रयिम्) श्रीसमूहम् =धन के समूह को, (अधि) उपरिभावे=सर्वोपरि, (धत्त)=धारण करो ॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- सभा के अध्यक्ष आदि के द्वारा सुख और दुःख की अवस्था में समस्त प्राणियों को अपने आत्मा के समान मान करके, सुख, धन आदि के द्वारा पुत्र के समान पालन करना चाहिए। प्रजा और सेना में स्थित पुरुषों के द्वारा भी इनका सम्मान करना चाहिए ॥१२॥
विशेष
महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में वायु के समान सभाध्यक्ष राजा और प्रजा के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥१२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (सभाद्यध्यक्षादयः) सभा आदि के अध्यक्ष (मनुष्याः) मनुष्यों! (यूयम्) तुम सब (मरुतः) मरने के स्वभाववाले मनुष्यों के (इव) समान, (वः) अपने को (या) जो (त्रिधातूनि) शरीर में पाये जानेवाले तीन प्रकार के वायु, पित्त और कफ हैं, उनमें, अथवा स्वर्ण और रजत के जो धन हैं, उनसे (शर्म) सुख [प्राप्त] (सन्ति) होते हैं, (तानि) उन्हें (शशमानाय) विशेष रूप से जाननेवाले और (दाशुषे) दान देने के स्वभाववाले, [उन्हें] (यच्छत) देते हुए (अस्मभ्यम्) हमारे लिये, (वि) विशेष रूप से (यन्त) दीजिये। हे (वृषणः) वर्षा करनेवालों ! (नः) हमारे लिये (सुवीरम्) उत्तम वीरोंवाले (रयिम्) धन के समूह को (अधि) सर्वोपरि (धत्त) धारण करो ॥१२॥
संस्कृत भाग
या । वः॒ । शर्म॑ । श॒श॒मा॒नाय॑ । सन्ति॑ । त्रि॒ऽधातू॑नि । दा॒शुषे॑ । य॒च्छ॒त॒ । अधि॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । तानि॑ । म॒रु॒तः॒ । वि । य॒न्त॒ । र॒यिम् । नः॒ । ध॒त्त॒ । वृ॒ष॒णः॒ । सु॒ऽवीर॑म् ॥ विषयः- पुनस्तेभ्यो मनुष्यैः किं किमाशंसनीयमित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभाद्यध्यक्षादिभिः सुखदुःखावस्थायां सर्वान् प्राणिनः स्वात्मवन्मत्वा सुखधनादिभिः पुत्रवत् पालनीयाः। प्रजासेनास्थैः पुरुषैश्चैते पितृवत्सत्कर्त्तव्या इति ॥१२॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वायुवत्सभाद्यध्यक्षराजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थेन सह पूर्वसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥१२॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभाध्यक्ष इत्यादींनी सुखदुःखात सर्व प्राण्यांना आपल्या आत्म्याप्रमाणे मानून सुखी करावे व धन इत्यादीद्वारे पुत्राप्रमाणे पाळावे. प्रजा व सेनेतील माणसांनी त्यांचा पित्याप्रमाणे सत्कार करावा. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Maruts, dynamic powers of nature and humanity, creative, generous and kind, whatever your gifts of shelter, comfort and protection there be, whatever gifts of balanced health and triple physical, mental and material wealth there be, bear and bring for the toiling, working, worshipping humanity, specially for the generous man of philanthropy. Powers and showers of divine favours, bear and bring for us those gifts of wealth and brave progeny.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men expect from the Maruts is taught in the twelfth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Presidents of the Assembly etc. what ever happiness consisting of the Vata वात(wind) कफ (phlegm) and पित (Bile) in the body or iron, gold and silver, you have, grant like good men to a learned person who himself is charitably disposed. O showeres of happiness and bliss, O ye heroes, bestow upon us wealth with valiant offspring.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शशमानाय) विज्ञानवते शशमानइतिपदनम निघ o ५.३ ) = For a learned person. (त्रिधातूनि) त्रयो वातपित्तकफा येषु शरीरेषु अथवा अय: सुवर्णरजतानि येषु धनेषु तानि । = Bodies consisting of (wind) (Bile) (Phlegm) or wealth consisting of iron,gold and silver. (मरुतः) मरणधर्माणो मनुष्याः = Mortals.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The Presidents of the Assemblies and other officers of the State should regard all subjects like their own selves and should treat them as their own children guiding them with wealth and means of happiness. The men of the army and general public should respect them as their fathers.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of the duties of the Presidents of the assemblies and subjects like the winds as in the previous hymn. Here ends the commentary on the eighty-fifth hymn of the first Mandala of the Rig Veda.
Subject of the mantra
Then, what should humans expect from them, This topic has been said in this mantra.?
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sabhādyadhyakṣādayaḥ) =Presidents of the Assembly et cetera, (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (marutaḥ) =of mortal human, (iva) =like, (vaḥ) =to self, (yā) =those, (tridhātūni)= there are three types of air, bile and phlegm found in the body, or the wealth of gold and silver in them, (śarma) =happiness, [prāpta]=attain, (santi) =are, (tāni) =to them, (śaśamānāya)= especially knower and, (dāśuṣe) =those with a charitable nature, [unheṃ]=to them, (yacchata) =giving, (asmabhyam) =for us, (vi)= especially, (yanta) =give. He=O! (vṛṣaṇaḥ)= rainmakers, (naḥ) =for us, (suvīram)=havcing the best warriors, (rayim)= the group of wealth, (adhi)= as supreme, (dhatta) =adopt.
English Translation (K.K.V.)
O Presidents of the Assembly et cetera humans! All of you, like humans who are mortal, derive happiness from the three types of air, bile and phlegm found in the body, or from the wealth of gold and silver, especially those who know and donate them. Those who have a giving nature, give them especially for us. O rain givers! For us, adopt the group of wealth with the best warriors as supreme.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In the state of happiness and sorrow, the President of the Assembly et cetera should consider all the living beings as his own soul and nurture them like son in terms of happiness, wealth etc. They should be respected by the people and also by the men in the army.
TRANSLATOR’S NOTES-
Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- In this hymn, due to the description of the duties of the king and the subjects who are like air, the interpretation of this hymn should be understood to be consistent with the interpretation of the previous hymn.
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