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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वष्टा॒ यद्वज्रं॒ सुकृ॑तं हिर॒ण्ययं॑ स॒हस्र॑भृष्टिं॒ स्वपा॒ अव॑र्तयत्। ध॒त्त इन्द्रो॒ नर्यपां॑सि॒ कर्त॒वेऽह॑न्वृ॒त्रं निर॒पामौ॑ब्जदर्ण॒वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टा॑ । यत् । वज्र॑म् । सुऽकृ॑तम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । स॒हस्र॑ऽभृष्टिम् । सु॒ऽअपाः॑ । अव॑र्तयत् । ध॒त्ते । इन्द्रः॑ । नरि॑ । अपां॑सि । कर्त॑वे । अह॑न् । वृ॒त्रम् । निः । अ॒पाम् । औ॒ब्ज॒त् । अ॒र्ण॒वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टा यद्वज्रं सुकृतं हिरण्ययं सहस्रभृष्टिं स्वपा अवर्तयत्। धत्त इन्द्रो नर्यपांसि कर्तवेऽहन्वृत्रं निरपामौब्जदर्णवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टा। यत्। वज्रम्। सुऽकृतम्। हिरण्ययम्। सहस्रऽभृष्टिम्। सुऽअपाः। अवर्तयत्। धत्ते। इन्द्रः। नरि। अपांसि। कर्तवे। अहन्। वृत्रम्। निः। अपाम्। औब्जत्। अर्णवम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते सभाध्यक्षादयः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    प्रजासेनास्थाः पुरुषा यथा स्वपास्त्वष्टेन्द्रः सूर्यः कर्त्तवेऽपांसि यत् सुकृतं हिरण्ययं सहस्रभृष्टं वज्रं प्रहृत्य वृत्रमहन् अपामर्णवं निरौब्जत् तथा दुष्टान् पर्यवर्त्तयच्छत्रून् हत्वा नर्याऽऽधत्ते स राजा भवितुमर्हेत् ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (त्वष्टा) दीप्तिमत्त्वेन छेदकः। त्विषेर्देवतायामकारश्चोपधाया अनिट्त्वं च। (अष्टा०वा०३.२.१३५) अनेन वार्त्तिकेन त्विषधातोस्तृन्। (यत्) यम् (वज्रम्) किरणसमूहजन्यं विद्युदाख्यम् (सुकृतम्) सुष्ठु निष्पन्नम् (हिरण्ययम्) ज्योतिमर्यम्। ऋत्व्यवा०। (अष्टा०६.४.१७५) अनेन सूत्रेण मयट् प्रत्ययस्य मकारलोपो निपात्यते (सहस्रभृष्टिम्) सहस्रमसंख्याता भृष्टयः पाका यस्मात्तम् (स्वपाः) सुष्ठु अपांसि कर्माणि यस्मात् (अवर्त्तयत्) वर्त्तयति (धत्ते) धरति (इन्द्रः) सूर्यः (नरि) नीतिमार्गे मनुष्ये (अपांसि) कर्माणि (कर्त्तवे) कर्त्तुम् (अहन्) हन्ति (वृत्रम्) मेघम् (निः) नितराम् (अपाम्) उदकानाम् (औब्जत्) उब्जति सरलीकरोति (अर्णवम्) समुद्रम् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघं धृत्वा वर्षयित्वा प्रजाः पालयति तथा राजादयोऽविद्याऽन्याययुक्तान् दुष्टान् हत्वा सर्वहिताय सुखसागरं साध्नुवन्तु ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे सभाध्यक्ष आदि कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    प्रजा और सेना में स्थित पुरुष जैसे (स्वपाः) उत्तम कर्म करता (त्वष्टा) छेदन करनेहारा (इन्द्रः) सूर्य (कर्त्तवे) करने योग्य (अपांसि) कर्मों को और (यत्) जिस (सुकृतम्) अच्छे प्रकार सिद्ध किये (हिरण्ययम्) प्रकाशयुक्त (सहस्रभृष्टिम्) जिससे हजारह पदार्थ पकते हैं, उस (वज्रम्) वज्र का प्रहार करके (वृत्रम्) मेघ का (अहन्) हनन करता है, (अपाम्) जलों के (अर्णवम्) समुद्र को (निरौब्जत्) निरन्तर सरल करता है, वैसे दुष्टों को (पर्यवर्त्तयत्) छिन्न-भिन्न करता हुआ शत्रुओं का हनन करके (नरि) मनुष्यों में श्रेष्ठों को (आधत्ते) धारण करता है, वह राजा होने को योग्य होता है ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मेघ को धारण और हनन कर वर्षा के समुद्र को भरता है, वैसे सभापति लोग विद्या न्याययुक्त प्रजा के पालन व धारण करके, अविद्या अन्याययुक्त दुष्टों का ताड़न करके, सबके हित के लिये सुखसागर को पूर्ण भरें ॥ ९ ॥

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    विषय

    त्वष्टा का वज्र

    पदार्थ

    १. (स्वपाः) = उत्तम कर्मोंवाला, जिसके कर्मों में किसी प्रकार की कमी नहीं [पूर्णमदः पूर्णमिदम्] उस (त्वष्टा) = देवशिल्पी प्रभु ने (यत्) = जिस (वज्रम्) = वज्र को (अवर्तयत्) = वर्तमान किया, अर्थात् बनाया, उस वज्र को (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (धत्ते) = धारण करता है । यह वज्र "क्रियाशीलता" ही है । प्रभु ने जीव के लिए क्रियाशीलता के नियम को ही स्थिर किया है = 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतसमाः' । इन्द्र इस नियम को अपनाता है । यह क्रियाशीलता वज्र (सुकृतम्) = शोभन कर्मरूप है तथा (हिरण्यम्) = ज्योतिर्मय है । हमें प्रत्येक कर्म ज्ञानपूर्वक ही करना चाहिए । यह वज्र (सहस्त्रभृष्टिम्) = शतशः धाराओंवाला है - इसके द्वारा वासनासमूह का विनाश किया जाता है । २. इन्द्र इस वज्र का (नरि) = [नृ नये] जीवन - प्रगति के संग्राम में (अपांसि कर्तवे) = कर्मों को करने के लिए धारण करता है । इस क्रियाशीलता के द्वारा वह आगे और आगे बढ़ता है । कर्म ही प्रगति का नियम है । इस कर्म के द्वारा वह उन्नति के मार्ग में आनेवाले (वृत्रम्) = वासनारूप आवरण [विघ्न] को (अहन्) = नष्ट करता है और (अपां अर्णवम्) = कर्मों की गति को [अर्णव = गति] (निः औब्जत्) = पूर्णतया सरल करता है [उब्ज् आर्जवे] । वासनाविनाश के कारण इसके कर्मों में कुटिलता नहीं रहती । वासनाएँ ही हमारे कर्मों में कुटिलता का समावेश करती हैं । वासनाएँ गई, कुटिलता भी गई ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम प्रभुप्रदत्त क्रियाशीलता वज्र को धारण करें । वासनाओं को इसके द्वारा नष्ट करके अपने जीवन में सरलता को धारण करें ।

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    विषय

    त्वष्टा का वज्र बनाने और इन्द्र का उससे वृत्र हनन का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( त्वष्टा ) सूर्य जिस प्रकार जिस ( वज्रम् ) ( सहस्रभृष्टिं ) सहस्रों पाक करने वाले, तापदायक और ( हिरण्ययं ) तेजोमय किरण समूह को (अवर्तयत्) प्रकट करता है (इन्द्रः) सूर्य उसको (अपांसि कर्त्तवे धत्ते ) नाना कर्म करने के लिये धारण करता है उससे ही (वृत्रं अहन्) मेघ को आघात करता और (अपाम् अर्णवम् निर् औब्जत् ) जलों के सागर रूप मेघ को नीचे गिरा देता है अर्थात् प्रचुर वृष्टि करता है। इसी प्रकार (सु-अपाः त्वष्टा) उत्तम प्रजा हित के कर्मों के करने हारा तेजस्वी पुरुष ( हिरण्ययम् ) प्रजा के हित और उनको अच्छा लगने वाला ( सहस्रभृष्टिं ) सहस्रों प्रकार से दुष्टों को संताप देने वाला, सहस्रों शत्रुसैन्यों को गिरा देने वाला, ( सुकृतम् ) उत्तम रीति से बने ( यत् ) जिस ( वज्र ) शस्त्रास्त्र बल को ( अवर्त्तयत् ) सञ्चालित करता हैं (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् वह सेनापति या राजा उस सैन्यबल को ( निर ) नायक के अधीन रख कर (अपांसि) नाना कर्म ( कर्त्तवे ) करने के लिये ( धत्ते ) धारण करता और उसको पालता, पुष्ट करता है उससे ही ( वृत्रं अहन् ) बढ़ते हुए या विरुद्धाचरण करते हुए शत्रु को दण्डित करता है। और ( अपाम् अर्णवम् ) शत्रु सैनिकों के सागर को भी ( निर् औब्जत् ) सर्वथा नीचे गिरा देता है, परास्त करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे सभाध्यक्ष आदि कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- प्रजासेनास्थाः पुरुषाः यथा स्वपाःत्वष्टा इन्द्रः सूर्यः कर्त्तवे अपांसि यत् सुकृतं हिरण्ययं सहस्रभृष्टं वज्रं प्रहृत्य वृत्रम् अहन् अपाम् अर्णवं निः औब्जत् तथा दुष्टान् परि अवर्त्तयत् शत्रून् हत्वा नरि आ धत्ते स राजा भवितुम् अर्हेत् ॥९॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (प्रजासेनास्थाः)= प्रजा और सेना में स्थित, (पुरुषाः)=पुरुष लोग, (यथा)=जिस प्रकार से, (स्वपाः) सुष्ठु अपांसि कर्माणि यस्मात्=उत्तम कर्मोंवाले, (त्वष्टा) दीप्तिमत्त्वेन छेदकः=प्रकाश की चमक से छेदन करनेवाले, (इन्द्रः) सूर्यः= सूर्य का, (कर्त्तवे) कर्त्तुम्=कार्य करने के लिये, (अपांसि) कर्माणि=कर्मों को, (यत्) यम्=जिन, (सुकृतम्) सुष्ठु निष्पन्नम्=उत्तम रूप से पूर्ण किये गये, (हिरण्ययम्) ज्योतिमर्यम्=ज्योतिमय, (सहस्रभृष्टिम्) सहस्रमसंख्याता भृष्टयः पाका यस्मात्तम्= हजारों अर्थात् असंख्य भूने हुए, (वज्रम्) किरणसमूहजन्यं विद्युदाख्यम्=किरणों के समूह या विद्युत् से पैदा किये हुए, (प्रहृत्य)=प्रहार करके, (वृत्रम्) मेघम्=बादल को, (अहन्) हन्ति=मार देते हैं, अथवा छिन्न-भिन्न कर देते हैं, (अपाम्) उदकानाम्=जलों के, (अर्णवम्) समुद्रम्=समुद्र को, (निः) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (औब्जत्) उब्जति सरलीकरोति=सरल कर देता है, (तथा)=वैसे ही, (दुष्टान्)= दुष्टों का, (परि+अवर्त्तयत्) परिवर्त्तयति=परिवर्तन कर देता है, अर्थात् उन्हें सज्जन बना देता है, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (हत्वा)=मार कर, [उन्हें] (नरि) नीतिमार्गे मनुष्ये=नैतिक मार्ग पर चलनेवाले मनुष्य के रूप में, (आ)=हर ओर से, (धत्ते) धरति=रख देता है, (सः)=वह, (राजा)=राजा, (भवितुम्)=होने के, (अर्हेत्)= योग्य होता है ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य बादल को धारण करके और वर्षा करके के प्रजा का पालन करता है, वैसे ही दुष्टों को मार करके सबके हित के लिये सुख के सागर को पूर्ण करें ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यथा) जिस प्रकार से (प्रजासेनास्थाः) प्रजा और सेना में स्थित (पुरुषाः) पुरुष लोग, (स्वपाः) उत्तम कर्मोंवाले और (त्वष्टा) प्रकाश की चमक से छेदन करनेवाले (इन्द्रः) सूर्य का (कर्त्तवे) कार्य करने के लिये (अपांसि) कर्मों को, (यत्) जिन (सुकृतम्) उत्तम रूप से पूर्ण किये गये, (हिरण्ययम्) ज्योतिमय, (सहस्रभृष्टिम्) हजारों अर्थात् असंख्य भूने हुए, (वज्रम्) किरणों के समूह से या विद्युत् से पैदा शक्ति से (प्रहृत्य) प्रहार करके (वृत्रम्) बादल को (अहन्) मार देते हैं, अथवा छिन्न-भिन्न कर देते हैं। (अपाम्) जलों के (अर्णवम्) समुद्र को (निः) अच्छे प्रकार से (औब्जत्) सरल बना देता है। (तथा) वैसे ही (दुष्टान्) दुष्टों का (परि+अवर्त्तयत्) परिवर्तन कर देता है, अर्थात् उन्हें सज्जन बना देता है। (शत्रून्) शत्रुओं को (हत्वा) मार कर उन्हें (नरि) नैतिक मार्ग पर चलनेवाले मनुष्य के रूप में, (आ) हर ओर से (धत्ते) रख देता है, (सः) वह (राजा) राजा (भवितुम्) होने के (अर्हेत्) योग्य होता है ॥९॥

    संस्कृत भाग

    त्वष्टा॑ । यत् । वज्र॑म् । सुऽकृ॑तम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । स॒हस्र॑ऽभृष्टिम् । सु॒ऽअपाः॑ । अव॑र्तयत् । ध॒त्ते । इन्द्रः॑ । नरि॑ । अपां॑सि । कर्त॑वे । अह॑न् । वृ॒त्रम् । निः । अ॒पाम् । औ॒ब्ज॒त् । अ॒र्ण॒वम् ॥ विषयः- पुनस्ते सभाध्यक्षादयः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघं धृत्वा वर्षयित्वा प्रजाः पालयति तथा राजादयोऽविद्याऽन्याययुक्तान् दुष्टान् हत्वा सर्वहिताय सुखसागरं साध्नुवन्तु ॥९॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य मेघांना धारण व हनन करून वृष्टी करून समुद्रात जल भरतो. तसे सभापतींनी विद्या न्याययुक्त बनून प्रजेचे पालन, धारण करून अविद्या व अन्याययुक्त दुष्टांचे ताडन करून सर्वांच्या हितासाठी सुखसागर पूर्ण भरावा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Tvashta, the expert maker of weapons, tools and instruments for defence and development, provides the thunderbolt, total infrastructure, well-done, golden and capable of countless possibilities of performance. Indra, mighty ruler, defender and creator, wields that thunderbolt and apparatus for the accomplishment of desired and planned actions in the world of humanity. He strikes Vrtra, the cloud holding waters of fertility, the resources of materials and energy, and thus releases the oceanic flow of wealth. (This is how scientific, technological and economic development of the human nation goes on for the achievement of economic prosperity, political stability and generous happiness and well-being for all. All through, the Maruts are active since they are nature’s forces ever at work anywhere and everywhere.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the President of the Assemblies and others is taught further in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men of the army and general public, as the brilliant sun who is the means of performing noble deeds slays the vritra (Cloud) by wielding well-made, resplendent, thousand-edged thunderbolt in the form of the lightning made of his rays, and forces out the stream of water or swells the ocean, in the same manner, he deserves to be the king who turns out all wicked persons and having killed them, protects and safe guards righteous persons to perform many manly deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (त्वष्टा) दीप्तिमत्त्वेन छेदक: (सूर्य) त्विषेर्देवतायामकारश्चोपधाया अनिट्त्वं च ॥ (अष्टा० ३.८ ) अनेन वार्तिकेन त्विषधातोस्तृन्॥ = The brilliant sun. (वज्रम्) किरणसमूहजन्य विद्युदाख्यम् = Lightnig made of the the rays of the sun. (हिरण्ययम् ) ज्योतिर्मयम् ॠत्व्य वा । (अष्टा० ६.५.१७८) अनेनसूत्रेण मयट् प्रत्ययस्य मकारलोपो निपात्यते )| (इन्द्रः) सूर्य:= Sun.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun preserves the people by causing the cloud. to rain, in the same manner, king and other officers of the State should slay unjust wicked persons and should fill up the ocean of happiness for the welfare of all.

    Translator's Notes

    एष वै शुक्रो य एष (सूर्य:) तपति एष उ एवेन्द्रः । वै (शतपथ ३.४.५.७ ॥ ४.५.६.४ अथ यः स इन्द्रः औस स आदित्य:। (शत० ८.५.३.२) एष एवेन्द्र: य एष (सूर्य:) तपति॥ शत० १.६.४.१८ इन्द्रः सूर्यः इति सायणाचार्योsपि ताण्ड्य ब्राह्मण भाष्ये ॥ ज्योतिर्वा शुक्रं हिरण्यम् ॥ ऐतरेय ७.१२ ) ज्योतिर्वै हिरण्यम् । (शत० ६.७.१२) ज्योतिर्हिरण्यम् (गौपथ पू० २.२१ ) इन्द्रो वै त्वष्टा (ऐत० ६.१०) एष एवेन्द्र: य एष (सूर्य:) तपति ( शत० ८.५.३.२) तस्मात् त्वष्टा सूर्यः

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    Subject of the mantra

    Then, how should they President of the Assembly etc. be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā) =Like, (prajāsenāsthāḥ)= situated in the people and the army, (puruṣāḥ) =men, (svapāḥ) =having good deeds and, (tvaṣṭā) =piercing with the brightness of light, (indraḥ) =of Sun, (karttave) =for doing work, (apāṃsi) =do deeds, (yat) =which, (sukṛtam)= perfectly completed, (hiraṇyayam)=luminous, (sahasrabhṛṣṭim)=thousands, i.e. innumerable, were roasted, (vajram)= from a group of rays or from the power generated by electricity, (prahṛtya)= by striking, (vṛtram) =to cloud, (ahan) =kill, or disintegrate, (apām) =of waters, (arṇavam) =to ocean, (niḥ) =well, (aubjat)= simplifies, (tathā) vaise hī (duṣṭān)=of the wickeds, (pari+avarttayat)= makes a change, that is, makes them a gentleman, (śatrūn) =to enemies, (hatvā) =killing, to them, (nari)= as a man walking on the moral path, (ā) =from all sides, (dhatte)= keeps, (saḥ) =He, (rājā) =king, (bhavitum) =to be, (arhet)= is worthy of being.

    English Translation (K.K.V.)

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun nurtures of the people by possessing the clouds and showering rain, in the same way, by killing the wicked, fill the ocean of happiness for the benefit of all.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as the people and the men in the army, those with good deeds and piercing with the brightness of light, perform the deeds of the Sun, which were well accomplished, luminous, roasted by thousands i.e. innumerable, by a group of rays or by striking with the power generated by electricity, the cloud is killed or disintegrated. That simplifies the ocean of waters in a good way. Similarly, that transforms the wicked, that is, makes them gentlemen. He who kills his enemies and keeps them from all sides as a man following the moral path, is worthy of being a king.

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