ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
ऋषिः - यमो वैवस्वतः
देवता - यमी वैवस्वती
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न यत्पु॒रा च॑कृ॒मा कद्ध॑ नू॒नमृ॒ता वद॑न्तो॒ अनृ॑तं रपेम । ग॒न्ध॒र्वो अ॒प्स्वप्या॑ च॒ योषा॒ सा नो॒ नाभि॑: पर॒मं जा॒मि तन्नौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । यत् । पु॒रा । च॒कृ॒म॒ । कत् । ह॒ । नू॒नम् । ऋ॒ता । वद॑न्तः । अनृ॑तम् । र॒पे॒म॒ । ग॒न्ध॒र्वः । अ॒प्ऽसु । अप्या॑ । च॒ । योषा॑ । सा । नः॒ । नाभिः॑ । प॒र॒मम् । जा॒मि । तत् । नौ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न यत्पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम । गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभि: परमं जामि तन्नौ ॥
स्वर रहित पद पाठन । यत् । पुरा । चकृम । कत् । ह । नूनम् । ऋता । वदन्तः । अनृतम् । रपेम । गन्धर्वः । अप्ऽसु । अप्या । च । योषा । सा । नः । नाभिः । परमम् । जामि । तत् । नौ ॥ १०.१०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
हे प्रिये पत्नि ! (पुरा) पूर्व दाम्पत्यकाल में (ऋता वदन्तः) वेदमन्त्रों को उच्चारण करते हुए अर्थात् प्रजोत्पत्ति-निमित्त ईश्वरीय नियमों को स्वीकारते हुए (यत्) जो गार्हस्थ्य अर्थात् सन्तानोत्पादकरूप व्रत (चकृम) हम ने किया था, उसको (नूनम्) आज (अनृतम्) वेदविरुद्ध निषेधवचन (न) नहीं (रपेम) कह सकते, अर्थात् हे प्राणप्रिये ! मैंने यह निश्चय किया है कि हमने जो दाम्पत्य वेदमन्त्रों-ईश्वरीय नियमों से गर्भाधान के लिये प्रतिज्ञाबद्ध किया था, सो उसको उल्लङ्घन से इस समय नकाररूप अर्थात् निषेधरूप अशास्त्रवचन कथंचित् नहीं बोल सकते, किन्तु गर्भाधान के लिये उद्यत हैं। प्रत्युत (गन्धर्वः) गर्भाधान सम्बन्ध का इच्छुक मैं तेरा पति (अप्सु) अन्तरिक्ष में (योषा च) और तू गर्भाधान को चाहनेवाली मेरी पत्नी भी (अप्या) अन्तरिक्ष में है, एवं हम दोनों ही जलप्रवाह की नाई निरन्तर गति कर रहे हैं तथा जिस पृथिवी के नीचे ऊपर की ओर हम दोनों की (नाभिः) नाभि है, क्योंकि अरारूप धुरी की नाई दिन और रात हम दोनों पति-पत्नी इस पृथिवी के चारों ओर चक्र काटते हैं, (तत्) बस वह यह (नौ) हम दोनों के मध्य में (परमम्) अत्यन्त (जामि) असमानजातीय-व्यवधायक अर्थात् गर्भाधानक्रिया में रुकावट डालनेवाला पदार्थ है, क्योंकि दो व्यक्तियों के संयोगाभाव का कारण व्यवधायक मध्य में बैठा हुआ असमानजातीय ही होता है, जैसे ‘नुद’ में “न्द्” इन दोनों हलों के संयोग का व्यवधायक-असमानजातीय ‘उ’ अच् है। हे प्रिये। मैं गर्भाधान संयोग के लिये उद्यत हूँ, किन्तु यह पृथिवी दोनों के मध्य में स्थित हुई गर्भाधान संयोग की अत्यन्त बाधक है। जिसके चारों ओर हम दोनों दैविक नियम से घूमते हैं। हा ! शोक, क्या करें, हम दोनों ही यहाँ विवश हैं ॥४॥
भावार्थ
विवाह वेदमन्त्रों द्वारा प्रतिज्ञापूर्वक हो, प्रतिज्ञाओं का उल्लङ्घन कभी न हो। कारणवश दूर-दूर पर भी स्नेहसमाचार बना रहे। दिन-रात पृथिवी के साथ समकक्ष में होते हैं, पर उनके ओर-छोर मिले रहते हैं, यही प्रातः-सायं कहलाते हैं ॥४॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे रात्रे पत्नि ! (ऋता वदन्तः पुरा यत्-चकृम) ऋता-ऋतानि वेदान् मन्त्रानिति यावत् “शेश्छन्दसि बहुलम्” [अष्टा० ६।१।६८] इत्यनेन शेर्लोपः, वदन्तः-उच्चारयन्तः पुरा-इदानीन्तनात्पूर्वे दाम्पत्यकाले यद् गार्हस्थ्यं सन्तानोत्पादनरूपं व्रतं चकृम कृतवन्तः, “अस्मदो द्वयोश्च” [अष्टा० १।२।५९] अनेन द्विवचने बहुवचनम्, तत् (नूनं कत्-ह न-अनृतं रपेम) तद् गार्हस्थ्यव्रतं नूनमद्यतनं नूनमित्यस्यार्थोऽद्यतनं [निरु० १।६] कत्-ह-कुतोऽपि ‘कच्चित्-कुतश्चित्’ इत्यस्मात् कुतश्चिदर्थकात् ‘कत्-चित्’ शब्दाद्योगविभागः। “योगविभागादिष्टसिद्धिः” [महाभाष्य] न-अनृतं वेदविरुद्धं नकाररूपं वचनं रपेम-रपितुं वक्तुमर्हेम “अर्हे कृत्यतृचश्च” [अष्टा० ३।३।१६९] अनेनार्हार्थे लिङ्, अर्थात्-अच्छ हे प्राणप्रिये ! अहं निश्चितवान् यदस्माभिर्दाम्पत्यं वेदमन्त्रैर्गर्भाधानार्थं प्रतिज्ञातं तदतिक्रम्य सम्प्रति नकाररूपमशास्त्रवचनं न कुतोऽपि वक्तुमर्हेम किन्तु गर्भाधानायोद्यतः स्मः, प्रत्युत हा शोकं (गन्धर्वः-अप्सु) पतिरहमन्तरिक्षे “आप इत्यन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] (अप्या च योषा) त्वं पत्न्यप्यन्तरिक्षे (सा नो नाभिः) सेयं पृथिवी नावावयोर्नाभिरस्ति यत आवामरारूपावहोरात्रौ तस्याः परितश्चक्रं वर्तेवहि (नौ तत्परमं जामि) नावावयोर्मध्ये तत् परममत्यन्तं जामि-असमानजातीयकं व्यवधायकं गर्भाधानक्रियायामितिशेषः।“जामि....वाऽसमानजातीयस्य.....उपजनः” [निरु० ४।२०] द्वयोर्बहूनां वा संयोगाभावकारणं व्यवधायकमेव भवति तच्चासमानजातीयं यथा ‘नुद्’ अत्र न्द् अनयोः द्वयोः संयोगाभावकारणम् ‘उ’ अज्रूपं व्यवधायकमसमानजातीयमेवेति। हे प्रियेऽहं गर्भाधानसंयोगायोद्यतोऽस्मि किन्तु येयं पृथिवी यस्याः परित आवां दैवनियमेन भ्रमावः, साऽऽवयोर्मध्येऽत्यन्तं व्यवधायकं वस्तु गर्भाधानसंयोगस्यास्ति, किं करवाव विवशताऽत्रावयोः ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Yama: Having observed the laws of divine nature and observing them now, what we have never done before how can we do now in violation of the truth and law? Gandharva, the sun, sustainer of the earth, is there in the middle region, the moon too is there, so are you, youthful night, as I am. But the earth is the common axis between you and me both, and that is the extreme opposition between you and me. (We cannot possibly meet while the earth is in orbit.)
मराठी (1)
भावार्थ
विवाह हा वेदमंत्रांद्वारे प्रतिज्ञापूर्वक व्हावा. प्रतिज्ञांये उल्लंघन कधी होता कामा नये. काही कारणामुळे दूरदूर असल्यास स्नेह समाचार टिकावा. दिवस व रात्र पृथ्वीबरोबर समकक्षच असतात; परंतु त्यांचा आदि व अंत मिळालेलेच असतात. त्यांनाच प्रात:काळ व सायंकाळ म्हणतात. ॥४॥
टिप्पणी
समीक्षा - (सायण भाष्य) ‘वयं ऋता ऋतानि सत्यानि वदन्त:, अनृतम-सत्यं कद्ध कदा खलु नूनं निश्चितं रपेय = आम्ही सत्य बोलताना असत्य केव्हा बोलू शकतो’ या प्रकारच्या अर्थ प्रक्रियेत हा संशय येतो, की ते कोणते सत्य बोलत होते जे येथे असत्य बोलावे लागत होते. अर्थ स्पष्ट होत नाही. ‘जामि बान्धवम्’ हा अर्थ निरुक्तच्या विरुद्ध आहे व अधिक आश्चर्य तर हे आहे, की येथे तर ‘जामि’चा अर्थ ‘बांधव’ केलेला आहे. व मंत्र ९ व्यात ‘अजामि भ्राता’ अर्थात् ‘अजामि भ्राता’ ‘जामि अभ्राता’ मंत्र १० मध्ये ‘जामि भगिनी’ ‘अजामि अभ्राता’ अर्थात् ‘जामि-भ्राता’ सायण कृत जामि शब्दाचा अर्थ याच सूक्तात निम्न होतात. $ ‘जामि-बन्धुता, अभ्राता, भगिनी, भ्राता’ हे चारही शब्द परस्पर विरुद्ध आहेत.
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