ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 39/ मन्त्र 12
आ तेन॑ यातं॒ मन॑सो॒ जवी॑यसा॒ रथं॒ यं वा॑मृ॒भव॑श्च॒क्रुर॑श्विना । यस्य॒ योगे॑ दुहि॒ता जाय॑ते दि॒व उ॒भे अह॑नी सु॒दिने॑ वि॒वस्व॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । तेन॑ । या॒त॒म् । मन॑सः । जवी॑यसा । रथ॑म् । यम् । वा॒म् । ऋ॒भवः॑ । च॒क्रुः । अ॒श्वि॒ना॒ । यस्य॑ । योगे॑ । दु॒हि॒ता । जाय॑ते । दि॒वः । उ॒भे इति॑ । अह॑नी॒ इति॑ । सु॒दिने॒ इति॑ सु॒ऽदिने॑ । वि॒वस्व॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ तेन यातं मनसो जवीयसा रथं यं वामृभवश्चक्रुरश्विना । यस्य योगे दुहिता जायते दिव उभे अहनी सुदिने विवस्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । तेन । यातम् । मनसः । जवीयसा । रथम् । यम् । वाम् । ऋभवः । चक्रुः । अश्विना । यस्य । योगे । दुहिता । जायते । दिवः । उभे इति । अहनी इति । सुदिने इति सुऽदिने । विवस्वतः ॥ १०.३९.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 39; मन्त्र » 12
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अश्विना) हे आग्नेय-सोम्य पदार्थों ! तथा उन जैसे गुणवाले सुशिक्षित स्त्रीपुरुषो ! तुम दोनों (तेन मनसः-जवीयसा-आयातम्) मन के तुल्य वेगवान् रथ से-गतिप्रवाह से या यानविशेष से यहाँ पृथ्वी पर या हमारे घर में आओ-आते हो (यं रथम्-ऋभवः-वां चक्रुः) जिस रथ गतिप्रवाह या यानविशेष को अथवा गृहस्थ को, वैद्यत अणु तरङ्गें या वैज्ञानिक शिल्पी जन करते हैं (यस्य योगे) जिसके जोड़ने पर (दिवः-दुहिता जायते) द्युलोक-प्रकाशवाले आकाश की दुहिता सदृश उषा या उस जैसी कमनीय नववधू घर को प्राप्त होती है (विवस्वतः-उभे-अहनी सुदिने) सूर्य के या विशेष वास करानेवाले स्थविर गृहस्थ के (उभे) दोनों दिन-रात या शोभनजीवनकालसम्पादक पुत्र और पुत्री प्राप्त होते हैं ॥१२॥
भावार्थ
सुरक्षित स्त्री-पुरुष बड़े वेगवाले रथयान से इधर-उधर जाकर यात्रा करें। नववधू गृहस्थ में आकर उत्तम पुत्र-पुत्रियाँ उत्पन्न करें। आग्नेय सोम्य पदार्थों के द्वारा शिल्पी वैज्ञानिक लोग यथार्थ याननिर्माण करें ॥१२॥
विषय
ऋभुओं से निर्मित रथ
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (तेन) = उस (मनसो जवीयसा) = मन से भी अधिक वेगवान रथ से (आयातम्) = प्राप्त होइये, (यम्) = जिस (वाम्) = आप दोनों के (रथम्) = शरीररूप रथ को (ऋभवः) = ऋभुओं ने (चक्रुः) = बनाया है । 'ऋभव:' तीन हैं 'ऋभु विभ्वन् और वाज'। इनमें (ऋभु) = ऋतेन भाति, उस भाति (वा) = सत्य-ज्ञान से दीप्त है। (विभ्वन्) = व्यापक व विशाल हृदय है । वाज शक्तिशाली है । एवं ऋभुओं से बनाये गये रथ का भाव यह हो जाता है कि वह शरीर जिसमें मस्तिष्क सत्य ज्ञान से पूर्ण है, मन विशाल है और अंग-प्रत्यंग शक्तिशाली हैं । [२] यह वह रथ है, (यस्य) = जिसके योगे-मेल के होने पर (दिवः दुहिता) = ज्ञान का पूरण करनेवाली वेदवाणी (जायते) = आविर्भूत होती है और (विवस्वतः) = सूर्य के अर्थात् सूर्य के कारण उत्पन्न हुए-हुए (उभे अहनी) = दोनों रात व दिन (सुदिने) = उत्तम होते हैं। शरीर रूप रथ के ठीक होने पर ज्ञान का प्रकाश तो होता ही है, रात और दिन दोनों बड़ी सुन्दरता से बीतते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हमें सत्यज्ञान के प्रकाशवाला, विशाल हृदयवाला, सशक्त अंगोंवाला शरीर-रूप रथ प्राप्त हो। इस रथ के मिलने पर ज्ञान का हमारे में पूरण हो और हमारे दिन-रात सुन्दर बीतें ।
विषय
वे रथों से यातायात करें।
भावार्थ
हे (अश्विना) विद्यावान्, जितेन्द्रिय, अश्वों के समान इन्द्रियों को सन्मार्ग में लेजाने में कुशल स्त्री पुरुषो ! (यं) जिस सुखदायक (रथं) गृहस्थरूप रथ को (ऋभवः चक्रुः) शिल्पी जनों के तुल्य सत्य का प्रकाश करने वाले विद्वान् जन उपदेश करते हैं (तेन) उससे (मनसः जवीयसा) मन और ज्ञान के उत्तम वेग से चलने वाले, उस रथ से (आयातम्) आओ जाओ। और (यस्य योगे) जिसके योग होने वा जुड़ने पर (दिवः दुहिता जायते) तेजस्वी सूर्य की कन्या के तुल्य उषा के समान शुभगुणों से युक्त कन्या (सुदिने उभे अहनी) उत्तम सुखदायक दिन और रातों दोनों समय (विवस्वतः) विशेष ऐश्वर्य के स्वामी पति की (दिवः दुहिता) समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली (जायते) हो जाती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
घोषा काक्षीवती ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:–१,६,७,११,१३ निचृज्जगती २, ८, ९, १२, जगती। ३ विराड् जगती। ४, ५ पादनिचृज्जगती। १० आर्ची स्वराड् जगती १४ निचृत् त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अश्विना) हे अश्विनौ ! अग्निसोम्यपदार्थौ तद्धर्मवन्तौ सुशिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ वा “अश्विनौ सुशिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ” [यजु० ३८।१ दयानन्दः] युवाम् (ते मनसः-जवीयसा-आयातम्) तेन मनसोऽपि वेगवता शीघ्रगामिना रथेन गतिप्रवाहेण यानविशेषेण वा अत्र पृथिवीमस्माकं गृहं वाऽऽगच्छतम् (यं रथम्-ऋभवः-वां चक्रुः) यं रथं गतिप्रवाहं यानविशेषं गृहस्थं वा, वैद्युततरङ्गाः “ऋभवः-उरु भान्ति” [निरु० ११।१५] शिल्पिनो वैज्ञानिकाः “येन हरी मनसा निरतक्षत तेन देवत्वमृभवः समाशत” [ऋ० ३।६०।२] “ऋभू रथस्येवाङ्गानि सन्दधत् परुषा परुः [अथर्व० ४।१२।७] मेधाविनः “ऋभुः-मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] कुर्वन्ति-आचरन्ति (यस्य योगे) यस्य योजने सति (दिवः-दुहिता जायते) द्युलोकस्य प्रकाशवतः-आकाशस्य दुहिता-उषाः, तदिव वा कमनीया नववधूः प्रादुर्भवति-गृहमागच्छति (विवस्वतः-उभे अहनी सुदिने) आदित्यस्य “विवस्वतः-आदित्यस्य” [निरु० १२।११] विशेषेण वासकर्त्तुः स्थविरस्य गृहस्थस्य वा (उभे) द्वे-अहोरात्रौ शोभनजीवनकालसम्पादकौ पुत्रपुत्र्यौ प्राप्येते ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Ashvins, morning stars divine, come by that chariot of yours faster than mind which the celestial artists crafted for you, that which you yoke in harness and the maiden of heaven walks forth to ride and rise and then both the happy day and soothing night born of the sun move on.
मराठी (1)
भावार्थ
सुशिक्षित स्त्री-पुरुषांनी अत्यंत वेगवान रथ यानाने इकडे तिकडे जाऊन यात्रा करावी. नववधूने गृहस्थाश्रमात प्रवेश करून उत्तम पुत्र-पुत्री उत्पन्न कराव्यात. आग्नेय सोम्य पदार्थांद्वारे शिल्पी (कारागीर) वैज्ञानिक लोकांनी यात्रेसाठी यान निर्माण करावेत. ॥१२॥
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