ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 39/ मन्त्र 6
इ॒यं वा॑मह्वे शृणु॒तं मे॑ अश्विना पु॒त्राये॑व पि॒तरा॒ मह्यं॑ शिक्षतम् । अना॑पि॒रज्ञा॑ असजा॒त्याम॑तिः पु॒रा तस्या॑ अ॒भिश॑स्ते॒रव॑ स्पृतम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । वा॒म् । अह्वे । शृ॒णु॒तम् । मे॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । पु॒त्राय॑ऽइव । पि॒तरा॑ । मह्य॑म् । शि॒क्ष॒त॒म् । अना॑पिः । अज्ञाः॑ । अ॒स॒जा॒त्या । अम॑तिः । पु॒रा । तस्याः॑ । अ॒भिऽश॑स्तेः । अव॑ । स्पृ॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं वामह्वे शृणुतं मे अश्विना पुत्रायेव पितरा मह्यं शिक्षतम् । अनापिरज्ञा असजात्यामतिः पुरा तस्या अभिशस्तेरव स्पृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । वाम् । अह्वे । शृणुतम् । मे । अश्विना । पुत्रायऽइव । पितरा । मह्यम् । शिक्षतम् । अनापिः । अज्ञाः । असजात्या । अमतिः । पुरा । तस्याः । अभिऽशस्तेः । अव । स्पृतम् ॥ १०.३९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 39; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अश्विना) हे अध्यापक और उपदेशक ! (वाम्) तुम दोनों को (इयम्-अह्वे) यह मैं शिक्षण उपदेश को चाहती हुई कुमारी-ब्रह्मचारिणी आमन्त्रित करती हूँ (मे शृणुतम्) मेरी प्रार्थना को सुनो-स्वीकार करो (पुत्राय-इव पितरा मह्यं शिक्षतम्) सन्तान के लिए माता-पिता के समान मेरे लिए प्रार्थनीय ज्ञान को या वस्तु को दो (अनापिः-अज्ञाः-अमतिः-असजात्या) मैं गृहस्थ आश्रम को न प्राप्त हुई विषयज्ञानरहित, आत्मवाली-आत्मज्ञानवाली स्वाभिमानिनी, लज्जायुक्त (तस्याः-पुरा-अभिशस्तेः-अवस्पृतम्) उस मेरी मृत्यु से पहले अपनी शरण में मुझे ग्रहण करो-सुरक्षित करो ॥६॥
भावार्थ
अध्यापक और उपदेशकों से कुमारी कन्याएँ भी शिक्षा ग्रहण करें। विशेषतः अमर जीवन बनानेवाली-जीवन्मुक्त होनेवाली कन्याएँ अध्यात्मज्ञान का उपदेश लें ॥६॥
विषय
प्राण - महत्त्व [प्राण ही सर्वस्व हैं]
पदार्थ
[१] इन मन्त्रों की ऋषिका 'घोषा' कहती है कि (इयम्) = यह मैं (वाम्) = आप दोनों को (अह्वे) = पुकारती हूँ । (मे शृणुतम्) = मेरी प्रार्थना को आप सुनिये। हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मह्यम्) = मेरे लिये उसी प्रकार (शिक्षतम्) = [ धनं दत्तम् सा० ] स्वास्थ्य आदि के धन को दीजिये (इव) = जैसे कि (पुत्राय) = पुत्र के लिये (पितरा) = माता-पिता धन देने की कामना करते हैं । [२] हे प्राणापानो! आपके बिना तो मैं (अनापिः) = बन्धु - शून्य हूँ । वस्तुतः हे प्राणापानो! आप ही मेरे बन्धु हो । (अज्ञा) = आप के अभाव में मैं ज्ञानशून्य हूँ । प्राणसाधना से ही ज्ञान की भी वृद्धि होती है । असजात्या- आपके अभाव में मेरा कोई सजात्य नहीं है। जीते के ही सब रिश्तेदार हैं, प्राणों के साथ ही बिरादरी है। प्राण गये, सब गये । (अमतिः) = आपके अभाव में मेरी मनन शक्ति भी तो समाप्त हो जाती है । प्राणसाधना से ही मति का प्रकर्ष प्राप्त होता है । [३] हे प्राणापानो! (तस्या:) = उस 'अनापित्व, अज्ञत्व, असजात्यत्व व अमतित्व' रूपी (अभिशस्ते :) = हानि [hurt, injury ] से (पुरा) = पूर्व ही आप (अवस्पृतम्) = मुझे सब रोग आदि कष्टों से पार करो । रोगों से ऊपर उठकर, प्राण-सम्पन्न जीवन को बिताते हुए मैं मित्रों को भी प्राप्त करूँगी, मेरा ज्ञान उत्कृष्ट होगा, कितने ही मेरे सजात्य होंगे और मेरी मति भी खूब ठीक ही होगी ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणों के साथ ही मित्र हैं, ज्ञान है, रिश्तेदार हैं और मननशील मन है ।
विषय
विद्या पारंगत माता-पिता, गुरुजनों के कर्त्तव्य। उनसे ब्रह्मचारिणी की ज्ञान वा पालन याचना।
भावार्थ
हे (अश्विना) विद्या में पारंगत गुरुजनो ! (वां) आप दोनों को (इयम्) यह मैं ब्रह्मचारिणी, राजा वा सेनापति को प्रजा के तुल्य (अह्वे) बुलाती, प्रार्थना करती हूँ। आप दोनों (पुत्राय इव पितरा) पुन्न को माता पिता के समान (मह्यं) मुझे (शिक्षतम्) ज्ञान प्रदान करो ! मैं (अनापिः) बन्धुरहित, (अज्ञाः) ज्ञानरहित, (असजात्या) समान गुणादि वाले अनुरूप पुरुष से रहित, और (अमतिः) सन्मति से रहित हूँ। आप दोनों (तस्याः अभिशस्तेः पुरा) उस नाना प्रकार की ‘अभिशस्ति’ निन्दा आदि प्राप्त होने के पूर्व ही, मुझे (अव स्पृतम्) पालन करो। अज्ञान और अनाचारादि के कारण भावी में होने वाली निन्दादि से पूर्व ही शिक्षक जन शिष्य, शिष्या आदि प्रजा की रक्षा करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
घोषा काक्षीवती ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:–१,६,७,११,१३ निचृज्जगती २, ८, ९, १२, जगती। ३ विराड् जगती। ४, ५ पादनिचृज्जगती। १० आर्ची स्वराड् जगती १४ निचृत् त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अश्विना) हे अध्यापकोपदेशकौ ! (वाम्) युवाम् (इयम्-अह्वे) एषाऽहं शिक्षणोपदेशौ कामयमाना कुमारी खल्वाह्वयामि (मे शृणुतम्) मम प्राथनां शृणुतं स्वीकुरुतम् (पुत्राय-इव पितरा मह्यं शिक्षतम्) सन्तानाय पितरौ मातापितराविव मह्यं प्रार्थनानुरूपं प्रार्थनीयं ज्ञानं वस्तु वा दत्तम् (अनापिः-अज्ञाः अमतिः असजात्या) अहं खल्वस्मि-अनाप्तगृहस्था विषयज्ञानरहिता पुनः-अमतिरात्ममयी मतिर्यस्या स्वाभिमानवती सलज्जा “अमतिरमामतिरात्ममयी” [निरु० ६।१२] (तस्याः पुरा अभिशस्तेः-अवस्पृतम्) तस्याः खलु मम-अभिशंसनात् अनिष्टापत्तेर्मृत्योः पूर्वमेव शरणे गृहीतं रक्षतम् ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I, this supplicant girl, request you, Ashvins, pray listen to me, and as father speaks to the child, so please instruct me on matters of health. I am alone and unrelated, ignorant, without kith and kin and immature. Pray protect me with knowledge before the onslaught of the effects of that ignorance.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यापक व उपदेशकांकडून कुमारी कन्यांनीही शिक्षण घ्यावे. विशेषत: अमर जीवन बनविणाऱ्या-जीवन्मुक्त होणाऱ्या कन्यांनी अध्यात्म ज्ञानाचा उपदेश स्वीकारावा. ॥६॥
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