Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 39 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 39/ मन्त्र 8
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वं विप्र॑स्य जर॒णामु॑पे॒युष॒: पुन॑: क॒लेर॑कृणुतं॒ युव॒द्वय॑: । यु॒वं वन्द॑नमृश्य॒दादुदू॑पथुर्यु॒वं स॒द्यो वि॒श्पला॒मेत॑वे कृथः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । विप्र॑स्य । ज॒र॒णाम् । उ॒प॒ऽई॒युषः॑ । पुन॒रिति॑ । क॒लेः । अ॒कृ॒णु॒त॒म् । यु॒व॒त् । वयः॑ । यु॒वम् । वन्द॑नम् । ऋ॒श्य॒ऽदात् । उत् । ऊ॒प॒थुः॒ । यु॒वम् । स॒द्यः । वि॒श्पला॑म् । एत॑वे । कृ॒थः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं विप्रस्य जरणामुपेयुष: पुन: कलेरकृणुतं युवद्वय: । युवं वन्दनमृश्यदादुदूपथुर्युवं सद्यो विश्पलामेतवे कृथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । विप्रस्य । जरणाम् । उपऽईयुषः । पुनरिति । कलेः । अकृणुतम् । युवत् । वयः । युवम् । वन्दनम् । ऋश्यऽदात् । उत् । ऊपथुः । युवम् । सद्यः । विश्पलाम् । एतवे । कृथः ॥ १०.३९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 39; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (युवं कलेः-विप्रस्य) तुम दोनों अध्यापक और उपदेशक ज्ञान के संकलन करनेवाले मेधावी (जरणाम्-उपेयुषः) जरा अवस्था को प्राप्त हुए जीर्ण मनुष्य का (पुनः-युवत्-वयः-अकृणुतम्) पुनः युवावस्थावाला जीवन करो (युवम्) तुम दोनों (वन्दनम्-ऋश्यदात्) उपासक जन का पीड़ाप्रद रोग से (उत्-ऊपथुः) उद्धार करो (युवं विश्पलां सद्यः-एतवे कृथः) प्रजा से विपरीत हुई सभा या प्रजापालिका को शीघ्र ही उनके योग्य कार्य करनेवाली बनाओ ॥८॥

    भावार्थ

    अध्यापक और उपदेशक ज्ञानोपार्जित करनेवाले जराप्राप्त मेधावी को अपने अमृतमय उपदेश से पुनः युवकसदृश बना देते हैं। उपासक जन को तो अनेक मानसिक पीड़ाप्रद रोगों से ऊपर उठा देते हैं तथा प्रजा से विपरीत हुई प्रजापालिका या राजसभा को भी अनुकूल कर देते हैं ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कलि, वन्दन व विश्पला

    पदार्थ

    [१] हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप (जरणां उपेयुषः) = वृद्धावस्था को प्राप्त हुए हुए (विप्रस्य) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले (कले) = [कल संख्याने = to think ] विचारशील पुरुष के (पुनः) = फिर से (युवद्वयः) = यौवनावस्था को (अकृणुतम्) = करते हो, विचारशील व अपना पूरण करनेवाला पुरुष वृद्धावस्था में भी युवा ही बना रहता है। वह भोजन के संयम से शक्ति को जीर्ण नहीं होने देता और प्राणसाधना के द्वारा रोगों को अपने से दूर रखता है। परिणामतः युवा बना रहता है । [२] (युवम्) = आप दोनों (वन्दनम्) = स्तुति करनेवाले को, प्रभु के उपासक को, (ऋश्यदात्) = [ऋश्यं-killing द- देनेवाला] विनाश के कारणभूत व्यसनकूप से (उदूपथुः) = ऊपर उठाते हो । प्रभु का स्तोता प्राणसाधना के द्वारा व्यसनों का शिकार नहीं होता। प्राणसाधक स्तोता की वृत्ति सदा उत्तम बनी रहती है। [३] हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप (विश्पलाम्) = प्रजाओं का उत्तमता से पालन करनेवाली को (सद्यः) = शीघ्र ही (एतवे) = गति के लिये (कृथः) = करते हो। कोई भी गृहिणी जो कि सन्तानों का उत्तमता से पालन करना अपना कर्त्तव्य समझती है वह प्राणसाधना से आयसी जंघा [अनथक लोहे की टाँगें] प्राप्त करके क्रिया में लगी रहती है। प्राणापान की साधना से इसे थकावट नहीं आती और यह अनथक कार्य करती हुई सन्तानों का समुचित पालन कर पाती है और अपने 'विश्पला' नाम को सार्थक करती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान की साधना के तीन लाभ हैं— [क] वार्धक्य का न आना, [ख] व्यसनों में न फँसना और [ग] अनथक क्रियाशीलता ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वे विद्वानों को पालें, दुःखियों का दुःख से उद्धार करें।

    भावार्थ

    (युवं) आप दोनों (जरणाम् उपेयुषः) स्तुतिकारिणी वाणी को प्राप्त होने वाले (कलेः) ज्ञानवान् और (विप्रस्य) विविध ज्ञानों में अन्यों को पूर्ण करने वाले पुरुष के (वयः) अन्न, जीवन और बल को (पुनः) बार २ (युवत्) हृष्ट पुष्ट, समृद्ध (अकृणुतं) करो। (युवं) तुम दोनों (वन्दनं) अभिवादन और स्तुति एवं ईश्वर का गुण वर्णन करने वाले भक्त जन को (ऋष्यदात्) कष्टदायी दुःख से (उद्-ऊपथुः) उद्धार करो। और (विश्पलाम्) प्रजा को पालन करने वाली सेना को (सद्यः एतवे) अति शीघ्र चलने में योग्य (कृथः) करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घोषा काक्षीवती ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:–१,६,७,११,१३ निचृज्जगती २, ८, ९, १२, जगती। ३ विराड् जगती। ४, ५ पादनिचृज्जगती। १० आर्ची स्वराड् जगती १४ निचृत् त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (युवं कलेः-विप्रस्य) युवां ज्ञानस्य कलयितुः सङ्कल्पयितुर्विप्रस्य मेधाविनः “विप्रः-मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] (जरणाम्-उपेयुषः) जरां प्राप्तस्य जीर्णस्य (पुनः-युवत् वयः-अकृणुतम्) पुनर्युवत्ववज्जीवनं कुरुथः (युवम्) युवाम् (वन्दनम्-ऋश्यदात्) वन्दयितारमुपासकं जनं पीडाप्रदाद् रोगात् (उत्-ऊपथुः) उद्वपथ उद्धरथः (युवं विश्पलां सद्यः-एतवे कृथः) प्रजाभ्यः पलायमानां सभां यद्वा प्रजापालिकां युवां सद्यः प्रचरितुं कुरुथः “विशां पालिकां विद्याम्” [ऋ० १।११७।११ दयानन्दः] ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You rejuvenate and restore to vibrant youthful ness the aging veteran scholar in pursuit of research. You raise the man of holiness from chronic ailment to renewed life. And you help the public health authority in community health programmes so that they may go on with their normal activity.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक व उपदेशक हे ज्ञानोपार्जन करणाऱ्या वृद्ध मेधावीला आपल्या अमृतमय उपदेशाने पुन्हा युवकाप्रमाणे बनवितात. उपासक लोकांना अनेक मानसिक कष्टदायक रोगांपासून वाचवितात व प्रजेपासून विपरीत झालेल्या प्रजेला किंवा राज्यसभेलाही अनुकूल बनवितात. ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top