ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
ऋषिः - घोषा काक्षीवती
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
यु॒वं च्यवा॑नं स॒नयं॒ यथा॒ रथं॒ पुन॒र्युवा॑नं च॒रथा॑य तक्षथुः । निष्टौ॒ग्र्यमू॑हथुर॒द्भ्यस्परि॒ विश्वेत्ता वां॒ सव॑नेषु प्र॒वाच्या॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । च्यवा॑नम् । स॒नय॑म् । यथा॑ । रथ॑म् । पुनः॑ । युवा॑नम् । च॒रथा॑य । त॒क्ष॒थुः॒ । निः । तौ॒ग्र्यम् । ऊ॒ह॒थुः॒ । अ॒त्ऽभ्यः । परि॑ । विश्वा॑ । इत् । ता । वा॒म् । सव॑नेषु । प्र॒ऽवाच्या॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं च्यवानं सनयं यथा रथं पुनर्युवानं चरथाय तक्षथुः । निष्टौग्र्यमूहथुरद्भ्यस्परि विश्वेत्ता वां सवनेषु प्रवाच्या ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम् । च्यवानम् । सनयम् । यथा । रथम् । पुनः । युवानम् । चरथाय । तक्षथुः । निः । तौग्र्यम् । ऊहथुः । अत्ऽभ्यः । परि । विश्वा । इत् । ता । वाम् । सवनेषु । प्रऽवाच्या ॥ १०.३९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 39; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(युवम्) तुम दोनों ओषधिचिकित्सक तथा शल्यचिकित्सक वैद्यो ! या आग्नेय सोम्यपदार्थो ! (च्यवानं सनयं रथं यथा) अपने शरीर से क्षीणता को प्राप्त हुए-जीर्ण शरीरवाले को या स्वरूप से लुप्त मेघों को गिरानेवाले विद्युत् को पुराने रथ के समान (चरथाय पुनः-युवानं तक्षथुः) जीवों के चलने के लिए पुनः कर्म से युक्त करो (तौग्र्यम्-अद्भ्यः परि नि-ऊहथुः) बलवान् राजा के पुत्र, देशान्तर में जानेवाले आवश्यक पदार्थों के लानेवाले वैश्य-वंशज को, जलों अर्थात् नदी समुद्रों से पृथक् पार करो-उतारो, तथा जलोदरादि रोगों से मुक्त करो (तां ता विश्वा सवनेषु प्रवाच्या) तुम ओषधिचिकित्सक और शल्य-चिकित्सक के या आग्नेय सोम्य पदार्थों के वे सब कृत्य सत्सङ्गस्थानों में प्रसिद्ध करने योग्य हैं ॥४॥
भावार्थ
राष्ट्र के अन्दर ओषधिचिकित्सक तथा शल्यचिकित्सक वैद्य होने चाहिए, जो जीर्ण शरीरवाले या विकलित अङ्गवाले को फिर से युवा जैसा बना सकें। एवं आग्नेय सोम्य पदार्थों द्वारा जलयान आदि यानविशेष चलाकर या बनवाकर यात्रा के लिए सुविधाओं को जुटावें, विशेषतया व्यापारियों के उपयोगार्थ ॥४॥
विषय
पुनर्युवा
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! (युवम्) = आप दोनों (सनयम्) = पुराणभूत, बूढ़े से हुए हुए (च्यवानम्) = च्युत- क्षरितवाले पुरुष को (पुनः) = फिर (यथारथम्) = [रथस्य योयाम्] अनुरूप [fit] शरीर रूप रथवाला (युवानम्) = नौजवान (तक्षथुः) = बना देते हो जिससे (चरथाय) = वह जीवनयात्रा में उत्तमता से चल सके। बूढ़ा-सा व्यक्ति भी प्राणापान की साधना से नौजवान हो जाता है। [२] प्राणसाधना से शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है । 'तुग्र्या' शब्द पानी व रेतःकणों के लिये आता है [तुग्र्या=water]। इन रेतः कणों की रक्षा करनेवाला 'तुग्रयासु साधुः ' तौग्य कहलाता है । इत (तौग्र्यम्) = तौग्य को हे प्राणापानो! (अद्भ्यः) = [आप: रेतो भूत्वा ] रेतः कणों के द्वारा (परि-निरूहथुः) = आप सब रोगों से पार कर देते हो । [३] इस प्रकार (वाम्) = हे अश्विनी देवो! आपके (विश्वा इत्ता) = सब वे कर्म निश्चय से (सवनेषु) = जीवनयज्ञ के २४ वर्ष तक के प्रातः सवन में, ४४ वर्ष के माध्यन्दिन सवन में और ४८ वर्ष के तृतीय सवन में प्रवाच्या प्रकर्षेण कथन के योग्य होते हैं। इन प्राणापानों की कृपा से वृद्धावस्था दूर होती है और शक्ति की ऊर्ध्वगति होकर मनुष्य रोग समुद्र में डूबता नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान मनुष्य को पुनर्युवा बना देते हैं और रोग-समुद्र में डूबने से बचाते हैं ।
विषय
स्त्री पुरुषों के रथकार के समान कर्त्तव्य। वे उत्तम राजा को अधिकार दें। उत्तम नायक को पुनः उत्साहित करें।
भावार्थ
हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! हे प्राण अपानो ! (यथा रथं पुनः चरथाय तक्षथुः) जिस प्रकार रथ को पुनः चलने के लिये गढ़ कर ठीक कर देते हैं उसी प्रकार आप दोनों भी (सनयं च्यवानं) उत्तम नीति से युक्त, आगे बढ़ने वाले नायक को (युवानं) जवान, बलवान् करके (पुनः) फिर भी (चरथाय) चलने के लिये समर्थ (तक्षथुः) बनाओ। प्राण अपान ये दोनों सामर्थ्य ही (सनयं च्यवानम्) सनातन, नित्य आत्मा को पुनः-पुनः युवा बनाते, उसे कर्मफल भोगार्थ देह प्रदान कराते हैं। तुम दोनों अश्व रथ आदि वेगवान् साधनों के स्वामी जनो ! (तौग्र्यम्) प्रजापालक पद पर विद्यमान राजा को (अद्भयः परि निर ऊहथुः) आप्त प्रजाओं के ऊपर शासकवत् धारण करो। (वाम् ता) तुम दोनों के वे (विश्वा) सब कार्य (सवनेषु प्र-वाच्या) यज्ञ, अभिषेक आदि के अवसरों में उत्तम रीति से उपदेश करने योग्य हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
घोषा काक्षीवती ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:–१,६,७,११,१३ निचृज्जगती २, ८, ९, १२, जगती। ३ विराड् जगती। ४, ५ पादनिचृज्जगती। १० आर्ची स्वराड् जगती १४ निचृत् त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(युवम्) युवामश्विनौ-ओषधिशल्यचिकित्सकौ ! आग्नेयसोम्य-पदार्थौ वा (च्यवानं सनयं रथं यथा) स्वशरीरतश्च्युतियुक्तं जीर्णशरीरकं कमप्यात्मानं स्वरूपतो लुप्तमिन्द्रं मेघानां च्यावयितारं विद्युद्देवं पुराणं रथं यानविशेषम् “सनयं पुराणम्” [निरु० ४।१९] यथा (चरथाय पुनः-युवानं तक्षथुः) जीवानां चलनाय पुनः कर्मसम्बद्धं कुरुथः “तक्षति करोतिकर्मा” [निरु० ४।१९] (तौग्र्यम्-अद्भ्यः परि निः-ऊहथुः) तुग्रस्य बलवतो राज्ञः पुत्रं राजन्यं राजानम् “बलवतो राज्ञः पुत्रं राजन्यम्” [ऋ० १।११८।६। दयानन्दः] देशान्तरादावावश्यकपदार्थानामादातारं वैश्यवंशजम् “तुग्रं बलादाननिकेतनेषु” [भ्वादिः] जलेभ्यो नदीसमुद्रेभ्यः पृथक्पारमुपरि वा-उत्तारयथः, जलोदरादिरोगा-दुद्धारयथः (तां ता विश्वा सवनेषु प्रवाच्या) युवयोरोषधिशल्य-चिकित्सकयोराग्नेयसोम्ययोः पदार्थयोस्तानि विश्वानि कृत्यानि सत्सङ्गस्थानेषु प्रोक्तव्यानि प्रसिद्धीकरणीयानि सन्ति ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
You rejuvenate the broken old man to fresh youth to go round and enjoy life as the craftsman repairs an old worn out chariot and converts it to new efficiency. You raise the drowned man from the water and revive him to life. That’s why all your works and achievements are praised and celebrated in holy gatherings.
मराठी (1)
भावार्थ
राष्ट्रात औषधीचिकित्सक व शल्यचिकित्सक वैद्य असले पाहिजेत. जे जीर्ण शरीराच्या व विकलांगांना पुन्हा तरुण बनवू शकतील व आग्नेय सोम्य पदार्थांद्वारे जलयान इत्यादी यानविशेष चालवून किंवा बनवून व्यापारी लोकांच्या यात्रेसाठी सुविधा निर्माण कराव्यात ॥४॥
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