ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 39/ मन्त्र 13
ता व॒र्तिर्या॑तं ज॒युषा॒ वि पर्व॑त॒मपि॑न्वतं श॒यवे॑ धे॒नुम॑श्विना । वृक॑स्य चि॒द्वर्ति॑काम॒न्तरा॒स्या॑द्यु॒वं शची॑भिर्ग्रसि॒ताम॑मुञ्चतम् ॥
स्वर सहित पद पाठता । व॒र्तिः । या॒त॒म् । ज॒युषा॑ । वि । पर्व॑तम् । अपि॑न्वतम् । श॒यवे॑ । धे॒नुम् । अ॒श्वि॒ना॒ । वृक॑स्य । चि॒त् । वरि॑काम् । अ॒न्तः । आ॒स्या॑त् । यु॒वम् । शची॑भिः । ग्र॒सि॒ताम् । अ॒मु॒ञ्च॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता वर्तिर्यातं जयुषा वि पर्वतमपिन्वतं शयवे धेनुमश्विना । वृकस्य चिद्वर्तिकामन्तरास्याद्युवं शचीभिर्ग्रसिताममुञ्चतम् ॥
स्वर रहित पद पाठता । वर्तिः । यातम् । जयुषा । वि । पर्वतम् । अपिन्वतम् । शयवे । धेनुम् । अश्विना । वृकस्य । चित् । वरिकाम् । अन्तः । आस्यात् । युवम् । शचीभिः । ग्रसिताम् । अमुञ्चतम् ॥ १०.३९.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 39; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अश्विना) हे अश्ववालों-राष्ट्रवालों-राष्ट्र के प्रधान पुरुषो ! (ता जयुषा वर्तिः-पर्वतं वियातम्) तुम दोनों पर्ववाले कठिन मार्ग को जयशील गतिप्रवाह से प्राप्त करो (शयवे-धेनुम्-अपिन्वतम्) शयनशील राजा के लिये वाणी को प्रचारित करो (युवम्) तुम (वृकस्य चित्-आस्यात्-वर्तिकाम्) छेदनकर्त्ता शासक या शत्रु के प्रमुख बन्धन से लोकवृत्ति को संग्राम में प्रवर्तमान चटका पक्षिणी की भाँति थोड़ी सेना को (अन्तः-ग्रस्ताम्) अधीन की हुई (शचीभिः-अमुञ्चतम्) बुद्धियुक्त क्रियाओं से छुड़ाते हो ॥१३॥
भावार्थ
राष्ट्र के प्रधान पुरुष राजा और मन्त्री को चाहिए कि उनकी प्रजा की वृत्ति या सेना अज्ञानवश शासनबन्धन में आ जाये अथवा शत्रु के बन्धन में आ जाये, तो उसे छोड़ने तथा छुड़वाने का प्रयत्न करें ॥१३॥
विषय
वृक के मुख से वर्तिका - मोचन
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (ता) = वे आप दोनों गतमन्त्र में वर्णित ऋभुओं से निर्मित (जयुषा) = सदा विजय करनेवाले रथ से (वर्तिः यातम्) = मार्ग पर चलो। प्राणसाधना से मनुष्य विषयों की ओर जाता ही नहीं, एवं वह मार्गभ्रष्ट नहीं होता। प्राणसाधक सदा सन्मार्ग से ही गति करता है । [२] हे प्राणापाणो! आप (पर्वतम्) = शरीर रथ में आधाय दण्ड के रूप में स्थित मेरुदण्ड व मेरुपर्वत [= रीढ़ की हड्डी] को (अपिन्वतम्) = [to animrte] प्रीणित करो। इसके स्वास्थ्य पर शरीर के स्वास्थ्य का निर्भर है, प्राणायाम के द्वारा इसमें स्थित 'इडा पिंगला व सुषुम्णा' इन तीनों नाड़ियों का कार्य ठीक से होने लगता है। [३] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (शयवे) = [शी = trengnility] शान्त-स्वभाववाले के लिये (धेनुम्) = वेदवाणी रूप गौ को (अपिन्वतम्) = प्रीणित करते हैं । प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता होने से यह 'शयु' इस वेदवाणी रूप गौ के ज्ञानदुग्ध का खूब ही पान कर पाता है । [४] (युवम्) = आप दोनों (शचीभिः) = शक्तियों से (वृकस्य आस्यात् अन्तः) = भेड़िये के मुख में से (ग्रसितां चित् वर्तिकाम्) = निगली भी गई वर्तिका को (अमुञ्चतम्) = छुड़ा देते हो। यहाँ 'वृक' लोभ है, लोभ ही भेड़िये के रूप में चित्रित हुआ है। 'वर्तिका' [performamce prrctice] यज्ञादि कर्मों का करना है। लोभ रूप भेड़िया यज्ञादि कर्मरूप बटेर को निगल जाता है। लोभ के होने पर ये सब उत्तम कर्म नष्ट हो जाते हैं। प्राणसाधना लोभ को नष्ट करने के द्वारा इस वर्तिका को मुक्त कर देते हैं, फिर से हमारे जीवन में यज्ञादि कर्मों का प्रणयन होने लगता है। यह इन अश्विनी देवों की ही शक्ति है जो ऐसा कर पाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हम [क] मार्ग पर चलते हुए विजयी होते हैं, [ख] मेरुदण्ड को ठीक कर पाते हैं, [ग] ज्ञानदुग्ध का खूब पान करनेवाले होते हैं, [घ] लोभ को जीतकर यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होते हैं ।
विषय
वे रथों से पर्वतादि देशों में भी जावें आवें। दुष्टों के पञ्जों से प्रजा की रक्षा करें।
भावार्थ
हे (अश्विना) अश्वादि के स्वामी जनो ! हे राजा प्रजा वर्गों के नायक स्त्री पुरुषो ! (ता) वे दोनों आप (जयुषा रथेन) जयशील रथ आदि साधन से (पर्वतं) पर्वत के समान उच्च स्थान के प्रति (वर्त्तिः) उत्तम मार्ग पर (यातम्) गमन करो। (शयवे) शान्ति चाहने वाले वा शिशुवत् अज्ञानी पुरुष के हितार्थ (धेनुम्) वाणी का (अपिन्वतम्) उपदेश करो। (वृकस्य चित् आस्यात् वर्त्तिकाम्) भेड़िये के मुख के भीतर पड़ी बटेरी के तुल्य चौर शासक वर्ग के मुख से (अन्तः ग्रसिताम्) भीतर ही निगली गई अत्यन्त पीड़ित प्रजा को (युवं) आप दोनों (अमुञ्चतम्) छुड़ाओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
घोषा काक्षीवती ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:–१,६,७,११,१३ निचृज्जगती २, ८, ९, १२, जगती। ३ विराड् जगती। ४, ५ पादनिचृज्जगती। १० आर्ची स्वराड् जगती १४ निचृत् त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अश्विना) अश्विनौ-अश्ववन्तौ राष्ट्रवन्तौ राष्ट्रस्य प्रधानपुरुषौ ! “अश्वस्य व्याप्तुमर्हस्य राज्यस्य” [ऋ० १।१२१।२ दयानन्दः] (ता जयुषा वर्तिः-पर्वतं वियातम्) तौ युवाम् वर्तिः-मार्गं पर्ववन्तं “अत्र ‘पर्वमरुद्भ्यां तप्’ इति वार्तिकेन तप् प्रत्ययो मत्वर्थे” [यजु० ३३।५० दयानन्दः] कठिनं जयशीलेन रथेन गतिप्रवाहेण प्राप्नुतम् (शयवे धेनुम्-अपिन्वतम्) शयनशीलाय राज्ञे वाचं प्रचारयतम् “धेनुः वाङ्नाम” [निघ० १।११] (युवम्) युवाम् (वृकस्य चित्-आस्यात्-वर्तिकाम्) लोकवृत्तिछेत्तुः शासकस्य शत्रोर्वा “यो वृश्चति छिनत्ति तस्य” [ऋ० १०।११७।१६ दयानन्दः] मुखात्-प्रमुखबन्धनात् संग्रामे प्रवर्तमानां “वर्तिकां संग्रामे प्रवर्तमानाम्” [ऋ० १।११७।१६ दयानन्दः] चटकापक्षिणीमिवाल्पसेनां वा “वर्तिकां चटकापक्षिणीमिव” [१।११६।१४] (अन्तः-ग्रस्ताम्) अधीनीकृताम् (शचीभिः-अमुञ्चतम्) प्रज्ञायुक्ताभिः क्रियाभिः खलु मोचयतम् ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Ashvins, divine powers of knowledge and action, enlightened men and women of the world, harness the victorious chariot of divine vision and inspiration, rise forth and move forward by the road to the clouds, strengthen and raise the rousing voice for sleeping humanity, and with your voice and actions free the poor victims seized and held in the jaws of wolves.
मराठी (1)
भावार्थ
राष्ट्राचा प्रमुख पुरुष राजा व मंत्री यांनी त्यांची प्रजा किंवा सेना कुटिल शासनाच्या बंधनात किंवा शत्रूच्या बंधनात अडकल्यास त्यांना सोडविण्याचा प्रयत्न करावा. ॥१३॥
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