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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 39/ मन्त्र 7
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वं रथे॑न विम॒दाय॑ शु॒न्ध्युवं॒ न्यू॑हथुः पुरुमि॒त्रस्य॒ योष॑णाम् । यु॒वं हवं॑ वध्रिम॒त्या अ॑गच्छतं यु॒वं सुषु॑तिं चक्रथु॒: पुरं॑धये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । रथे॑न । वि॒ऽम॒दाय॑ । शु॒न्ध्युव॑म् । नि । ऊ॒ह॒थुः॒ । पु॒रु॒ऽमि॒त्रस्य॑ । योष॑णम् । यु॒वम् । हव॑म् । व॒ध्रि॒ऽम॒त्याः । अ॒ग॒च्छ॒त॒म् । यु॒वम् । सुऽसु॑तिम् । च॒क्र॒थुः॒ । पुर॑म्ऽधये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं रथेन विमदाय शुन्ध्युवं न्यूहथुः पुरुमित्रस्य योषणाम् । युवं हवं वध्रिमत्या अगच्छतं युवं सुषुतिं चक्रथु: पुरंधये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । रथेन । विऽमदाय । शुन्ध्युवम् । नि । ऊहथुः । पुरुऽमित्रस्य । योषणम् । युवम् । हवम् । वध्रिऽमत्याः । अगच्छतम् । युवम् । सुऽसुतिम् । चक्रथुः । पुरम्ऽधये ॥ १०.३९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 39; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (युवम्) हे अध्यापक-उपदेशको ! (पुरुमित्रस्य विमदाय) बहुतों के मित्र ब्रह्मचारी के विशिष्ट हर्ष के सम्पादन के लिए (शुन्ध्युवं योषणां नि-ऊहथुः) पवित्र-गृहस्थ-सम्पर्करहित ब्रह्मचारिणी को नियुक्त करो (युवम्) तुम दोनों (वध्रिमत्याः-हवम्-अगच्छतम्) संयमनी-संयम में रखनेवाली मेखलायुक्त-पूर्णसंयत के प्रार्थनावचन को प्राप्त होओ (युवं पुरन्धये सुषुतिं चक्रथुः) तुम दोनों घर को धारण करनेवाली सुख सन्तान सम्पत्ति हमारे लिए सम्पादित करो ॥७॥

    भावार्थ

    अध्यापक और उपदेशक या अध्यापिका और उपदेशिका अपने शिष्य और शिष्याओं को पूर्ण ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी बनाकर दोनों का यथायोग्य विवाहसम्बन्ध नियुक्त-स्थापित करें। उन्हें उत्तम सन्तान सुखसम्पत्ति से युक्त करें ॥७॥

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    विषय

    विमद का पुरुमित्र की योषणा से परिणय

    पदार्थ

    [१] हे अश्विनी देवो ! (युवम्) = आप दोनों (वि-मदाय) = मद व गर्वरहित पुरुष के लिये (रथेन) = इस शरीररूप रथ के द्वारा (पुरुमित्रस्य) = [सर्वमित्रस्य] प्राणिमात्र के मित्र उस प्रभु की शुन्ध्युवम्-शुद्ध करनेवाली, जीवन को शुद्ध बनानेवाली (योषणाम्) = [यु- मिश्रणामिश्रणयोः] अवगुणों से पृथक् करनेवाली व गुणों से युक्त करनेवाली वेदवाणि को (न्यूहथुः) = निश्चय से प्राप्त कराते हो । प्राणसाधना के होने पर बुद्धि तीव्र होती है और मनुष्य अपने इस मानव जीवन में ज्ञान की वाणियों का संग्रह करता है। ये वाणियाँ उसे उत्तम प्रेरणा देती हुई उसके जीवन को शुद्ध बनाती हैं। यह प्रभु की योषणा [शं० ३ । २ । १ । २२ योषा वा इवं वाक् ] विमद को प्राप्त होती है, यही विमद का पुरुमित्र की योषणा से विवाह है। अभिमानी ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पाता । [२] हे प्राणापानो! (युवम्) = आप (वधिमत्याः) = अपनी इन्द्रियों को संयमयज्ञ द्वारा बन्धन में बाँधनेवाली के (हवं अगच्छतम्) = पुकार को सुनकर उसको प्राप्त होते हो । अर्थात् प्राणापान उसी को लाभ पहुँचा पाते हैं जो कि संयमी होकर युक्ताहार-विहारवाला बने। वस्तुतः प्राणसाधना स्वयं संयम की साधना में सहायक होती है। [३] (युवम्) = आप दोनों (पुरन्धये) = पालक व पूरक बुद्धिवाली के लिये (सुषुतिम्) = उत्तम ऐश्वर्य को (चक्रथुः) = करते हो । अर्थात् प्राणसाधना से मनुष्य उत्तम बुद्धि को सम्पादन करनेवाला होता है और बुद्धिपूर्वक व्यवहार से उत्तम ऐश्वर्य को सिद्ध करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से हम निरभिमान व ज्ञानवान् बनते हैं। हमारा जीवन संयमवाला होता है और बुद्धियुक्त होकर हम ऐश्वर्य का सम्पादन करनेवाले होते हैं ।

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    विषय

    माता पिता को शुद्ध कन्या का नियमानुसार योग्य से विवाह करने का आदेश।

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! (युवं) आप दोनों (वि-मदाय) विशेष हर्षयुक्त, प्रसन्न पुरुष के सुख के लिये (पुरु-मित्रस्य) बहुतों के स्नेही, वा बहुत मित्रों से युक्त पुरुष की (शुन्ध्युवम्) शुद्ध हुई, निर्दोष, (योषणाम्) प्रेमयोग्य कन्या को (नि ऊहथुः) नियमपूर्वक विवाह द्वारा प्राप्त कराओ। और (युवम्) आप दोनों (वध्रिमत्याः) वशीभूत इन्द्रियों से युक्त जितेन्द्रिय स्त्री के (हवम्) सादर आह्वान और प्रार्थना को (आ गच्छतम्) प्राप्त करो। (युवम्) तुम दोनों (पुरंधये) पुर के रक्षक के समान गृह की रक्षा करने वाले स्त्री वा पुरुष के लिये (सु-सुतिम्) उत्तम ऐश्वर्य वा अन्न वा उत्तम प्रेरणा (चक्रथुः) करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घोषा काक्षीवती ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:–१,६,७,११,१३ निचृज्जगती २, ८, ९, १२, जगती। ३ विराड् जगती। ४, ५ पादनिचृज्जगती। १० आर्ची स्वराड् जगती १४ निचृत् त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (युवम्) हे अश्विनौ ! अध्यापकोपदेशकौ ! युवाम् (पुरुमित्रस्य विमदाय) बहूनां मित्रभूतस्य ब्रह्मचारिणो विशिष्टहर्षसम्पादनाय (शुन्ध्युवं योषणां नि-ऊहथुः) पवित्रां गृहस्थसम्पर्करहितां कुमारीं ब्रह्मचारिणीं नियुक्तां कुरुतम् (युवम्) युवाम् (वध्रिमत्याः हवम्-अगच्छतम्) संयमनीमत्याः पूर्णसंयतायाः प्रार्थनावचनमभिप्रायं वा प्राप्नुतम् (युवं पुरन्धये सुषुतिं चक्रथुः) युवां पुरं गृहं धारयित्र्यां सुखसन्तानसम्पत्तिं कुरुथः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Ashvins, with your knowledge of body and mind, you join the youthful, bright and intelligent daughter of the widely friendly father with a bright young man for their joy and fulfilment. You listen to the call of the barren woman, treat her, restore her fertility, and she is blest with a child for a joyous home life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक व उपदेशक किंवा अध्यापिका व उपदेशिका यांनी आपले शिष्य व शिष्यांना पूर्ण ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी बनवून दोघांचा विवाह संबंध नियुक्त करावा. त्यांना उत्तम संतान सुखसंपत्ती प्राप्त करण्यायोग्य बनवावे. ॥७॥

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