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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 39/ मन्त्र 9
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वं ह॑ रे॒भं वृ॑षणा॒ गुहा॑ हि॒तमुदै॑रयतं ममृ॒वांस॑मश्विना । यु॒वमृ॒बीस॑मु॒त त॒प्तमत्र॑य॒ ओम॑न्वन्तं चक्रथुः स॒प्तव॑ध्रये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । ह॒ । रे॒भम् । वृ॒ष॒णा॒ । गुहा॑ । हि॒तम् । उत् । ऐ॒र॒य॒त॒म् । म॒मृ॒ऽवांस॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । ऋ॒बीस॑म् । उ॒त । त॒प्तम् । अत्र॑ये । ओम॑न्ऽवन्तम् । चक्रथुः । स॒प्तऽव॑ध्रये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं ह रेभं वृषणा गुहा हितमुदैरयतं ममृवांसमश्विना । युवमृबीसमुत तप्तमत्रय ओमन्वन्तं चक्रथुः सप्तवध्रये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । ह । रेभम् । वृषणा । गुहा । हितम् । उत् । ऐरयतम् । ममृऽवांसम् । अश्विना । युवम् । ऋबीसम् । उत । तप्तम् । अत्रये । ओमन्ऽवन्तम् । चक्रथुः । सप्तऽवध्रये ॥ १०.३९.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 39; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (युवम्-अश्विना) हे अध्यापक उपदेशकों ! तुम दोनों (वृषणा) सुखवर्षको ! (ह रेभं गुहा हितं ममृवांसम्-उत् ऐरयतम्) हृदयगुहा में या बुद्धि में स्थित मरणासन्न स्तोता जीव को स्वस्थ करते हो (युवम्) तुम दोनों (ऋबीसम्-उत तप्तम्) अन्धकारपूर्ण तापकारी देह को (सप्तवध्रये) पाँच ज्ञानेन्द्रिय मन और बुद्धि ये सात संयत हो गई हैं जिसकी, ऐसे (अत्रये) भोक्ता जीवात्मा के लिए (ओमन्वन्तं चक्रथुः) रक्षावाले शान्त पद को बनाते हो ॥९॥

    भावार्थ

    अध्यापक और उपदेशक सुख के बरसानेवाले होते हैं। वे हृदय में विराजमान मरणासन्न स्तोता जीव को अमर बना देते है और शरीर के संताप को दूर करते हैं। इन्द्रियों के विषयों से विरक्त हुए को सुरक्षित और अमृतभोग का भागी बना देते हैं ॥९॥

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    विषय

    'रेभ' व 'सप्तवधि- अत्रि'

    पदार्थ

    [१] हे अश्विना प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (ह) = निश्चय से (वृषणा) = शक्ति को देनेवाले हो और सब सुखों की वर्षा करनेवाले हो आप (रेभम्) = प्रभु के स्तवन करनेवाले को, (ममृवांसम्) = अब जो आसन्न मृत्यु है, पर (गुहा हितम्) = अन्तःकरण की गुहा में केन्द्रित ध्यान वृत्तिवाला है, उसे (उदैरयतम्) = उत्कृष्ट लोकों में प्राप्त कराते हो। इन्हीं के लिये 'ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्थाः' इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। प्राणसाधना करनेवाला उपासक मृत्युशय्या पर ध्यानावस्थित हुआ हुआ प्रभु का ही स्मरण करता है और इस शरीर को छोड़कर ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है। [२] हे प्राणापानो! आप सप्तवध्रये='कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख इन सातों को संयम के बन्धन में बाँधनेवाले (अत्रये) = [अ-त्रि] 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों से ऊपर उठे हुए पुरुष के लिये (तप्तं ऋबीसम्) = इस संतप्त अग्निकुण्ड [ऋबीसम्= Abyss ] रूप संसार को (ओमन्वन्तम्) = [अवनवन्तं] रक्षणवाला (चक्रथुः) = करते हो । संयमी पुरुष के लिये यह संसार शान्त सरोवर के तुल्य है। यही संसार असंयमी के लिये नरक की अग्नि के समान तपा हुआ हो जाता है। इस संयम के लिये प्राणसाधना कारण बनती है सो मन्त्र में इस भाव को कहा गया है। कि प्राणापान इस संसाररूप तप्त अग्निकुण्ड को नाशक के स्थान में रक्षक बना देते हैं । प्राणसाधना ही हमें अत्रि बनाती है। अब 'काम' हमारे शरीर का ध्वंस नहीं करता, 'क्रोध' हमारे मन को क्षुब्ध नहीं करता और 'लोभ' हमारी बुद्धि को भ्रष्ट नहीं करता। इस प्रकार प्राणसाधना हमारा रक्षण करती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से [क] हम स्तोता बनकर मृत्युशय्या पर भी प्रभु स्मरण करते हुए ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं और [ख] इस संसार में 'अत्रि' बनकर तप्त अग्निकुण्ड को शान्त सरोवर में परिवर्तित करनेवाले होते हैं। हमारे लिये यह संसार सुखमय ही रहता है।

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    विषय

    विद्या में निष्णात स्त्री-पुरुष जीव को कष्ट से उबारें।

    भावार्थ

    हे (वृषणा) सुखों की वर्षा करने वाले बलवान् प्राणों के तुल्यवत् हे (अश्विना) विद्या में निष्णात स्त्री पुरुषो ! आप लोग (गुहा हितम्) देहरूप गुफा वा बुद्धि में स्थित, (ममृवासं) प्राण-त्याग करने वाले (रेभम्) शब्द वा उपदेश करने वाले, जीव को (उत् ऐरयतम्) ऊपर उठाओ। (युवं) तुम दोनों (सप्त-वध्रये) सातों को निर्बल कर अपने वश करने वाले (अत्रये) विविध कर्मफलों के भोक्ता जीव के लिये (उत) और (तप्तं) तपे हुए, संतापदायी (ऋबीसम्) आग वाले भाड़ के समान दुःखदायी देहादि-बन्धनकारी कारण को भी (ओमन्वन्तम्) नाना रक्षाओं से युक्त सुखदोषी (चक्रथुः) बनाते हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घोषा काक्षीवती ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:–१,६,७,११,१३ निचृज्जगती २, ८, ९, १२, जगती। ३ विराड् जगती। ४, ५ पादनिचृज्जगती। १० आर्ची स्वराड् जगती १४ निचृत् त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (युवम्-अश्विना) युवां हि अश्विनौ ! (वृषणा) सुखवर्षकौ ! (ह रेभं गुहा हितं ममृवांसम्-उदैरयतम्) हृद्गुहायां बुद्धौ वा स्थितं स्तोतारं जीवं ममृवांसं मरणासन्नमुन्नयथः स्वस्थं कुरुथः (युवम्) युवाम् (ऋबीसम्-उत तप्तम्) अन्धकारपूर्णं देहम् “ऋबीसमपगतभासम्” [निरु० ६।३६] अपितु तापकरम् (सप्तवध्रये) “पञ्चचक्षुरादीनीन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च सप्त हतानि यस्य तस्मै” [यजु० ५।७८ दयानन्दः]  “सप्तवध्रिम् हतसप्तेन्द्रियम्” [ऋ० ५।७२।५ दयानन्दः] (अत्रये) अत्त्रे-भोक्त्रे-आत्मने (ओमन्वन्तं चक्रथुः) शान्तं रक्षणवन्तं कुरुथः ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You revive the sinking man who has lost consciousness, all but surviving in the brain, and muttering from the subconscious. You cure the man in high fever in the state of delirium and restore him to health, full consciousness and self-immunity with all his five senses, mind and intelligence fully working in perfect order.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक व उपदेशक सुखाचा वर्षाव करणारे आहेत. ते हृदयात विराजमान मरणासन्न प्रशंसक जीवाला अमर बनवितात व शरीराचा संताप दूर करतात. इंद्रियांच्या विषयांपासून विरक्त झालेल्यांना सुरक्षित व अमृत भोगाचा भागी बनवितात. ॥९॥

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