ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 10
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - रुद्रः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अर्ह॑न्बिभर्षि॒ साय॑कानि॒ धन्वार्ह॑न्नि॒ष्कं य॑ज॒तं वि॒श्वरू॑पम्। अर्ह॑न्नि॒दं द॑यसे॒ विश्व॒मभ्वं॒ न वा ओजी॑यो रुद्र॒ त्वद॑स्ति॥
स्वर सहित पद पाठअर्ह॑न् । बि॒भ॒र्षि॒ । साय॑कानि । धन्व॑ । अर्ह॑न् । नि॒ष्कम् । य॒ज॒तम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । अर्ह॑न् । इ॒दम् । द॒य॒से॒ । विश्व॑म् । अभ्व॑म् । न । वै । ओजी॑यः । रु॒द्र॒ । त्वत् । अ॒स्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्हन्बिभर्षि सायकानि धन्वार्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम्। अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति॥
स्वर रहित पद पाठअर्हन्। बिभर्षि। सायकानि। धन्व। अर्हन्। निष्कम्। यजतम्। विश्वऽरूपम्। अर्हन्। इदम्। दयसे। विश्वम्। अभ्वम्। न। वै। ओजीयः। रुद्र। त्वत्। अस्ति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे रुद्र यस्त्वमर्हन्त्सन् सायकानि धन्व बिभर्ष्यर्हन्विश्वरूपं यजतं निष्कं बिभर्ष्यर्हन्निदमभ्वं विश्वं दयसे तस्मात्त्वदन्यदोजीयो वै नास्ति ॥१०॥
पदार्थः
(अर्हन्) योग्यो भवान् (बिभर्षि) धरसि (सायकानि) शस्त्रास्त्राणि (धन्व) धनुरादीनि (अर्हन्) (निष्कम्) सुवर्णाभूषणम् (यजतम्) सङ्गन्तव्यम् (विश्वरूपम्) विचित्रस्वरूपम् (अर्हन्) (इदम्) (दयसे) (विश्वम्) सर्वं जगत् (अभ्वम्) महत् (न) निषेधे (वै) निश्चये (ओजीयः) बलिष्ठम् (रुद्र) दुष्टानां रोदयितः (त्वत्) (अस्ति) ॥१०॥
भावार्थः
ये योग्यतां प्राप्यायुधानि सेना राज्यं धनञ्च धरन्ति सर्वेषां धर्मात्मनामुपरि दयां च कुर्वन्ति ते बलिष्ठा जायन्ते ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (रुद्र) दुष्टों को रुलानेवाले जो आप (अर्हन्) योग्य होते हुए (सायकानि) शस्त्र और अस्त्रों को (धन्व) तथा धनुर्वाण आदि को (बिभर्षि) धारण करते हैं वा (अर्हन्) योग्य होते हुए (विश्वरूपम्) चित्रविचित्र रूपवाले (यजतम्) सङ्गम करने योग्य (निष्कम्) सुवर्ण महान् (विश्वम्) समस्त जगत् की (दयसे) रक्षा करते हैं, इस कारण (त्वत्) आपसे अन्य (ओजीयः) बलवाला (न) नहीं है ॥१०॥
भावार्थ
जो योग्यता को प्राप्त होकर आयुध सेना राज्य और धन को धारण करने तथा सब धर्मात्माओं पर दया करते हैं, वे बलिष्ठ होते हैं ॥१०॥
विषय
अर्हन्
पदार्थ
१. हे (अर्हन्) = पूजनीय रुद्र! आप ही (सायकानि बिभर्षि) = सब दुःखों का अन्त करने के साधनों को धारण करते हैं- शत्रुओं को विद्रावण करने के साधनभूत शरों को आप ही धारण करनेवाले हैं। इसी उद्देश्य से धन्व-धनुष को आप अपने हाथ में लेते हैं । २. (अर्हन्) = पूजा के योग्य होते हुए (आपही निष्कम्) = सम्पूर्ण स्वर्ण [gold] को धारण करते हैं- सब धनों के स्वामी आप ही हैं, जो निष्क (यजतम्) = [यज दाने] दान करने योग्य है तथा (विश्वरूपम्) = सब वस्तुओं का निर्माण करनेवाला है। धन के मुख्य उपयोग दो ही हैं [क] दान [ख] निर्माण । ३. (अर्हन्) = हे पूज्य प्रभो! आप ही (इदम्) = इस (अभ्वम्) = महान् (विश्वम्) = संसार को (दयसे) = रक्षित करते हैं । हे (रुद्र) = सब रोगों का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (त्वद्) = आपसे अधिक (ओजीयः) = अधिक ओजस्वी (न वा) = नहीं ही (अस्ति) = है। ओजस्वितम होते हुए आप सब कष्टों का निवारण करते हैं, और सारे ब्रह्माण्ड का रक्षण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु धनुर्धर होकर सारे ब्रह्माण्ड का रक्षण कर रहे हैं। सम्पूर्ण धनों के स्वामी वे ही हैं, उनसे अधिक ओजस्वी कोई नहीं ।
विषय
रुद्र, दुष्ट-दमनकारी, पितावत् पालक राजा सेनापति और विद्वान् आचार्य, के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! ( रुद्र ) दुःख दूर करनेहारे एवं दुष्टों को रुलाने हारे ! तू ( अर्हन् ) योग्य होकर ही ( सायकानि ) शत्रुओं का अन्त कर देने वाले शस्त्रास्त्रों को और ( धन्व ) धनुष आदि अस्त्रों को ( बिभर्षि ) धारण कर और ( अर्हन् ) योग्य होकर ही ( निष्कं ) सुवर्णादि के बने आभूषण तथा (यजतं) प्राप्त करने वा दान देने योग्य ( विश्वरूपम् ) सब प्रकार के पदार्थों को ( बिभर्षि ) धारण कर तू (अर्हन्) योग्य होकर ही ( इदं विश्वम् अभ्वम् ) इस समस्त महान् राष्ट्र को ( दयसे ) रक्षा करने में समर्थ है । हे विद्वन् ! ( त्वत् ओजीयः ) तेरे से अधिक पराक्रमी ( न वा अस्ति ) दूसरा कोई नहीं है । ( २ ) इसी प्रकार परमेश्वर ! सर्वपूजनीय, सब गुणों के योग्य होने से ‘अर्हन्’ है । वही ( सायकानि ) जगत् के अन्त करने वाले, प्रलयकारी साधनों और ( धन्व ) अन्तरिक्ष, या जल को वही ( निष्कं ) सम्पूर्ण सुख समस्त रूप को, वही ( यजतं ) उपास्य ( विश्वरूपम् ) विश्वमय विराट् रूप या ‘विश्वरूप’ अर्थात् जीव जगत् को (बिभर्त्ति) धारण, पालन पोषण करता है । वही इस महान् विश्व की रक्षा करता, उसपर कृपा करता, उससे अधिक बलशाली दूसरा नहीं है । इति सप्तदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे योग्यता प्राप्त करून आयुधे, सेना, राज्य व धन धारण करतात व धर्मात्मा लोकांवर दया करतात ते बलवान बनतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Rudra, potent and illustrious lord of the world, scourage of the evil and the wicked, in your own right with your own essential power, you wield the bow and arrows. Rightfully you bear and hold the adorable gold of universal form and lustre. With your essential strength and power, you protect this grand and mighty universe. O Rudra, never and none is greater than you in might and majesty.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the State officials are further elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O State officials! you break the nerves of wickeds and carry on you the bow and arrows along with other sophisticated arms and weapons. You are capable and wear attractive costly and colorful ornaments and thus keep the whole world under your great protective cover. None else is mightier than you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
After becoming capable and competent, those who take charge of kingdom, weaponry and treasury and are always pity on the pious persons they become powerful.
Foot Notes
(सायका नि) शस्त्रास्त्राणि | = Sophisticated arms and weapons. (धन्व) धनुरादीनि। = Bow and arrows. (निष्कम् ) सुवर्णाभूषणम् । = The costly and colorful. (रुद्र) दुष्टानां रोदयितः = One who break the nerves of wickeds.
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