ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
मा त्वा॑ रुद्र चुक्रुधामा॒ नमो॑भि॒र्मा दुष्टु॑ती वृषभ॒ मा सहू॑ती। उन्नो॑ वी॒राँ अ॑र्पय भेष॒जेभि॑र्भि॒षक्त॑मं त्वा भि॒षजां॑ शृणोमि॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा॒ । रु॒द्र॒ । चु॒क्रु॒धा॒म॒ । नमः॑ऽभिः । मा । दुःऽस्तु॑ती । वृ॒ष॒भ॒ । मा । सऽहू॑ती । उत् । नः॒ । वी॒रान् । अ॒र्प॒य॒ । भे॒ष॒जेभिः॑ । भि॒षक्ऽत॑मम् । त्वा॒ । भि॒षजा॑म् । शृ॒णो॒मि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वा रुद्र चुक्रुधामा नमोभिर्मा दुष्टुती वृषभ मा सहूती। उन्नो वीराँ अर्पय भेषजेभिर्भिषक्तमं त्वा भिषजां शृणोमि॥
स्वर रहित पद पाठमा। त्वा। रुद्र। चुक्रुधाम। नमःऽभिः। मा। दुःऽस्तुती। वृषभ। मा। सऽहूती। उत्। नः। वीरान्। अर्पय। भेषजेभिः। भिषक्ऽतमम्। त्वा। भिषजाम्। शृणोमि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्वैद्यकविषयमाह।
अन्वयः
हे वृषभ रुद्र वयं दुष्टुती त्वा प्रति मा चुक्रुधाम सहूती मा चुक्रुधाम त्वया सह विरोधं मा कुर्य्याम किन्तु नमोभिः सततं सत्कुर्य्याम यन्त्वाहं भिषजां भिषक्तमं शृणोमि स त्वं भेषजेभिर्नो वीरानुदर्पय ॥४॥
पदार्थः
(मा) (त्वा) त्वाम् (रुद्र) कुपथ्यकारिणां रोदयितः (चुक्रुधाम) कुपिता भवेम। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घ० (नमोभिः) सत्कारैः (मा) (दुष्टुती) दुष्टया स्तुत्या। अत्र सुपामिति पूर्वसवर्णः (वृषभ) श्रेष्ठ (मा) (सहूती) समानया स्पर्द्धया (उत) (नः) अस्मभ्यम् (वीरान्) अरोगान् बलिष्ठान् पुत्रादीन् (अर्पय) समर्पय (भेषजेभिः) रोगनिवारकैरौषधैः (भिषक्तमम्) वैद्यशिरोमणिम् (त्वा) त्वाम् (भिषजाम्) वैद्यानां मध्ये (शृणोमि) ॥४॥
भावार्थः
केनचिद्वैद्येन सह विरोधः कदाचिन्न कर्त्तव्यो नैतेन सहेर्ष्या कार्या किन्तु प्रीत्या सर्वोत्तमो वैद्यः सेवनीयो येन रोगेभ्यः पृथग् भूत्वा सुखं सततं वर्द्धेत ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वैद्यक विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (वृषभ) श्रेष्ठ (इन्द्र) कुपथ्यकारियों को रुलानेवाले ! हम लोग (दुष्टुती) दुष्ट स्तुति से (त्वा) आपके (प्रति) प्रति (मा) मत (चुक्रुधाम) क्रोध करें (सहूती) समान स्पर्द्धा से (मा) मत क्रोध करें आपके साथ विरोध (मा) मत करें किन्तु (नमोभिः) सत्कार के साथ निरन्तर सत्कार करें, जिन (त्वा) आपको मैं (भिषजाम्) वैद्यों के बीच (भिषक्तमम्) वैद्यों के शिरोमणि (शृणोमि) सुनता हूँ सो आप (वीरान्) वीर नीरोग पुत्रादिकों को (उत्,अर्पण) उत्तमता से सौपें ॥४॥
भावार्थ
किसी को वैद्य के साथ विरोध कभी न करना चाहिये न इसके साथ ईर्ष्या करनी चाहिये किन्तु प्रीति के साथ सर्वोत्तम वैद्य की सेवा करनी चाहिये, जिससे रोगों से अलग होकर सुख निरन्तर बढ़े ॥४॥
विषय
भिषजां भिषक्तमम्
पदार्थ
१. हे रुद्र ज्ञान देनेवाले व रोगों का विद्रावण करनेवाले प्रभो! हमारे मस्तिष्कों को ज्ञानोज्ज्वल व शरीरों को नीरोग बनानेवाले प्रभो! हम (त्वा) = आपको (नमोभिः) = हर समय नमस्ते ही नमस्ते करते। हुए और अपने आपसे निर्दिष्ट, कर्त्तव्यों को न करते हुए (मा चुक्रुधाम) = मत क्रुद्ध करलें। हर समय के नमस्ते की अपेक्षा अपने कर्त्तव्यों को करनेवाले बनें । २. (दुष्टुती मा) = गलत स्तुति से हम आपको क्रुद्ध न कर लें। गलत स्तुति क्या है ? प्रभु को दयालु नाम से स्मरण करना और स्वयं क्रूरवृत्ति का बनना- प्रभु को न्यायकारी कहना और स्वयं सदा अन्याय में प्रवृत्त होना। इस दुष्टुति को हम करनेवाले न हों। ३. हे (वृषभ) = सब सुखों के व सुखसाधनों के वर्षण करनेवाले प्रभो! हम (सहूती मा) = आपके साथ अन्य बातों की पुकार द्वारा आपको क्रुद्ध न कर लें। आप तो स्वयं सब चीजों को हमारे लिए दे रहे हैं। हम व्यर्थ की प्रार्थनाओं से आपको क्रुद्ध न कर लें। ४. आप (नः वीरान्) = हमारी वीर सन्तानों को भी (भेषजेभिः) = रोगनिवारक ओषधियों से (उत् अर्पय) उत्कर्ष से संयुक्त करिए । (त्वा) = आपको मैं (भिषजाम्) = वैद्यों में (भिषक्तमम्) = सर्वमहान् वैद्य (शृणोमि) = सुनता हूँ। आप हमारे सब रोगों का निवारण करके हमें उत्कर्ष को प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम नमस्ते ही नमस्ते न करते रहें, गलत स्तुति न करें, बहुत माँगते न रहें। प्रभु स्वयं सब कुछ देनेवाले हैं- हमारे सब रोगों का प्रतिकार करनेवाले हैं।
विषय
रुद्र, दुष्ट-दमनकारी, पितावत् पालक राजा सेनापति और विद्वान् आचार्य, के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( रुद्र ) दुष्टों, कुपथ्यकारियों को रुलाने वाले, तथा दुखों को भगाने वाले, कुकर्मों से रोकने, और उत्तम उपदेश करने वाले ! राजन् ! वैद्य ! आश्रयदातः ! राजन् ! विद्वन् ! गुरो ! प्रभो ! ( त्वा ) तेरे प्रति हम मा चुक्रुधाम ) कभी कोप न करें, तुझे कभी क्रुद्ध न करें । हे ( वृषभ ) सर्वश्रेष्ठ ! हम तुझे (दुःस्तुती) बुरी निन्दा और (सहूती) समान स्पर्द्धा, और बराबरी के से बुलाने से ( मा चुक्रुधाम ) कभी तुझे कुपित न करें । प्रत्युत ( नमोभिः ) नमस्कार और आदरवचनों से सदा सत्कार करें । ( नः वीरान् ) हमारे वीरों और पुत्रों को ( भेषजेभिः ) उत्तम रोगनाशक उपायों और ओषधियों से ( उत् अर्पय ) उत्तम सुख प्रदान कर । मैं ( त्वा ) तुझ ( भिषजां ) सब रोग-व्याधिनाशकों में से ( भिषक्-तमम् ) सबसे श्रेष्ठ रोगनाशक, चिकित्सक ( शृणोमि ) सुनता हूं । अथवा—( नमोभिः मा क्रुधाम ) हे राजन् ! तुझको हम शस्त्रों से अर्थात् शस्त्रों के दुरुपयोगों से कुपित न करें । वा, ( नमोभिः ) तेरे शस्त्र या प्रजा को नमाने, वश करने के उपायों से पीड़ित होकर हम प्रजाजन स्वयं कुपित न हों ।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
कुणीही वैद्याला विरोध करता कामा नये किंवा त्याची ईर्षाही करता कामा नये, तर प्रेमाने वैद्याची सेवा केली पाहिजे, त्यामुळे रोग दूर होऊन सतत सुख वाढते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Rudra, O physician, mighty brave and generous, may we never irritate or provoke you by neglect or turning away, or by disappraisal, or by pestering you. With herbs and tonics raise a generation of brave, heroic young people. I hear that you are the most eminent physician among physicians.
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