ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 14
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - रुद्रः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
परि॑ णो हे॒ती रु॒द्रस्य॑ वृज्याः॒ परि॑ त्वे॒षस्य॑ दुर्म॒तिर्म॒ही गा॑त्। अव॑ स्थि॒रा म॒घव॑द्भ्यस्तनुष्व॒ मीढ्व॑स्तो॒काय॒ तन॑याय मृळ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । नः॒ । हे॒तिः । रु॒द्रस्य॑ । वृ॒ज्याः॒ । परि॑ । त्वे॒षस्य॑ । दुःऽम॒तिः । म॒ही । गा॒त् । अव॑ । स्थि॒रा । म॒घव॑त्ऽभ्यः । त॒नु॒ष्व॒ । मीढ्वः॑ । तो॒काय॑ । तन॑याय । मृ॒ळ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि णो हेती रुद्रस्य वृज्याः परि त्वेषस्य दुर्मतिर्मही गात्। अव स्थिरा मघवद्भ्यस्तनुष्व मीढ्वस्तोकाय तनयाय मृळ॥
स्वर रहित पद पाठपरि। नः। हेतिः। रुद्रस्य। वृज्याः। परि। त्वेषस्य। दुःऽमतिः। मही। गात्। अव। स्थिरा। मघवत्ऽभ्यः। तनुष्व। मीढ्वः। तोकाय। तनयाय। मृळ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मीढ्वो वैद्य यो रुद्रस्य हेतिर्वृज्यास्त्वेषस्य दुर्मतिश्च नोऽस्मान् पर्य्यगात्। या मघवद्भ्यो मह्यस्मान् पर्य्यगात्स्थिरा च गात् तानि तोकाय तनयाय तनुष्व तैः सर्वान्मृळ रोगानवतनुष्व दूरी कुरु ॥१४॥
पदार्थः
(परि) सर्वतः (नः) अस्मान् (हेतिः) वज्रादिव पीडा। हेतिरिति वज्रना० निघं० २। २०। (रुद्रस्य) दुःखप्रदस्य रोगस्य (वृज्याः) वर्जनीयाः पीडाः (परि) अभितः (त्वेषस्य) प्रदीप्तस्य (दुर्मतिः) दुष्टा मतिः (मही) महती पूज्या वाक्। महीति वाङ्नाम निघं० १। ११ (गात्) प्राप्नुयात् (अव) (स्थिरा) स्थिराणि (मघवद्भ्यः) पूजितधनेभ्यः (तनुष्व) विस्तृणीहि (मीढ्वः) सुखसेचक (तोकाय) सद्यो जातायाऽपत्याय (तनयाय) प्राप्तकुमाराऽवस्थाय (मृळ) सुखय ॥१४॥
भावार्थः
मनुष्यैः सुशिक्षया दुष्टां मतिं वैद्यकरीत्या सर्वान् रोगान्निवार्य्य स्वं स्वं कुलं सदा सुखनीयम् ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (मीढ्वः) सुखों से सींचनेवाले वैद्य जो (रुद्रस्य) दुःख देनेवाले रोगको (हेतिः) वज्र से पीड़ा के समान वा (वृज्याः) वर्जने योग्य पीड़ा और (त्वेषस्य) प्रदीप्त अर्थात् प्रबल की (दुर्मतिः) दुष्टमति (नः) हमलोगों को (परि) सब ओर से प्राप्त होवे, तथा जो (मघवद्भ्यः) प्रशंसित धनवालों से (मही) प्रशंसनीय वाणी हम लोगों को सब ओर से शीघ्र उत्पन्न हुए सन्तान के लिये (तनयाय) जोकि कुमारावस्था को प्राप्त है उसके लिये विस्तारो, और उनसे सबको (मृळ) सुखी करो और रोगों को (अव,तनुष्व) दूर करो ॥१४॥
भावार्थ
मनुष्यों को उत्तम शिक्षा से दुष्टमति को तथा वैद्यक रीति से सब रोगों का निवारण कर अपने कुल को सदा सुखी करना चाहिये ॥१४॥
विषय
प्रभु की हेति व दुर्मति से दूर
पदार्थ
१. (रुद्रस्य) = उन दुष्टों को दण्ड देकर रुलानेवाले रुद्र का (हेतिः) = हनन साधन आयुध (नः) = हमें (परिवृज्याः) = छोड़नेवाला हो। हमें प्रभु का दण्डभाजन न बनना पड़े । (त्वेषस्य) = उस दीप्तप्रभु की (मही) = अतिप्रबल (दुर्मतिः) = दुःख की कारणभूत दुष्टबुद्धि (परिगात्) [परेर्वर्जने] = हमें छोड़कर अन्यत्र जानेवाली हो। हमें दुर्मति न प्राप्त हो । 'ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये, मत्त एवेति तान् विद्धि' सात्त्विक राजस व तामसभावों को जन्म देनेवाले वे प्रभु ही हैं। जिनका प्रभु ने रक्षण करना होता है, उन्हें सुबुद्धि देते हैं और जिनका विनाश करना होता है उनकी बुद्धि हर लेते हैं । २. हे रुद्र! आप (स्थिरा) = अपने दृढ़ धनुषों को (मघवद्भ्यः) = हम यज्ञशील- पुरुषों के लिए (अवतनुष्व) = उतारी हुई डोरीवाला करिए-अवततज्यावाला करिए। हमारे पर आपके कठिन बन्धन न पड़े। हे (मीडव:) = सुखों का सेवन करनेवाले प्रभो! (तोकाय) = हमारे पुत्रों के लिए तथा (तनयाय) = पौत्रों के लिए मृड सुख करिए। हमारे पुत्र-पौत्रों का जीवन भी सुखी हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के दण्डपात्र न हों। हमें दुर्बुद्धि न प्राप्त हो । हमारे सन्तान भी सुखी हों।
विषय
रुद्र, दुष्ट-दमनकारी, पितावत् पालक राजा सेनापति और विद्वान् आचार्य, के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( मीढ्वः ) शान्ति जल से स्नान कराने वाले, मेघ के समान सुखों के वर्षक ! सेचक, और वर्धक ! तू ( रुद्रस्य ) रुलाने वाले दुष्ट या तीक्ष्ण सैन्य जन या दुःखकारी रोग की ( हेतिः ) शस्त्रास्त्र पीड़ा और आघात ( वृज्याः ) वर्जने योग्य पीड़ाएं और ( त्वेषस्य ) अति तीक्ष्ण शस्त्र तथा ज्वरादि की ( मही ) बड़ी भारी ( दुर्मतिः ) दुःख संकल्प और दुष्ट ताड़ना पीड़ा आदि ( नः परिगात् ) हमसे परे ही रहे। और ( मघ वद्भ्यः ) ऐश्वर्यवान् पुरुषों के ( तोकाय तनयाय च ) पुत्रों और पौत्रों के लिये उक्त कष्टों को दूरकर और ( मृड ) सबको सुखी कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी उत्तम शिक्षणाने दुष्ट बुद्धी व वैद्यक रीतीने सर्व रोगांचे निवारण करून आपापल्या कुळाला सदैव सुखी ठेवावे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the stroke of fatal illness stay far from us. May the serious error of judgement of the brilliant specialist be far from us. Ward off and remove the chronic diseases from the people of wealth and power. O potent and generous lord of health and power, be kind and gracious to our children and our grand children.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
It contents seeking of ideal health.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O physician you provide us delight and treat well the most painful diseases. You also set right the wickeds with your teachings. Whatever, appreciative remarks and other gifts we receive from the wealthy persons, let that be available to our young generation. Make all of them happy and cure their ailments.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All should treat the wickeds with nice teaching and to the sick ones by administering good medicine and thus make them happy and healthy.
Foot Notes
(हेतिः) वज्रादिव पीड़ा | होतिरिति वज्र नाम (N. G. 2 / C) = Severe pain. (वृज्या:) वर्जनीया: पीड़ा: = Curable pains. (मही) महती पूज्या वाक् | महीति वाङ्नाम (N. G. 1 / 11 ) = The adorable great language. (मघवद्भ्यः) पूजितधनेभ्य:। =From the wealthy persons. (तोकाय) सद्योजातायाऽपत्याय। = For young generation.
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