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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - रुद्रः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श्रेष्ठो॑ जा॒तस्य॑ रुद्र श्रि॒यासि॑ त॒वस्त॑मस्त॒वसां॑ वज्रबाहो। पर्षि॑ णः पा॒रमंह॑सः स्व॒स्ति विश्वा॑ अ॒भी॑ती॒ रप॑सो युयोधि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ष्रेष्ठः॑ । जा॒तस्य॑ । रु॒द्र॒ । श्रि॒या । अ॒सि॒ । त॒वःऽत॑मः । त॒वसा॑म् । व॒ज्र॒बा॒हो॒ इति॑ वज्रऽबाहो । पर्षि॑ । नः॒ । पा॒रम् । अंह॑सः । स्व॒स्ति । विश्वाः॑ । अ॒भिऽइ॑तीः । रप॑सः । यु॒यो॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रेष्ठो जातस्य रुद्र श्रियासि तवस्तमस्तवसां वज्रबाहो। पर्षि णः पारमंहसः स्वस्ति विश्वा अभीती रपसो युयोधि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रेष्ठः। जातस्य। रुद्र। श्रिया। असि। तवःऽतमः। तवसाम्। वज्रबाहो इति वज्रऽबाहो। पर्षि। नः। पारम्। अंहसः। स्वस्ति। विश्वाः। अभिऽइतीः। रपसः। युयोधि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे वज्रबाहो रुद्र यतस्त्वं तवसां तवस्तमो जातस्य श्रेष्ठः श्रिया सह वर्त्तमानोऽसि नोऽस्मानंहसो रपसः पारं पर्षि विश्वाः पीडा युयोधि स्वस्ति जनयसि तस्मादस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥३॥

    पदार्थः

    (श्रेष्ठः) अतिशयेन प्रशंसितः (जातस्य) प्रसिद्धस्य जगतो मध्ये (रुद्र) रोगाणां प्रलयकृत् (श्रिया) शोभया लक्ष्म्या वा (असि) (तवस्तमः) अतिशयेन बली (तवसाम्) बलिनाम् (वज्रबाहौ) वज्रवदौषधं बाहौ यस्य तत्सम्बुद्धौ (पर्षि) पारयसि (नः) अस्मान् (पारम्) (अंहसः) कुपथ्यजन्याऽपराधात् (स्वति) सुखम् (विश्वाः) सर्वाः (अभीतिः) अभितः सर्वत इत्या प्राप्त्या (रपसः) पापस्य (युयोधि) पृथक् करोषि ॥३॥

    भावार्थः

    ये स्वयमरोगाः शोभमाना बलिष्ठा वैद्या अन्यानरोगान् कृत्वा सततं सुखयन्ति ते सर्वैः सर्वदा सत्कर्त्तव्याः ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (वज्रबाहो) वज्र के तुल्य औषध बाहु में रखने और (रुद्र) रोगों के लोप करनेवाले ! जिससे आप (तवसाम्) बलिष्ठों में (तवस्तमः) अतीव बलवान् (जातस्य) प्रसिद्ध जगत् के बीच (श्रेष्ठः) अत्यन्त प्रशंसायुक्त (श्रिया) शोभा वा लक्ष्मी के साथ वर्त्तमान (अति) हो वा (नः) हमलोगों को (अंहसः) कुपथ्य से उत्पन्न हुए (रपसः) कर्म से (पारम्) पार (पर्षि) पहुँचाते हो वा (विश्वाः) समस्त पीड़ाओं को (युयोधि) अलग करते हो वा (स्वस्ति) सुख उत्पन्न करते हो, इससे हम लोगों से सत्कार पाने योग्य हो ॥३॥

    भावार्थ

    जो आप रोगरहित शोभते हुए अतीव बलवान् हैं, औरों को रोगरहित करके निरन्तर सुखी करते हैं, वे सबको सर्वदा सत्कार करने योग्य हैं ॥३॥

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    विषय

    पाप से पार

    पदार्थ

    १. हे (रुद्र) = परमात्मन् ! आप (जातस्य) = इस ब्रह्माण्ड में (श्रिया श्रेष्ठः असि) = श्री के दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठ हैं ! ठीक-ठीक बात तो यह है कि जहाँ-जहाँ श्री है वह आपकी ही है । 'यद् यद् विभूतिमतां सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशं सम्भवम्' । २. हे (वज्रबाहो) = आयुधहस्त अथवा सतत क्रियाशील प्रभो! [वजगतौ] आप (तवसाम्) = बढ़े हुओं में (तवस्तमः) = सबसे अधिक बढ़े हुए हैं। सर्वव्यापक हैं, सब गुणों की चरमसीमा हैं। आप (नः) = हमें (अंहसः) = पाप के (पारम्) = पार (स्वस्ति क्षेमेण) [= कुशलतापूर्वक] (पर्षि) = प्राप्त कराइए । पाप से हमें दूर कीजिए ताकि हम मंगलमय जीवन बिता पाएँ । (विश्वा:) = सब (रपसः) = पाप व दोष की (अभीती:) = [अभि इती:] प्राप्तियों-अभिगमनों को युयोधि हमारे से पृथक् करिए। हमारा पाप के साथ सम्पर्क न हो । पाप के आक्रमण को हम निष्फल कर सकें।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का स्मरण हमें पाप से पार ले जानेवाला हो ।

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    विषय

    रुद्र, दुष्ट-दमनकारी, पितावत् पालक राजा सेनापति और विद्वान् आचार्य, के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( रुद्र ) दुष्टों के रुलाने वाले ! दुखों के भगाने वाले ! तू ( जातस्य ) उत्पन्न हुए संसार के बीच में ( श्रिया ) लक्ष्मी, कान्ति से ( श्रेष्ठः ) सबसे अधिक प्रशंसायोग्य ( असि ) है । हे ( वज्रबाहो ) शस्त्रास्त्र के समान रोगों और दुखों के नाना उपायों से दुःखदायक को बांधने वाले ओषधिरूप बाहु वाले वैद्य ! वा शस्त्रास्त्र से सज्जित बाहु वाले पुरुष ! तू ( तवसा ) सब बलवालों में ( तवस्तमः ) सबसे अधिक बलवान् है । ( नः ) हमें ( अंहसः ) पाप से ( स्वस्ति ) कल्याण पूर्वक ( पर्षि ) पार कर । और ( विश्वाः ) सब प्रकार की ( रपसः ) पाप के कारण आने वाली ( अभि-इतीः ) आपत्तियों को ( युयोधि ) दूर कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे स्वतः रोगरहित अत्यंत शोभनीय व बलवान वैद्य असतात व इतरांना रोगरहित करून निरंतर सुखी करतात अशा लोकांचा सर्वांनी सत्कार करावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Rudra, lord of adamantine arms by virtue of your own knowledge and power, you are the best of the world of humanity and strongest of the strong. Take us across the seas of sin and disease to our good and well being. Fight out all the roads to infirmity and block them against ill-health.

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