ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - रुद्रः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
हवी॑मभि॒र्हव॑ते॒ यो ह॒विर्भि॒रव॒ स्तोमे॑भी रु॒द्रं दि॑षीय। ऋ॒दू॒दरः॑ सु॒हवो॒ मा नो॑ अ॒स्यै ब॒भ्रुः सु॒शिप्रो॑ रीरधन्म॒नायै॑॥
स्वर सहित पद पाठहवी॑मऽभिः । हव॑ते । यः । ह॒विःऽभिः । अव॑ । स्तोमे॑भिः । रु॒द्रम् । दि॒षी॒य॒ । ऋ॒दू॒दरः॑ । सु॒ऽहवः॑ । मा । नः॒ । अ॒स्यै । ब॒भ्रुः । सु॒ऽशिप्रः॑ । री॒र॒ध॒त् । म॒नायै॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हवीमभिर्हवते यो हविर्भिरव स्तोमेभी रुद्रं दिषीय। ऋदूदरः सुहवो मा नो अस्यै बभ्रुः सुशिप्रो रीरधन्मनायै॥
स्वर रहित पद पाठहवीमऽभिः। हवते। यः। हविःऽभिः। अव। स्तोमेभिः। रुद्रम्। दिषीय। ऋदूदरः। सुऽहवः। मा। नः। अस्यै। बभ्रुः। सुऽशिप्रः। रीरधत्। मनायै॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्वैद्यविषयमाह।
अन्वयः
यो हवीमभिर्नोऽस्मान् हवते तं रुद्रमहं हविभिः त्वमेभिरवदिषीय माखण्डयेयम्। यतः सुहव दूदरो बभ्रुः सुशिप्रो वैद्यो नोऽस्यै मनायै मा रीरधत् ॥५॥
पदार्थः
(हवीमभिः) सुष्ठ्वौषधदानैः (हवते) स्पर्द्धते (यः) जनः (हविर्भिः) होतुं ग्रहीतुमर्हैः (अव) (स्तोमेभिः) श्लाघाभिः (रुद्रम्) वैद्यम् (दिषीय) खण्डयेयम् (दूदरः) मृदूदरः। दूदरः सोमो मृदूदरो मृदुरुदरेष्विति निरुक्ते ६। ४। (सुहवः) सुष्ठुदानः (मा) (नः) अस्माकम् (अस्यै) (बभ्रुः) पालकाः (सुशिप्रः) सुन्दराननः (रीरधत्) हिंस्यात् (मनायै) मन्यमानायै प्रज्ञायै ॥५॥
भावार्थः
ये वैद्या रोगनिवारणेनास्माकं प्रज्ञां वर्द्धयन्ति तैस्सह वयं कदाचिन्न विरुध्येम ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वैद्य विषयको अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
(यः) जो वैद्यजन (हवीमभिः) सुन्दर ओषधियों के देने से हम लोगों की (हवते) स्पर्द्धा करता है उस (रुद्रम्) वैद्य को मैं (हविर्भिः) ग्रहण करने योग्य (स्तोमेभिः) श्लाघाओं से (अव,दिषीय) न खण्डन करूँ अर्थात् न उसे क्लेश देऊँ जिससे (सुहवः) सुन्दरदानशील (दूदरः) कोमल उदरवाला (बभ्रुः) पालनकर्त्ता (सुशिप्रः) सुन्दर मुखयुक्त वैद्य (नः) हमारी (अस्यै) इस (मनायै) माननेवाली बुद्धि के लिये (मा,रीरधत्) मत हिंसा कर ॥५॥
भावार्थ
जो वैद्य जन रोगनिवारण से हमारी बुद्धि को बढ़ाते हैं, उनके साथ हम लोग कभी न विरोध करें ॥५॥
विषय
हवीमभिः+हविभिः
पदार्थ
१. (यः) = जो रुद्र (हवीमभिः) = पुकारों द्वारा-आराधनाओं द्वारा तथा (हविर्भिः) = दानपूर्वक अदन द्वारा हवते स्तुत किया जाता है [हूयते] उस (रुद्रम्) = रुद्र को (स्तोमे:) = स्तुतिमन्त्रों द्वारा (अवदिषीय) = [अपगतक्रोधं करोमि सा०] क्रोधरहित करता हूँ। मैं केवल प्रभु को पुकारता ही नहीं रहता । प्रभु की आराधना के साथ त्यागपूर्वक अदन व यज्ञात्मकवृत्ति को भी अपनाता हूँ। केवल नमस्ते से ही मैं प्रभु का कोपभाजन हुआ था [मा त्वा रुद्र चुक्रुधामा नमोभिः] । नमस्ते के साथ यज्ञों को अपनाकर - वास्तविक स्तवन को करता हुआ- मैं प्रभु का प्रिय बनता हूँ । २. वह प्रभु (ऋदूदरः) = कोमलहृदय-दयालु हैं। (सुहव:) = सुगमता से पुकारने योग्य हैं-हम सुगमता से उन प्रभु को आराधित कर सकते हैं। (बभ्रुः) = वे सबका भरण करनेवाले हैं। (सुशिप्र:) = शोभन हनू वा नासिकाओं को देनेवाले हैं। [शोभने शिप्रे हनू नासिके वा यस्मात्] अर्थात् प्रभुस्मरण करनेवाला उत्तम जबड़ोंवाला होता है-हितकर वस्तुओं को ही परिमित रूप में खाता है यह उत्तम नासिकाओंवाला, अर्थात् प्राणसाधना करनेवाला होता है। ये सुशिप्र प्रभु (नः) = हमें (अस्यै) = इस (मनायै) = [हन्मीति मन्यमाना बुद्धिः = मंना सा०] हनन बुद्धि के लिए (मा रीरधत्) = मत सिद्ध करें, अर्थात् हम प्रभु के हननयोग्य न हों। उत्तम कर्मों को करते हुए प्रभु के कृपापात्र ही बनें।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रार्थना के साथ यज्ञात्मक कर्मों को करते हुए सदा प्रभु के प्रिय बने रहें ।
विषय
रुद्र, दुष्ट-दमनकारी, पितावत् पालक राजा सेनापति और विद्वान् आचार्य, के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यः ) जो पुरुष ( हविर्भिः ) ग्रहण करने योग्य ( हवीमभिः ) उत्तम अन्न आदि ओषधियों से ( हवते ) उत्तम सुख देता, और उत्तम उपदेशों से ज्ञान प्रदान करता है, उस ( रुद्रम् ) दुखों को दूर करने वाले, दुष्टों को रुलाने वाले पुरुष को ( स्तोमेभिः ) उत्तम स्तुति वचनों से मैं ( अव दिषीय ) धारण करूं या उसके अधीन रहूं। [अथवा ‘मा’ पद को दीपक-न्याय से उत्तर चरण से लें] (मा अव दिषीय) उसको कभी अनादर पूर्वक खण्डित न करूं, अनादर से उसे क्लेश न दूं । वह ( ऋदूदरः ) कोमल हृदय वाला, ( सुहवः ) उत्तम ज्ञान देने वाला, और ( सुशिप्रः ) उत्तम मुखाकृति से युक्त हँसमुख ( बभ्रुः ) तेजस्वी, अरुण वर्ण या सर्वपाल कहोकर ( अस्यै मनायै ) इस समस्त मनकारिणी, सर्ववश करने वाली शक्ति और सर्वज्ञान करने में समर्थ बुद्धि के बल से ( नः ) हमें ( मा रीरधत् ) कष्ट और पीड़ा न दे ।
टिप्पणी
‘अव दिषीय’—दीड़् क्षये । क्षयो निवासः । इत्यस्य रूपम् । छान्दसोह्रस्वः । अथवा ‘धि धारणे’ इत्यस्य वा । दत्वं छान्दसम् । अथवा ‘दो अव अवखण्डने’ इत्यस्य रूपम् । तत्र ‘मा’ पदं उत्तरस्मादाकृष्यते, दीपकत्रद् वा स्थितमुभयत्र युज्यते । इति षोडशो वर्गः ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे वैद्य रोगनिवारण करून आमची बुद्धी वाढवितात त्यांचा आम्ही कधी विरोध करू नये. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The physician who helps, inspires and advances us with exhortations, herbs and tonics, him I serve and please with offers of presents and appreciation. And he too, soft and kind at heart, invited with reverence, benevolent and pleasant of manners, should not, in the interest of the patient’s mind and morale, hurt us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of physicians is further elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The physician who treats us with his medicines diligently, I would never denounce or annoy him, so that the physician who is beautiful, well mannered, protector and impressive with nice digestive system should never harm or hurt us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The physician who cures us and tones up our intelligence, we should never pick up his displeasure.
Foot Notes
(हवीमभिः) सुष्ठ्वौषधदानैः । = By prescribing and administering good medicines. (ऋदूदर:) मृदूदरः । ऋदूदर: सोमो मृदूदरो मृदुरुदरेष्विति (N.K.T. 6/4) = Of ideal digestive system. (सुशिप्र:) सुन्दराननः। = Handsome. (मनायै ) मन्यमानायें प्रज्ञाये। = For the sake of wisdom.
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