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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - रुद्रः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उन्मा॑ ममन्द वृष॒भो म॒रुत्वा॒न्त्वक्षी॑यसा॒ वय॑सा॒ नाध॑मानम्। घृणी॑व च्छा॒याम॑र॒पा अ॑शी॒या वि॑वासेयं रु॒द्रस्य॑ सु॒म्नम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । मा॒ । म॒म॒न्द॒ । वृ॒ष॒भः । म॒रुत्वा॑न् । त्वक्षी॑यसा । वय॑सा । नाध॑मानम् । घृणि॑ऽइव । छा॒याम् । अ॒र॒पाः । अ॒शी॒य॒ । वि॒वा॒से॒य॒म् । रु॒द्रस्य॑ । सु॒म्नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उन्मा ममन्द वृषभो मरुत्वान्त्वक्षीयसा वयसा नाधमानम्। घृणीव च्छायामरपा अशीया विवासेयं रुद्रस्य सुम्नम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। मा। ममन्द। वृषभः। मरुत्वान्। त्वक्षीयसा। वयसा। नाधमानम्। घृणिऽइव। छायाम्। अरपाः। अशीय। विवासेयम्। रुद्रस्य। सुम्नम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यो वृषभो मरुत्वानरपा वैद्यस्त्वक्षीयसा वयसा नाधमानं मा उन्ममन्द तस्य सकाशादहं घृणीव छायां विवासेयम्, सुम्नमाशीय ॥६॥

    पदार्थः

    (उत्) (मा) माम् (ममन्द) मन्दते कामयते (वृषभः) सुखानां वर्षयिता (मरुत्वान्) मनुष्यादिबहुप्रजायुक्तः (त्वक्षीयता) प्रदीप्तेन (वयसा) आयुषा (नाधमानम्) (याचमानम्) (घृणीव) प्रदीप्तः सूर्य्य इव (छायाम्) गृहम्। छायेति गृहना० निघं० ३। ४ (अरपाः) अविद्यमानं रपः पापं यस्य सः (अशीय) प्राप्नुयाम्। अत्र संहितायामिति दीर्घः (आ) (विवासेयम्) परिचरेयम् (रुद्रस्य) वैद्यस्य सकाशात् (सुम्नम्) सुखम् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये वैद्या अस्माकं रोगान्निवार्य्य दीर्घायुषो जनान् कुर्वन्ति ते सूर्य्य इव प्रदीप्तकीर्त्तयो भवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (वृषभः) सुखों के वर्षानेवाले (मरुत्वान्) मनुष्य आदि बहुत प्रजाजनों से युक्त (अरपाः) अविद्यमानपाप-निष्पाप वैद्य (त्वक्षीयसा) प्रदीप्त (वयसा) आयु से (नाधमानम्) याचना किया हुआ (मा) मुझको (उत्,ममन्द) उत्तमता से चाहते हो उनकी उत्तेजना से मैं (घृणीव) सूर्य्य के समान (छायाम्) घर का (विवासेयम्) सेवन करूँ और (सुम्नम्) सुख को (आ,अशीव) अच्छे प्रकार प्राप्त करूँ ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो वैद्य हमारे रोगों का निवारण कर मनुष्यों को दीर्घ आयुवाले करते हैं, वे सूर्य्य के समान प्रकाशित कीर्त्तिवाले होते हैं ॥६॥

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    विषय

    'दीप्त व गतिमय' जीवन

    पदार्थ

    १. वह (मरुत्वान्) = प्राणोंवाला-प्राणशक्तियों को प्राप्त करानेवाला- (वृषभ:) = सब सुखों का वर्षक प्रभु (नाधमानम्) = याचना करते हुए (मा) = मुझको (त्वक्षीयसा वयसा) = दीप्त व गतिमय [त्विष्, त्वक्ष्] जीवन से (उन्ममन्द) = खूब आनन्दित करे। प्रभुकृपा से मेरी प्राणशक्ति ठीक हो इसके ठीक होने से मेरा जीवन दीप्त व गतिमय हो। यह जीवन मेरे आनन्द का कारण बने । २.(घृणी) = सूर्यसन्तापवाला पुरुष (इव) = जैसे (छायाम्) = छाया को प्राप्त करता है और ताप के सन्ताप से बचकर शान्ति प्राप्त करता है, उसी प्रकार (अरपाः) = दोषरहित-निर्दोष जीवनवाला बनकर (रुद्रस्य सुम्नम्) = उस रुद्र प्रभु के स्तोत्र को (आविवासेयम्) = सेवित करूँ। मैं प्रभु के स्तोम को सेवन करता हुआ विषयों के संताप से बचा रहूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से दी गई प्राणशक्ति मेरे जीवन को निर्दोष बनाए। मैं स्तोत्रों को अपनाकर विषयसन्ताप से बचनेवाला होऊँ ।

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    विषय

    रुद्र, दुष्ट-दमनकारी, पितावत् पालक राजा सेनापति और विद्वान् आचार्य, के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( मरुत्वान् वृषभः ) वायु से युक्त जलवर्षण करने वाला मेघ ( त्वक्षीयसा वयसा ) खूब उज्ज्वल अन्न से (नाधमानं) याचनाशील, अन्न के इच्छुक कृषक जन को ( उत् ममन्द ) खूब तृप्त कर देता है उसी प्रकार ( मरुत्वान् ) मनुष्यों का स्वामी, ( वृषभः ) श्रेष्ठ, बलवान् पुरुष ( त्वक्षीयसा ) शत्रुओं को टुकड़े टुकड़े कर देने वाले ( वयसा ) बल से ( नाधमानं ) ऐश्वर्य की कामना करने वाले ( मा ) मुझ राष्ट्र जन को (उत् ममन्द ) खूब प्रसन्न तृप्त, और हर्षित करे । (घृणीइव छायाम् ) सूर्य के आतप से सन्तप्त पुरुष जिस प्रकार छाया का सेवन करता है उसी प्रकार हे प्रभो ! हे विद्वन् ! शरणयोग्य ! दुःख दूर करने हारे ! मैं ( अरपाः ) निष्पाप होकर ( रुद्रस्य ) सब दुःखों को दूर भगाने वाले तेरी ( सुम्नं ) सुख शान्तिमय शरण को ( विवासेयम् ) सेवन करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे वैद्य रोगांचे निवारण करून माणसांना दीर्घायू करतात ते सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होऊन कीर्तिमान बनतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And the divine physician, Rudra, bold and generous, commanding the energies of the elements, restores me, poor patient in need of strength, to glowing health and energy and I, like one taking shelter in the shade from the scorching heat, feel relieved, and I pray that I may continue to enjoy Rudra’s gift of comfort and joy free from sin and disease.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again the attributes of physicians are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A pious physician (Vaidya) showers happiness and is surrounded by several people. Because of his long and enlightened period of life, he is in demand. He likes me. Under his sun-like guidance, I stay at my home ( in case of sickness ) and get fully recovered.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The Vaidyas who cure their patients nicely and thus provide them longevity, they earn reputation like the sun.

    Foot Notes

    (ममन्द ) मन्दते कामयते । = Likes. (वृषभ:) सुखानां वर्षयिता। = Showerer of happiness. (त्वक्षीयसा ) प्रदीप्तेन। = By enlightened. (घृणीव ) प्रदीप्त: सूर्य्यइव। = Like the full sun. (अरपा:) अविद्यमानं रपः पापं यस्य स:। = Pious. ( रुद्रस्य ) वैद्यस्य सकाशात्। = From the physician.

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