ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 14
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा, रोदसी
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पद्या॑ वस्ते पुरु॒रूपा॒ वपूं॑ष्यू॒र्ध्वा त॑स्थौ॒ त्र्यविं॒ रेरि॑हाणा। ऋ॒तस्य॒ सद्म॒ वि च॑रामि वि॒द्वान्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
स्वर सहित पद पाठपद्या॑ । व॒स्ते॒ । पु॒रु॒ऽरूपा॑ । वपूं॑षि । ऊ॒र्ध्वा । त॒स्थौ॒ । त्रि॒ऽअवि॑म् । रेरि॑हाणा । ऋ॒तस्य॑ । सद्म॑ । वि । च॒रा॒मि॒ । वि॒द्वान् । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पद्या वस्ते पुरुरूपा वपूंष्यूर्ध्वा तस्थौ त्र्यविं रेरिहाणा। ऋतस्य सद्म वि चरामि विद्वान्महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥
स्वर रहित पद पाठपद्या। वस्ते। पुरुऽरूपा। वपूंषि। ऊर्ध्वा। तस्थौ। त्रिऽअविम्। रेरिहाणा। ऋतस्य। सद्म। वि। चरामि। विद्वान्। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 14
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
अन्वयः
हे मनुष्या विद्वानहं यदृतस्य देवानां च महदेकं सद्मासुरत्वं विचरामि तेन नियामिता पद्या रात्रिः सर्वान् वस्ते। अन्या त्र्यविं वपूंषि रेरिहाणोर्ध्वा पुरुरूपोषा तस्थौ तं ते यूयञ्च विजानीत ॥१४॥
पदार्थः
(पद्या) पादेष्वंशेषु भवा (वस्ते) आच्छादयति (पुरुरूपा) बहुरूपा (वपूंषि) रूपाणि (ऊर्ध्वा) उत्कृष्टा (तस्थौ) तिष्ठति (त्र्यविम्) कार्य्यकारणजीवाख्यानि त्रीणि वस्तूनि यो रक्षति तम् (रेरिहाणा) भृशं लिहन्ती (ऋतस्य) सत्यस्य (सद्म) गृहम् (वि) (चरामि) (विद्वान्) (महत्) (देवानाम्) (असुरत्वम्) (एकम्) ॥१४॥
भावार्थः
हे मनुष्या यथा दिनं विचित्राणि रूपाणि दर्शयति तथैव रात्रिः सर्वाण्याच्छादयति इम एव सत्यकारणादुत्पद्यमानजन्ये विदित्वा सर्वस्य निर्मातारमीशं च सुखेन विचरन्तु ॥१४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (विद्वान्) विद्यायुक्त मैं जो (ऋतस्य) सत्य और (देवानाम्) विद्वानों में (महत्) बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (सद्म) स्थान और (असुरत्वम्) दोषों के दूर करनेवाले को (वि, चरामि) प्राप्त होता हूँ उससे नियमित (पद्या) अंशों में होनेवाली रात्रि सबको (वस्ते) आच्छादित करती घेरती है। अन्या (त्र्यविम्) कार्य्य कारण और जीव नामक तीन वस्तुओं की रक्षा करनेवाले और (वपूंषि) रूपों को (रेरिहाणा) अत्यन्त चाटती हुई (ऊर्ध्वा) उत्तम (पुरुरूपा) बहुत रूप युक्त प्रातःकाल (तस्थौ) स्थित है उसको वे और आप लोग जानें ॥१४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे दिन अनेक रूपों को दिखाता है, वैसे ही रात्रि सबको घेरती है, ये ही सत्य के कारण से उत्पन्न हुए और उत्पन्न होनेवाले को जानकर सबके बनानेवाले परमेश्वर को सुखपूर्वक जानो ॥१४॥
विषय
(पद्या) = सूर्य किरणों से प्रकाशित होने योग्य भूमि जो (पुरुरूपा) = प्रभु के बनाए इन (द्यावा) = नानारूपोंवाले (वपूंषि) = शरीरों को वस्ते धारण करती है। यहाँ स्थावर जंगम कितनी ही आकृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। उधर दूसरी ओर (त्र्यविम्) = तीनों लोकों के रक्षक सूर्य को (रेरिहाणा) = चाटतीसी हुई यह (द्यौः ऊर्ध्वा) = ऊपर (तस्थौ) = स्थित है । [२] मैं इन पृथिवी व द्युलोक को (विद्वान्) = अच्छी प्रकार समझता हुआ ऋतस्य सद्म ऋत के यज्ञ के गृह में (विचरामि) = विचरण करता हूँ। इस यज्ञ द्वारा पार्थिव पदार्थ द्युलोक में पहुँचते हैं। वहाँ द्युलोक से वर्षा होकर इस पृथ्वी पर अन्न उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह यज्ञ पृथ्वीलोक व द्युलोक के परस्पर सम्बन्ध को स्थापित करनेवाला होता है। पृथ्वी इन नानारूपों का धारण, वृष्टि के अभाव में न कर सकती । न अन्न पैदा होता, न इन प्राणियों का धारण होता । पृथ्वी के पदार्थों के यज्ञों में आहुति न पड़ने पर मेघ-निर्माण की क्रिया ही न हो पाती 'यज्ञाद् भवति पर्जन्यः'। इस प्रकार यज्ञ से परस्पर सम्बद्ध इन (देवानाम्) = पृथ्वीस्थ व द्युलोकस्थ अग्नि, सूर्य आदि देवों का (असुरत्वम्) = प्राणशक्ति-संचार का कार्य (एकम्) = अद्वितीय है और (महत्) = महान् है ।
पदार्थ
भावार्थ- पृथिवी प्राणियों का धारण करती है, द्युलोक सूर्य का आस्वाद-सा लेता प्रतीत होता है। यज्ञ इन दोनों लोकों के परस्पर सम्बद्ध होने का कारण बनता है।
विषय
सूर्य भूमि का परस्पर सम्बन्ध। मेघ की उत्पत्ति।
भावार्थ
(पद्या) पैरों से जाने योग्य या सूर्य के किरणों से प्रकाशित होने योग्य भूमि जो (पुरुरूपा) नाना रूपों के (वपूंषि) शरीरों, शरीरधारियों को (वस्ते) अपने ऊपर धारण करती है और (ऊर्ध्वा) ऊपर की दिशा आकाश (त्र्यविं) तीनों लोकों के रक्षक और प्रकाशक सूर्य का (रेरिहाणा) स्पर्श करती हुआ (तस्थौ) स्थिर रहती है तो यह सब (देवानाम्) सूर्य की किरणों का (महत् एकं) एक बड़े भारी (असुरत्वम्) जल प्रक्षेपक धर्म ही है। उसको ही में वास्तव मैं (ऋतस्य सद्म) जल, अन्न का और सत्य प्रकाशक तेज का (सद्म) परम आश्रय विद्वान् (वि चरामि) जानता हुआ प्राप्त होऊं। (२) उषापक्ष में—सूर्य की किरणों से उत्पन्न होने से पद्या है वह बहुत से देहों को आच्छादित करती, उदय होती हुई सूर्य को स्पर्श करती, चाटती, प्रेम करती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जसा दिवस अनेक रूपे दर्शवितो तशीच रात्र सर्वांना आच्छादित करते. हेच सत्य कारणापासून उत्पन्न झालेले व उत्पन्न होणारे आहे हे जाणून सर्वांना उत्पन्न करणाऱ्या परमश्ेवराला सुखपूर्वक जाणा. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The earth bears and sustains many forms of innumerable variety. The high heaven, caressing the sun, sustainer of the three regions of the earth, middle region and the region of light, stays above. Knowing this, I move freely in the house of Rtam, the cosmic order. Great is the glory and one the variety of the Lord’s omnipotent Infinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Ahoratryou ( day and night) are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! I (a learned person) move in or know that One Great God Who is the abode of Truth of enlightened men and all divine objects, and is the life-giver. Under His rule, the night (which is a part of 24 hours' time ) covers all. The other exalted one (dawn or day) stands assuming many forms, protecting the effects, causes and souls and licking various forms. You must know all these stages.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The day displays many forms, and the night covers all. They are produced by the Eternal Cause (God and Mother- Prakriti ). You should know God, Who is the creator of all and their Lord. While knowing Him, enjoy happiness everywhere.
Foot Notes
(बस्ते) आच्छादयति । = Covers. (त्र्यविम्) कार्य-कारणजीवाख्यानि त्रीणि वस्तूनि यो रक्षति तम् = Him Who protects the three the effects, causes and souls (सच) गृहम् । संद्यम् इति गृहनाम (NG 3, 4); = Above. (रेरिहाना ) मुगं लिहन्ती = Licking again and again.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal