ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 18
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा, इन्द्रः पर्जन्यात्मा त्वष्टा वाग्निश्च
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वी॒रस्य॒ नु स्वश्व्यं॑ जनासः॒ प्र नु वो॑चाम वि॒दुर॑स्य दे॒वाः। षो॒ळ्हा यु॒क्ताः पञ्च॑प॒ञ्चा व॑हन्ति म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
स्वर सहित पद पाठवी॒रस्य॑ । नु । सु॒ऽअश्व्य॑म् । ज॒ना॒सः॒ । प्र । नु । वो॒चा॒म॒ । वि॒दुः । अ॒स्य॒ । दे॒वाः । षो॒ळ्हा । यु॒क्ताः । पञ्च॑ऽपञ्च । आ । व॒ह॒न्ति॒ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वीरस्य नु स्वश्व्यं जनासः प्र नु वोचाम विदुरस्य देवाः। षोळ्हा युक्ताः पञ्चपञ्चा वहन्ति महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥
स्वर रहित पद पाठवीरस्य। नु। सुऽअश्व्यम्। जनासः। प्र। नु। वोचाम। विदुः। अस्य। देवाः। षोळ्हा। युक्ताः। पञ्चऽपञ्च। आ। वहन्ति। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 18
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरगुणानाह।
अन्वयः
हे जनासो वयमस्य वीरस्य स्वश्व्यं नु प्रवोचाम ये युक्ताः देवा देवानां महदेकमसुरत्वं विदुर्ये षोढा युक्ताः पञ्चपञ्च यदा वहन्ति तद्विदुस्तान् प्रति वयमेतद्ब्रह्म नु वोचाम ॥१८॥
पदार्थः
(वीरस्य) प्राप्तशौर्य्यादिगुणस्य (नु) सद्यः (स्वश्व्यम्) शोभनेष्वश्वेषु साधु वचः (जनासः) विद्यासु प्रादुर्भूताः (प्र) (नु) (वोचाम) उपदिशाम (विदुः) जानन्ति (अस्य) (देवाः) विद्वांसः (षोढा) षट् प्रकाराः (युक्ताः) (पञ्चपञ्च) (आ) (वहन्ति) प्राप्नुवन्ति (महत्) (देवानाम्) (असुरत्वम्) (एकम्) ॥१८॥
भावार्थः
हे मनुष्या यस्य प्राप्तौ पञ्च प्राणा निमित्तं यं सर्वे योगिनः समाधिना जानन्ति तस्यैवोपासनं भृत्यानां वीरत्वजनकमस्तीति वयमुपदिशेम ॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर के गुणों का वर्णन अगले मन्त्र में करते हैं।
पदार्थ
हे (जनासः) विद्याओं में प्रकट हुए मनुष्यो ! हम (अस्य) इस (वीरस्य) शौर्य्य आदि गुणों को प्राप्त हुए शूर को (स्वश्व्यम्) अतिउत्तम अश्वविषयक अच्छे वचन का (नु) शीघ्र (प्र, वोचाम) उपदेश देवैं जो (युक्ताः) संयुक्त हुए (देवाः) विद्वान् जन (देवानाम्) विद्वानों में (महत्) बड़े (एकम्) एक (असुरत्वम्) दोषों के दूर करने को (विदुः) जानते और जो (षोढा) छः प्रकार की संयुक्त इन्द्रियाँ और (पञ्चपञ्च) पाँच-पाँच प्राण जिस विषय को (आ, वहन्ति) प्राप्त होते हैं उसको जानते हैं, उनके प्रति हम लोग इस ब्रह्म का (नु) शीघ्र उपदेश देवें ॥१८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिसकी प्राप्ति में पाँच प्राण निमित्त और जिसको सब योगी लोग समाधि से जानते हैं, उसीकी उपासना भृत्यों के वीरपन को उत्पन्न करनेवाली है, ऐसा हम लोग उपदेश देवें ॥१८॥
विषय
वीर की स्वश्वता
पदार्थ
[१] हे (जनासः) = लोगो ! हम (नु) = अब (वीरस्य) = वीर व्यक्ति की (स्वश्व्यम्) = स्वश्वता काइन्द्रियाश्वों के उत्तम होने का (प्रवोचाम) = प्रतिपादन करें-कथन करें। उसकी (स्वश्वता) = का प्रशंसन करते हुए हम भी स्वश्व बनने के लिए यत्नशील हों (अस्य) = इसकी स्वश्वता को (देवा:) = सब देव (विदुः) = जानें अथवा प्राप्त कराएँ । [२] वस्तुत: इस शरीर-रथ में (षोढा) = इस प्रकार से (युक्ताः) = युक्त हुए-हुए 'पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा छठा मन' ये ठीक प्रकार से अपने कार्य में लगे हुए, (वहन्ति) = इस शरीर-रथ का वहन करते हैं। इसी प्रकार (पञ्च) = पाँच (पञ्च) = जो पाँच हैं- वे इस शरीर-रथ को चलाते हैं। इस शरीर-रथ में पाँच पंचक हैं। पहला पंचक है – 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश'। दूसरा है – 'प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान'। तीसरा- 'पाँच कर्मेन्द्रियाँ' । चौथा'पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ'। पाँचवा – 'मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय'। ये पाँच पंचक शरीर का वहन कर रहे हैं। इन सब की क्रियाओं में उन (देवानाम्) = सूर्यादि का (असुरत्वम्) = प्राणशक्ति-संचार का कार्य (एकम्) = विलक्षण है व (महत्) = महान् है ।
विषय
उनके नाना अद्भुत कार्य।
भावार्थ
हे (जनासः) मनुष्यो ! हम लोग (वीरस्य) शूरवीर, बलवान् पुरुष के (स्वश्व्यं) उत्तम अश्व या उत्तम अश्वारोही होने की बात का (नु) भी (प्र वोचाम) अच्छी प्रकार वर्णन करें, उसको वैसा होने का उपदेश करें। वे (पोळ्हा युक्ताः) छः छः लग कर भी (पञ्च पञ्च) पांच पांच होकर (आ वहन्ति) रथ को धारण करते हैं। (देवाः) विद्वान् लोग (अस्य) इस रहस्य को (विदुः) जानते और साक्षात् करते हैं। अध्यात्म में वह वीर ‘इन्द्र’ आत्मा है। इन्द्रियें घोड़े हैं। मन सहित वे छः हैं। परन्तु ज्ञान करने के लिये वे पांच ही प्रकार का ज्ञान करते हैं। यह सब (देवानाम् महत् एकम् असुरत्वम्) इन्द्रियों का एक बड़ा भारी प्रेरक होने का बल भी उसी इन्द्र आत्मा का है । (२) संवत्सर इन्द्र सूर्य है उसके ६ ऋतु अश्व हैं। पर हेमन्त शिशिर मिलाकर पांच हो जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्याची प्राप्ती करण्यासाठी पाच प्राण निमित्त असतात व ज्याला सर्व योगी लोक समाधीद्वारे जाणतात. त्याचीच उपासना सेवकांमध्ये शूरत्व उत्पन्न करणारी असते, असा उपदेश आम्ही केला पाहिजे. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Come ye all people, let us sing and celebrate the wondrous valour and vibrancy of this great hero, Indra, the soul. Sages and scholars know of him. Six and six, five and five horses draw his chariot, (these being five perceptive faculties and one intellect, five volitional faculties and one mind, five principal pranic energies and five subordinate pranic energies). Great is the glory and majesty of the lord of divine variety, one and only one.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned men ! we proclaim words to a hero who gives lessons in the training of horses. We also instruct the enlightened Yogis, who know the glory of that One Great God- the giver of light and life to them. Five senses of perception along with the mind and five Pranas (vital airs) when well-checked lead towards the Supreme Being. We tell about to all that Almighty.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
We tell all that the five Pranas (when well-checked through the practice of Pranayama etc.) are the methods for the attainment of God Whom the Yogis know through the Samadhi (super consciousness). It is in communion with Him that makes men heroes.
Translator's Notes
Five senses of perception are ears, eyes, skin, tongue, and nose. Five main Pranas are Pranas, Apaana, Vyana, Udana, Samana.
Foot Notes
(जनास:) विद्यासु प्रादुर्भूता:= Learned men. (षोढा ) षट् प्रकारा: (इन्द्रियाणि) = Five senses of perception and mind.
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