ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒मा॒नो राजा॒ विभृ॑तः पुरु॒त्रा शये॑ श॒यासु॒ प्रयु॑तो॒ वनानु॑। अ॒न्या व॒त्सं भर॑ति॒ क्षेति॑ मा॒ता म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒नः । राजा॑ । विऽभृ॑तः । पु॒रु॒ऽत्रा । शये॑ । श॒यासु॑ । प्रऽयु॑तः । वना॑ । अनु॑ । अ॒न्या । व॒त्सम् । भर॑ति । क्षेति॑ । मा॒ता । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समानो राजा विभृतः पुरुत्रा शये शयासु प्रयुतो वनानु। अन्या वत्सं भरति क्षेति माता महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥
स्वर रहित पद पाठसमानः। राजा। विऽभृतः। पुरुऽत्रा। शये। शयासु। प्रऽयुतः। वना। अनु। अन्या। वत्सम्। भरति। क्षेति। माता। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
अन्वयः
हे मनुष्या यत्र पुरुत्रा शयासु प्रयुतो विभृतस्समानो राजा सूर्य्यः शये शेते वना सेवतेऽन्या माता वत्सं भरति सर्वं क्षेति तद्देवानां महदेकमसुरत्वं यूयमनु विजानीत ॥४॥
पदार्थः
(समानः) एकः (राजा) प्रकाशमानः (विभृतः) विशेषेण धृतः (पुरुत्रा) पूर्वासु (शये) (शयासु) शेरते यासु विद्युदादयः पदार्थाः तासु (प्रयुतः) विभक्तः सन् मिलितः (वना) किरणान् (अनु) सद्यः (अन्या) भिन्ना त्रिगुणात्मिका प्रकृतिः (वत्सम्) महत्तत्वादिकम् (भरति) धरति (क्षेति) निवासयति (माता) जननीव (महत्) पूजनीयम् (देवानाम्) सूर्य्यादीनां विदुषां वा मध्ये (असुरत्वम्) अस्यति प्रक्षिपति दूरीकरोति सर्वाणि दुःखानि तस्य भावम् (एकम्) अद्वितीयम् ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या येन प्रकाशिताः सूर्य्यादयः प्रकाशन्ते योऽव्यक्ते सर्वमुत्पाद्य धृत्वा मातृवद्रक्षति यदाप्तानां विदुषां सत्कर्त्तव्यमस्ति तद्ब्रह्म यूयमुपाध्वम् ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिन (पुरुत्रा) प्राचीन काल से प्रसिद्ध (शयासु) शयन करें जिनमें बिजुली आदि पदार्थ उनमें (प्रयुतः) विभक्त हुआ फिर मिल गया (विभृतः) विशेष करके धारण किया गया (समानः) एक (राजा) प्रकाशमान सूर्य्य (शये) शयन करता है (वना) किरणों को सेवन करता है (अन्या) भिन्न त्रिगुण स्वरूप प्रकृति (माता) माता (वत्सम्) पुत्र को धारण करती है और सबको (क्षेति) वसाती है वह (देवानाम्) सूर्य्यादिक वा विद्वानों के मध्य में (महत्) सत्कार करने योग्य (एकम्) द्वितीय रहित (असुरत्वम्) दूर करता है दुःखों को जो उसका होना उसको आप लोग (अनु) शीघ्र जानिये ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस करके प्रकाशित हुए सूर्य्य आदि प्रकाशित होते हैं, जो अव्यक्त अर्थात् प्रकृति में सबको उत्पन्न करके तथा धारण करके माता के सदृश रक्षा करता है और जो यथार्थवक्ता विद्वानों करके सत्कार करने योग्य है, उस ब्रह्म की आप लोग उपासना करो ॥४॥
विषय
'प्रसुप्त व जागरित' प्रभु
पदार्थ
[१] (समानः) = [सम्यक् आनयति] सबको प्राणित करनेवाला, (राजा) = दीप्त, (विभृतः) = [विशिष्टं भृतं यस्य] सबका विशिष्ट रूप से भरण करनेवाला, (पुरुत्रा) = अनेक स्थानों में (शयासु) = निवास करनेवाली प्रजाओं में (शये) = निवास करता है। (वना अनु) = [वन संभक्तौ] उपासनाओं के अनुसार (प्रयुतः) = यह प्रकर्षेण युक्त होता है। सामान्यतः सर्वव्यापकता के नाते प्रभु सब प्रजाओं में हैं ही। पर मानो वे सुप्त अवस्था में हों। 'शये' शब्द इसी भाव को व्यक्त कर रहा है। पर जो प्रजाएँ जागरित होकर उपासना में प्रवृत्त होती हैं, उनमें यह प्रभु प्रकर्षेण युक्त होते हैं। प्रभु की सत्ता उनमें जागरित हो उठती है। [२] प्रभु के बनाए हुए इन द्यावापृथिवी में (अन्या) = यह एक द्युलोक तो (वत्सम्) = जीवरूप वत्स [सन्तान] को (भरति) = वृष्टि द्वारा अन्न पैदा करके पोषित करता है। (माता) = यह भूमि माता (क्षेति) = इस वत्स को निवास देती है। इस प्रकार प्रभु के बनाए हुए इन सूर्यादि देवों का प्राणशक्ति संचार का कार्य विलक्षण व महान् है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सर्वत्र वर्तमान हैं- उपासक उसकी सत्ता को अनुभव करते हैं। प्रभु के बनाए ये द्यावापृथिवी जीवरूप सन्तानों का भरण-पोषण करते हैं ।
विषय
तेजस्वी पुरुष का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार (राजा) प्रकाशमान् सूर्य सर्वत्र (समानः) समान भाव से प्रकाशित होने वाला, (शयासु) अव्यक्त रूप में व्यापक दिशा में (शये) व्यापता है। (वना अनुप्रयुतः) किरणों के अनुसार सब दिशाओं में फैलता, विभक्त होता, आकाश और भूमि दोनों में से एक (द्यौः) माता के समान उसको (भरति) अपनी कोख में धारण करती (क्षेति) एक उसके साथ रहती है अर्थात् प्रकाश लेती है। वह सब (देवानां) तेजस्वी पिण्डों के बीच एक अद्वितीय बड़ा भारी अन्धकार को दूर करने वाला बल है और जिस प्रकार अग्नि प्रकाशमान्, नाना पदार्थों में विद्यमान शान्त जलादि पदार्थों में अप्रकट रूप से मानो सोता सा है, (वना अनु प्रयुतः) काष्ठों में विशेष रूप से प्रकट होता, उसको एक द्यौ या सूर्य धारण करता, माता पृथिवी उसको अपने भीतर रखती, इसी प्रकार (राजा) राजा, सबमें तेजस्वी और प्रजा को अनुरंजन करने वाला, (समानः) समस्त प्रजाओं में सबके प्रति एक समान व्यवहार करने हारा, मान आदर और ज्ञानसम्पन्न (पुरुत्रा) नाना प्रजाओं के बीच (विभृतः) विविध प्रकार से धारण किया जाता है। वह (शयासु) सोती हुई पत्नियों में पति के तुल्य ही (शयासु) प्रसुप्त या शान्तभाव से विद्यमान प्रजाओं के बीच में (शये) स्वयं भी प्रसुप्त या शान्तभाव से रहे। और वह (वना अनु) ऐश्वर्यों के अनुसार बन के तुल्य विभक्त सैन्य-दलों के ऊपर नायक रूप में (प्रयुतः) सर्वोपरि नियुक्त हो। उसके नीचे दो सभाएं हों जिनमें से (अन्या) एक उस (वत्सं) वन्दना करने योग्य, पूज्य सभापति को (वत्सं) बालक को माता बछड़े को गाय के समान (भरति) पुष्ट करती है। दूसरी (माता) प्रजाजन सभा वा भूवासिनी प्रजा उसको (क्षेति) बसाती है। वह (देवानां) तेजस्वी राजाओं वा वीरों के बीच में (एकं महद् असुरत्वम्) एक बड़ी भारी शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाली सत्ता है। अथवा—वह राजा ही (अन्या) अन्य विमाता के समान भी प्रजा को पुत्र के समान (भरति-हरति) पोषण भी कर सकता है वा लूट भी सकता है, और वही (माता) असली माता के समान प्रजा रूप पुत्र को (क्षेति) वसा भी सकता है। (२) परमात्मपक्ष में—परमेश्वर, सज्ञान वा सर्वत्र समान भाव से व्यापक, जीवों में भी व्यापक, शया अर्थात् प्रसुप्त अव्यक्त प्रकृति विकारों में भी अव्यक्त रूप से व्यापक होकर (वना अनु) नाना ऐश्वर्य विभूतियों में भिन्न रूप से प्रकट होता है। उस (वत्सं) व्यापक को चित्प्रकृति भी धारण करती है और (माता) जगदुत्पादक प्रकृति उसके साथ निवास करती है। वह परमेश्वर सब देवों, जीवों के बीच सबसे बड़ा एक अद्वितीय, जीवनप्रद, प्राणों का प्राण, सर्वसंहारक परम तत्व है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्याच्यामुळे सूर्य प्रकाशित होतो. जो अव्यक्त अर्थात प्रकृतीमध्ये सर्वांना उत्पन्न करून धारण करतो व मातेप्रमाणे रक्षण करते व यथार्थवक्त्या विद्वानाकडून सत्कार करण्यायोग्य असतो, त्या ब्रह्माची तुम्ही उपासना करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
One self-refulgent ruler, constant and unvariable spirit and presence pervades the inexhaustible forms of Prakrti, dormant in inert matters and energies, and moving and extending with waves and currents of water, light and other energy forms to the sunrays and green forests. One mother Prakrti, bears the individual form such as the baby, the other, Divine Spirit, rules and sustains it. Great and glorious is the one living, breathing, omnipresent and omnipotent spirit of the inexhaustible variations of nature’s divinities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More light about Agni (learned person) is thrown.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The universal sovereign (Sun) is resplendent but present (lit. sleeping) with its rays among all things, including the electricity and other objects jointed and then separated. And it makes use of the rays. The matter (PRAKRITI) consisting of the blend of three Gunas (attributes) upholds the Mahattatva (Great Principle) which is like its Child. It gives habitation to all. You must acquire the knowledge of that One God who removes the miseries of all learned persons and also uses light of all luminaries and enlightened persons. You must know Him well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should adore that One God alone, Who is the illuminator of all luminaries like the Sun, Who creates all through the Matter and Who protects them like a mother and Who is the object of adoration by all enlightened persons.
Foot Notes
(वना) किरणान् । वनम् इति रश्मिनाम (NG 1, 5) = Rays. (वत्मम् ) महत्तत्वादिकम् । = The Great Principle like a child of the Mother. (अन्य ) भिन्ना विगुणात्मिका प्रकृतिः = The Primordial Matter which is separate or distinct from God being eternal. (अमुरत्वम् ) अस्यति प्रक्षिपति दूरीकरोति सर्वाणि दुःखानि तस्य भावम् = Remover of all miseries.
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