ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 22
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा, इन्द्रः पर्जन्यात्मा त्वष्टा वाग्निश्च
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नि॒ष्षिध्व॑रीस्त॒ ओष॑धीरु॒तापो॑ र॒यिं त॑ इन्द्र पृथि॒वी बि॑भर्ति। सखा॑यस्ते वाम॒भाजः॑ स्याम म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
स्वर सहित पद पाठनिः॒ऽसिध्व॑रीः । ते॒ । ओष॑धीः । उ॒त । आपः॑ । र॒यिम् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । पृ॒थि॒वी । बि॒भ॒र्ति॒ । सखा॑यः । ते॒ । वा॒म॒ऽभाजः॑ । स्या॒म॒ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
निष्षिध्वरीस्त ओषधीरुतापो रयिं त इन्द्र पृथिवी बिभर्ति। सखायस्ते वामभाजः स्याम महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥
स्वर रहित पद पाठनिःऽसिध्वरीः। ते। ओषधीः। उत। आपः। रयिम्। ते। इन्द्र। पृथिवी। बिभर्ति। सखायः। ते। वामऽभाजः। स्याम। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 22
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र यथा ते सृष्टौ पृथिवी निष्षिध्वरी ओषधीर्बिभर्त्ति। उतापि त आपो रयिं बिभर्त्ति तदेव देवानाम्महदेकमसुरत्वं प्राप्य ते वामभाजः सखायो वयं स्याम ॥२२॥
पदार्थः
(निष्षिध्वरीः) नितरां मङ्गलकारिणीः (ते) तव (ओषधीः) सोमाद्याः (उत) अपि (आपः) जलानि (रयिम्) (श्रियम्) (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रदेश्वर (पृथिवी) (बिभर्त्ति) धरति पुष्यति वा (सखायः) सुहृदः सन्तः (ते) तव (वामभाजः) प्रशस्तकर्मसेविनश्श्रेष्ठभोगा वा (स्याम) (महत्) सर्वेभ्यो बृहत् (देवानाम्) सूर्य्यादीनाम् (असुरत्वम्) (एकम्) अद्वितीयम् ॥२२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे जगदीश्वर येन भवताऽस्माकं सुखाय सृष्ट्यां विविधा ओषधय आपो निर्मितास्तस्य ते वयमुपासका भवेम। भवन्तं विहायाऽन्यस्योपासनं कदाचिन्न कुर्य्यामेति ॥२२॥ अत्राऽहर्निशविद्वद्द्यावापृथिवी राजधर्मेश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यृक्संहितायां तृतीयाष्टके तृतीयोऽध्याय एकत्रिंशो वर्गस्तृतीये मण्डले पञ्चपञ्चाशत्तमं सूक्तञ्च समाप्तम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के देनेवाले ईश्वर जैसे (ते) आपकी सृष्टि में (पृथिवी) भूमि (निष्षिध्वरीः) अत्यन्त मङ्गल करनेवाली (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधियों को (बिभर्त्ति) धारण वा पोषण करती है। (उत) और (ते) आपके (आपः) जल (रयिम्) लक्ष्मी को धारण करते हैं उसी (देवानाम्) सूर्य्य आदिकों में (महत्) सबसे बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) शत्रुओं के नाश करनेवाले को प्राप्त होकर (ते) आपके (वामभाजः) उत्तम कर्मों के सेवन करने वा श्रेष्ठ भोग भोगनेवाले (सखायः) मित्र हम लोग (स्याम) होवें ॥२२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे जगदीश्वर ! जिन आपने हम लोगों के सुख के लिये सृष्टि में अनेक प्रकार की ओषधियाँ और जल रचे, उन आपके हम लोग उपासना करनेवाले होवें और आपको छोड़ के दूसरे की उपासना कभी न करें ॥२२॥ इस सूक्त में दिन, रात्रि, विद्वान्, अन्तरिक्ष, पृथिवी, राजधर्म और ईश्वर के गुणवर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के संगति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेद की संहिता के तीसरे अष्टक में तीसरा अध्याय इकतीसवाँ वर्ग और तीसरे मण्डल में पचपनवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
विषय
ओषधि व जल
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते) = आपका ये (ओषधी:) = ओषधियाँ (उत) = और (आपः) = जल (निः षिध्वरी:) = निश्चय से रोगों का निषेध व निराकरण करनेवाली हैं। हे परमात्मन् ! (ते) = आपकी यह (पृथिवी) = भूमि माता रयिं बिभर्ति हमारे लिए सब धनों का व रयि शक्ति का पोषण करती है। इस पृथिवी से उत्पन्न वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करते हुए व जलों का प्रयोग करते हुए हम स्वस्थ रहते हैं। यह पृथिवी अन्य भी आवश्यक धनों को हमारे लिए अवश्य प्राप्त कराती है। [२] हे प्रभो ! हम (ते सखायः) = आपके मित्र बनें-आपकी ओर हमारा झुकाव हो-हम प्रकृति में आसक्त न हो जाएँ। तथा (वामभाजः) = सब रमणीय वसुओं के भागी बनें। प्रकृति के विषयों में आसक्ति ही हमें निम्न मार्ग की ओर ले जाती है और हमारे कष्टों का कारण बनती है। आपका उपासन करते हुए हम अनुभव करें कि (देवानाम्) = आपके बनाए इन सूर्यादि देवों का (असुरत्वम्) = प्राणशक्ति-संचार का कार्य (एकम्) = अद्वितीय है व (महत्) = महान् है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ओषधि व जलों का सेवन करते हुए सदा स्वस्थ रहें। पृथिवी हमारे लिए सब आवश्यक धनों को प्राप्त करानेवाली हो । प्रभु के मित्र बनकर हम सदा सुन्दर वसुओं के भागी हों। सूक्त का विषय ही है कि प्रभु का बनाया संसार सदा हमारा हित करनेवाला है। हम प्रभु के सम्पर्क में रहकर इस संसार के प्रत्येक पदार्थ से कल्याण प्राप्त करें। अगले सूक्त का भी यही विषय है -
विषय
उनके नाना अद्भुत कार्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! (पृथिवी) यह पृथिवी (निः षिध्वरी) रोगों को दूर करने और सुख मङ्गल करने वाली (ओषधीः) ओषधियों को (विभर्त्ति) पालती पोपती है। (उत) और (आपः) जलधाराएं भी (ते) तेरे (रयिम्) ऐश्वर्य को धारण करती हैं। (देवानाम्) देव, पृथिवी आदि के बीच तेरा यह (एकम् महत् ऐश्वर्यम्) एक बड़ा भारी ऐश्वर्य है। हम (ते सखायः) तेरे मित्र तेरे (वामभाजः) उत्तम कर्म और ऐश्वर्यादि गुणों को धारण करने वाले (स्याम) हों। (२) राजा के पक्ष में—पृथिवी और आप्तजन राजा के ऐश्वर्यों और शत्रुतापदायक सेनाओं को धारण करें। इत्येकत्रिंशो वर्गः। इति तृतीयोऽध्यायः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे जगदीश्वरा! तू आमच्या सुखासाठी सृष्टीत अनेक प्रकारची औषधी व जल निर्माण केलेले आहेस. त्यासाठी आम्ही तुझी उपासना करणारे व्हावे. त्यासाठी तुझी उपासना सोडून दुसऱ्या कुणाची उपासना कधी करू नये. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of honour and excellence, auspicious and generous is the world of your creation, soothing are the herbs, energising the waters, wondrous the wealth earth bears and sustains. O lord of beauty and majesty, let us be friends with you, sharers of your honour and excellence. Great is the glory, one the spirit, and absolute the power and spirit of your divine manifestations. Let us be one with glory and divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of Agni is further elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God! in Your creation, the earth grows herbs and plants like Soma which are beneficent to all. Waters created by you, bring strength and health to our bodies. May we, your friends, share these blessings, being always engaged in and doing admirable and noble deeds. We bear in mind the great might of the One Supreme Being, Who is the Illuminator of the sun and other shining objects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O God! may we always be devoted to You and have communion with You Who have created in this world, various kinds of herbs, plants, water and other things for our happiness. May we never worship anyone else, except You.
Foot Notes
(निष्षिध्वरी:) नितरां मङ्गलकारिणी: = Auspicious, beneficent. (वामभाज:) प्रशस्तकर्मंसेविनश्श्रेष्ठभोगा वा । (वामभाज:) वाम इति प्रशस्यनाम (NG. 3, 8 ) (रयिम् ) वीर्य वं रयिः (Stph. 133, 4, 2, 13) पुष्टं वै रयिः (Stph. 2, 3, 4, 13).= Who perform admirable or noble deeds or having good enjoyments.
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