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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा, अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श॒युः प॒रस्ता॒दध॒ नु द्वि॑मा॒ताऽब॑न्ध॒नश्च॑रति व॒त्स एकः॑। मि॒त्रस्य॒ ता वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒युः । प॒रस्ता॑त् । अध॑ । नु । द्विऽमा॒ता । अ॒ब॒न्ध॒नः । च॒र॒ति॒ । व॒त्सः । एकः॑ । मि॒त्रस्य॑ । ता । वरु॑णस्य । व्र॒तानि॑ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शयुः परस्तादध नु द्विमाताऽबन्धनश्चरति वत्स एकः। मित्रस्य ता वरुणस्य व्रतानि महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शयुः। परस्तात्। अध। नु। द्विऽमाता। अबन्धनः। चरति। वत्सः। एकः। मित्रस्य। ता। वरुणस्य। व्रतानि। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    अन्वयः

    हे मनुष्या यः परस्ताच्छयुर्द्विमाताऽबन्धनो वत्स इवैको नु चरत्यध यद्देवानान्महदेकमसुरत्वं चरति ता व्रतानि मित्रस्य वरुणस्य परमात्मनः सन्तीति वेद्यम् ॥६॥

    पदार्थः

    (शयुः) योऽभिव्याप्य शेते (परस्तात्) परस्मिन् देशे (अध) अथ (नु) (द्विमाता) द्वे वाय्वाकाशौ मातरौ यस्याऽग्नेः सः (अबन्धनः) यो बध्नाति तद्भिन्नः (चरति) गच्छति (वत्सः) पुत्रइव वर्त्तमानः (एकः) असहायः (मित्रस्य) सृहृदः (ता) तानि (वरुणस्य) सर्वोत्तमस्य जगत्प्रबन्धकस्य (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि कर्माणि। व्रतमिति कर्मना०। निघं० २। १। (महत्) (देवानाम्) विदुषाम् (असुरत्वम्) प्रक्षेप्तृत्वम् (एकम्) असहायं तेजः ॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यत्किञ्चिदत्र जगति सूर्य्यादि वस्तु या अत्र विविधा रचनाः सन्ति यच्च विचित्ररूपं स्वादादिकं वर्त्तते सर्वे स्वस्वपरिधौ भ्रमन्ति प्रलयात्प्राक् न विनश्यन्ति तानीमानि परमात्मनः कर्माणि सन्तीति वेदितव्यम् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (परस्तात्) दूसरे देश में (शयुः) व्याप्त होकर शयन करनेवाला (द्विमाता) दो वायु और आकाश माता हैं जिस अग्नि के वह (अबन्धनः) जो बन्धनरहित वह (वत्सः) पुत्र के सदृश वर्त्तमान (एकः) सहायरहित (नु, चरति) शीघ्र चलता है (अध) इसके अनन्तर जो (देवानाम्) विद्वानों का (महत्) बड़ा (एकम्) सहायरहित तेज (असुरत्वम्) फेंकनापन (ता) वे (व्रतानि) सत्यभाषण आदि कर्म (मित्रस्य) मित्र और (वरुणस्य) सबमें उत्तम और संसार के प्रबन्ध करनेवाले परमात्मा के हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो कुछ इस संसार में सूर्य्य आदि वस्तु और जो इस संसार में अनेक प्रकार की रचना हैं और जो विचित्ररूप स्वाद आदि वर्त्तमान है और सब अपने-अपने मण्डल में घूमते हैं, प्रलय से प्रथम नहीं नष्ट होते हैं, वे ये परमात्मा के कर्म हैं, यह जानना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    'तदु सर्वस्य अस्य बाह्यतः'

    पदार्थ

    [१] वह प्रभु गतमन्त्र के अनुसार 'आक्षित्' हैं, ब्रह्माण्ड के सारे पदार्थों में हैं, परन्तु (परस्तात्) = इस ब्रह्माण्ड से परे भी (शयुः) = वे निवास करते हैं 'एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायाँश्च पूरुष: ' 'अत्यतिष्ठद् दशांगुलम्' । (अध) = अब (नु) = निश्चय से (द्विमाता) = वे प्रभु द्यावापृथिवी दोनों के-निर्माता हैं, अथवा चराचर का निर्माण करनेवाले हैं। वे (एक:) = अद्वितीय (अबन्धन:) = सबका भरण करते हुए भी इसमें न फँसे हुए 'असक्तं सर्वभृच्चैव' (वत्सः) = वेदज्ञान का उच्चारण करनेवाले प्रभु (चरति) = सर्वत्र गति कर रहे हैं । [२] (ता) = वे सब दृश्यमान सूर्यादि पिण्डों के (व्रतानि) = निर्माणरूप कार्य उस (मित्रस्य) = सबके प्रति स्नेह करनेवाले (वरुणस्य) = पाप से रोकनेवाले प्रभु के हैं। प्रभु ने ही इन सबको बनाया है। प्रभु ही वस्तुत: सूर्यादि द्वारा दीप्ति दे रहे हैं। सूर्यादि सब पिण्डों में प्रभु की ही शक्ति काम कर रही है। इन सूर्यादि देवों का प्राणशक्ति संचार का कार्य अद्भुत व महान् है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ब्रह्माण्ड से परे भी हैं। सबका धारण करते हुए भी असक्त हैं। सूर्यादि द्वारा प्रभु ही दीप्ति दे रहे हैं ।

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    विषय

    राजा की दो सभाएं।

    भावार्थ

    राजा के पक्ष में—राजा (द्विमाता) राजसभा और प्रजासभा दोनों को मातृवत् उत्पादक रखकर (परस्तात्) परे, दूर देश में भी (द्विमाता वत्सः एकः) दो माता पिता के बीच एक बच्चे के समान बिना प्रतिबन्ध के विचरे। अथवा ‘द्विमाता’ एक ज्ञान कराने वाली माता राजसभा दूसरी शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाली सेना दोनों का स्वामी अथवा स्वराष्ट्र परराष्ट्र, मित्र शत्रु दोनों का मापने वाला, दोनों को अपने वश करने वाला राजा दूर देश में भी (शत्रुः) सुखपूर्वक शयन करता हुआ निर्बन्ध होकर विचर सकता है। (मित्रस्य वरुणस्य) सब प्रजा के मित्र, प्रजा को मरण से बचाने वाले सर्वश्रेष्ठ, सर्वशत्रुवारक, सबसे प्रेमपूर्वक वरण करने योग्य पुरुष के (ता व्रतानि) वे नाना कर्म वह सब (देवानाम् एकम् महत् असुरत्वम्) विजयकामी, वीरों का एक अद्वितीय शत्रुच्छेदक बल है। (२) परमेश्वर पक्ष में—(परस्तात्) हमारे ज्ञानेन्द्रियों वा मन वाणी से परे अव्यक्त रूप में विद्यमान है। प्रकृति और जीव दोनों का जानने वा माता के समान अपने गर्भ में रख कर उनको प्रकट करने हारा है। वह स्वयं (अबन्धनः) बन्धनरहित है। (वत्सः) स्तुति, अभिवादन करने योग्य, परमपूज्य होकर (एकः) अद्वितीय व्याप रहा है। उस सर्वस्नेही, सर्वश्रेष्ठ के नाना अद्भुत कर्म हैं। वह परमेश्वर अद्वितीय, महान् सञ्चालक बल वाला है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! या जगात सूर्य इत्यादी वस्तू व अनेक प्रकारची रचना आहे तसेच विविध रूप, स्वाद इत्यादी आहेत ते सर्व आपापल्या मंडलात फिरतात व प्रलयापूर्वी नष्ट होत नाहीत. हे परमात्म्याचे कर्म आहे, हे जाणावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, vital heat of life, pervades far and farthest, dormant or manifest, child of two mothers, akasha and vayu, space and cosmic energy, moving and operating freely without bonds, by itself, All this is within the laws of the one supreme lord, universal friend and controller of the universe. Great and glorious is the life and action of the living forces of nature, one and indivisible.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of Agni further proceeds.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the Agni (sun) has two mothers (origins) in the form of air and either (Akasha). It exists in distant and moves like a Child without any limitation. It follows the great might of the divine powers. These all are the great deeds, like truth etc., of God, Who is the friend of all and directs the world in the best way. This fact all of you should keep in mind.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! what ever objects are in the world, like the sun and other luminaries and whatever is the manifold creation, it does not perish altogether before dissolution. All these are the great acts of God-the Supreme Being.

    Foot Notes

    (द्विमाता) द्वे वाय्वाकाशौ मातरो यस्याग्नेः स: = Sun which has two mothers in the form of air (Vayu) and sky (Akasha). (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि कर्माणि । व्रतमिति कर्मनाम (NG 2, 1) = Truth and other acts. The first two lines may also mean that God is present every where. He is beyond the perception of the senses, mind and speech. He is the knower of the souls and matter and the creator of the heaven and earth. He is free from all limitations.

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