ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 8
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शूर॑स्येव॒ युध्य॑तो अन्त॒मस्य॑ प्रती॒चीनं॑ ददृशे॒ विश्व॑मा॒यत्। अ॒न्तर्म॒तिश्च॑रति नि॒ष्षिधं॒ गोर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
स्वर सहित पद पाठशूर॑स्यऽइव । युध्य॑तः । अ॒न्त॒मस्य॑ । प्र॒ती॒चीन॑म् । द॒दृ॒शे॒ । विश्व॑म् । आ॒ऽयत् । अ॒न्तः । म॒तिः । च॒र॒ति॒ । निः॒ऽसिध॑म् । गोः । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शूरस्येव युध्यतो अन्तमस्य प्रतीचीनं ददृशे विश्वमायत्। अन्तर्मतिश्चरति निष्षिधं गोर्महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥
स्वर रहित पद पाठशूरस्यऽइव। युध्यतः। अन्तमस्य। प्रतीचीनम्। ददृशे। विश्वम्। आऽयत्। अन्तः। मतिः। चरति। निःऽसिधम्। गोः। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
अन्वयः
हे मनुष्या अन्तमस्य युध्यतः शूरस्येव यत्र प्रतीचीनमायद्विश्वमन्तर्ददृशे गोर्महन्निष्षिधं देवानामेकमसुरत्वं मतिश्चरति तदेव ब्रह्म यूयं विजानीत ॥८॥
पदार्थः
(शूरस्येव) यथा शत्रून् हिंसतः (युध्यतः) प्रहरतः। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (अन्तमस्य) समीपस्थस्य (प्रतीचीनम्) पश्चाद्भूतम् (ददृशे) दृश्यते (विश्वम्) सर्वञ्जगत् (आयत्) प्राप्नुवत् (अन्तः) मध्ये (मतिः) मेधावी। मतय इति मेधाविना०। निघं० ३। १५। (चरति) गच्छति (निष्षिधम्) यन्नितरां सेधति शास्ति तत् (गोः) वाण्याः (महत्) (देवानाम्) (असुरत्वम्) (एकम्) ॥८॥
भावार्थः
हे मनुष्या यथा युध्यमानस्य समीपस्थस्य शूरस्य समीपे कातरो जनस्तिरस्कृतवद् दृश्यते तथैव सर्वशक्तिमतोऽनन्तस्य परमात्मनस्सन्निधौ सूर्य्यादिकं जगत् क्षुद्रं तिरस्कृतं वर्त्तते यो जगदीश्वरो विद्याकोशं वेदचतुष्टयं वाण्याऽऽभूषणं शास्ति तदेवेष्टं यूयं मन्यध्वम् ॥८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (अन्तमस्य) समीप में वर्त्तमान (युध्यतः) प्रहार करते हुए (शूरस्येव) शत्रुओं के मारनेवाले के सदृश जहाँ (प्रतीचीनम्) पीछे से हुए (आयत्) प्राप्त होते हुए (विश्वम्) संपूर्ण संसार (अन्तः) मध्य में (ददृशे) देख पड़ता है और (गोः) वाणी का (महत्) बड़ा (निष्षिधम्) अत्यन्त शासन करनेवाला (देवानाम्) विद्वानों में (एकम्) सहायरहित (असुरत्वम्) प्राणों में रमनेवाला (मतिः) बुद्धिमान् (चरति) प्राप्त होता है, उसही को ब्रह्म आप लोग जानें ॥८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे युद्ध करते हुए समीप में वर्त्तमान और शत्रु के नाशक वीरपुरुष के समीप में कायर मनुष्य तिरस्कृत हुए पुरुष के सदृश देखा जाता है, वैसे ही सम्पूर्ण शक्तिवाले अनन्त परमात्मा के समीप में सूर्य्य आदिक जगत् क्षुद्र और तिरस्कृत है और जो जगदीश्वर विद्या के खजाने रूप चारों वेदों वाणी के आभूषण हुओं का शासन करता है, उस ही को इष्ट आप लोग मानो ॥८॥
विषय
'प्रभुभक्त' एक शूर योद्धा के रूप में
पदार्थ
[१] गतमन्त्र में वर्णित (अन्तमस्य) = प्रभु के अन्तिकतम, अतएव (शूरस्य इव) = एक शूरवीर के समान (युध्यतः) = वासनाओं से युद्ध करते हुए इस भक्त के प्रति (आयत्) = आक्रमण के लिए (आयत्) = प्राप्त हुआ (विश्वम्) = सब आसुरभाव (प्रतीचीनम्) = पराङ्मुख होकर लौटता हुआ ही (ददृशे) = दिखता है। प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर यह भक्त सब आसुरभावों के आक्रमणों को विफल कर देता है। वस्तुतः इसके हृदय में स्थित प्रभु ही इसके उन शत्रुओं का संहार करते हैं । [२] यह (मतिः) = मननशील उपासक (गो:) = इस वेदवाणी की (निष्षिधम्) = सब पापों की हिंसिका दीप्ति को (अन्तः चरति) = अपने अन्दर ग्रहण करता है [धारयति सा०] प्रभु की उपासना से वासनाएँ विनष्ट होती हैं और हृदय की पवित्रता होने पर अन्तः प्रकाश दीप्त हो उठता है। उस समय सब सूर्यादि देव इसके अनुकूल होते हैं और यह अनुभव करता है कि इन सूर्यादि देवों का प्राणशक्तिसंचार का कार्य अद्भुत व महान् है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुभक्त शूरवीर योद्धा के समान वासनाओं को पराजित करता है और अन्तर्ज्योति से दीप्त हो उठता है।
विषय
द्विमाता का रहस्य।
भावार्थ
(अन्तमस्य शूरस्य इव युध्यतः) अति समीपस्थ युद्ध करते हुए शूरवीर पुरुष के जिस प्रकार (विश्वम् आयत् प्रतीचीनं ददृशे) जो कोई भी आता है वह उससे पराजित होकर पराङ्-मुख चला जाता है उसी प्रकार (अन्तमस्य) सर्वत्र व्यापक परमेश्वर के (अन्तः) भीतर ही यह समस्त (विश्वम्) विश्व (आयत्) आता और (प्रतीचीनं दृश्यते) उसके पीछे उत्पन्न हुआ दिखाई देता है। वह परमेश्वर (मतिः) ज्ञान-स्वरूप, सबका ज्ञाता, मेधावी होकर (चरति) सर्वत्र व्यापता है। वह (देवानाम्) देवों, पृथिव्यादि लोकों, विद्वानों के बीच (एकम्) एकमात्र अद्वितीय, (महत्) सबसे बड़ा (गोः निष्षिधम्) वेद वाणी का निर्गमस्थान, निकास, गतिमान् संसार का प्रभव और बड़ा भारी (असुरत्वम्) जीवन शक्ति देने वाला तत्व है। (२) राजा (मतिः) मननशील होकर (गोः अन्तः) पृथिवी या राष्ट्र के भीतर सब दुःखों को तोड़ने के अधिकार का भोग करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जशी शत्रूंचा नाश करणाऱ्या वीर पुरुषाजवळ युद्धात समीप असणारी कायर माणसे तिरस्कृत होतात, तसेच संपूर्ण शक्तियुक्त अनंत परमात्म्याजवळ सूर्य इत्यादी जग क्षुद्र व तिरस्कृत असते. जो जगदीश्वर विद्येचा कोश असलेल्या चार वेदवाणीचे आभूषण बाळगणाऱ्यांना नियंत्रित करतो, त्यालाच तुम्ही इष्टदेव माना. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
All that comes into the light of the brave refulgent sun ever on the move and striking everything at the closest and farthest seems on the left side of the light, inferior. Source of light and intelligence for the world, it moves through and across the objects in the womb of cosmic space. Great and glorious is the life and vital power of the divinities of nature, one and only one.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties and attributes of Agni are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! a coward stands inferior as to a brave person destroying his enemies, so the immense and vast world, is insignificant in comparison to that Great life of all divine objects and enlightened persons. A wise man always takes shelter under (lit. move in) One great teacher (through the Vedas).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as a coward looks humiliated and insignificant before a brave warrior, in the same manner, in comparison with Omnipotent and Infinite, God, this sun and other objects of the world are insignificant. You should believe in that One Adorable God Who reveals the four Vedas which is the store house and fountainhead of all knowledge.
Foot Notes
(मतिः) मेधावी । मतय इति मेधाविनाम (NG 3, 15 ) (निष्षिधम् ) यन्नितरां सेधति शास्ति तत् | = God who instructs all (through the Vedic Revelation).
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