ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा, अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मो षू णो॒ अत्र॑ जुहुरन्त दे॒वा मा पूर्वे॑ अग्ने पि॒तरः॑ पद॒ज्ञाः। पु॒रा॒ण्योः सद्म॑नोः के॒तुर॒न्तर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । सु । नः॒ । अत्र॑ । जु॒हु॒र॒न्त॒ । दे॒वाः । मा । पूर्वे॑ । अ॒ग्ने॒ । पि॒तरः॑ । प॒द॒ऽज्ञाः । पु॒रा॒ण्योः । सद्म॑नोः । के॒तुः । अ॒न्तः । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षू णो अत्र जुहुरन्त देवा मा पूर्वे अग्ने पितरः पदज्ञाः। पुराण्योः सद्मनोः केतुरन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥
स्वर रहित पद पाठमो इति। सु। नः। अत्र। जुहुरन्त। देवाः। मा। पूर्वे। अग्ने। पितरः। पदऽज्ञाः। पुराण्योः। सद्मनोः। केतुः। अन्तः। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
अन्वयः
हे अग्ने यत्पुराण्योः सद्मनोर्देवानामन्तः केतुर्महदेकमसुरत्वमस्त्यत्र नो अस्मान् पदज्ञाः पूर्वे पितरो मो जुहुरन्त देवा अत्रास्मान् मा सु जुहुरन्तैवं त्वमप्येतद्विज्ञाय त्वामेते मा जुहुरन्त ॥२॥
पदार्थः
(मो) निषेधे (सु) (नः) अस्मान् (अत्र) अस्मिन् ब्रह्मणि विज्ञानव्यवहारे वा (जुहुरन्त) प्रसहन्ताम् (देवाः) विद्वांसः (मा) निषेधे (पूर्वे) प्रथमजाः (अग्ने) विद्वन् (पितरः) विज्ञानवन्तः (पदज्ञाः) ये पदं प्राप्तव्यं जानन्ति ते (पुराण्योः) सनातन्योर्विद्युदाकाशरूपयोः प्रकृत्योः (सद्मनोः) सर्वेषां निवासस्थानयोः (केतुः) ज्ञानस्वरूपम् (अन्तः) मध्ये व्याप्तम् (महत्) (देवानाम्) पृथिव्यादीनां जीवानां वा (असुरत्वम्) प्राणेषु क्रीडमानम् (एकम्) अद्वितीयं ब्रह्म ॥२॥
भावार्थः
त एवाऽस्मिञ्जगति विद्वांसो जनका इव भवेयुर्ये प्रकृत्यादिषु व्याप्तं सर्वान्तर्य्यामि ब्रह्म सम्यग् विज्ञाय विज्ञापयेयुः ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! जो (पुराण्योः) अनादि काल से सिद्ध बिजुली और आकाश रूप प्रकृतियों (सद्मनोः) सबके रहने के स्थानों और (देवानाम्) पृथिवी आदि वा जीवों के (अन्तः) मध्य में (केतुः) ज्ञानस्वरूप (महत्) बड़ा (एकम्) अपने सदृश द्वितीय पदार्थ रहित ब्रह्म (असुरत्वम्) प्राणों में क्रीडा करता हुआ है (अत्र) इस ब्रह्म वा विज्ञान के व्यवहार में (नः) हम लोगों को (पदज्ञाः) प्राप्त होने योग्य के जाननेवाले (पूर्वे) प्रथम उत्पन्न हुए (पितरः) विज्ञानवाले (मो) नहीं (जुहुरन्त) प्रसहन करें और (देवाः) विद्वान् लोग इस विज्ञानरूप व्यवहार में हम लोगों को (मा) नहीं (सु) उत्तम प्रकार सहें, इस प्रकार आप भी यह जान के आपको ये लोग न सहें ॥२॥
भावार्थ
वे ही इस संसार में विद्वान् जन पिता के सदृश होवें कि जो प्रकृति आदि पदार्थों में व्याप्त सर्वान्तर्य्यामी ब्रह्म को उत्तम प्रकार जान के अन्यों को जनावें ॥२॥
विषय
देवों व पितरों के सम्पर्क में
पदार्थ
[१] (अत्र) = यहाँ (न:) = हमें (देवाः) = सूर्यादि देव (मो) = [माउ] मत ही (सु जुहुरन्त) = विनष्ट करनेवाले हों। हम इनके सम्पर्क में जीवन बिताते हुए अत्यन्त प्राणशक्ति सम्पन्न बनें। 'देवा:' का भाव 'ज्ञानी रुष' भी है। वे हमें हिंसित करनेवाले न हों, अर्थात् हमें सदा उनका संग सुलभ रहे। [२] हे (अग्ने) = परमात्मन् (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (पदज्ञाः) = मार्ग को जाननेवाले (पितरः) = रक्षक लोग (मा) = हमें हिंसित न करें। हमें इनका सम्पर्क सदा प्राप्त रहे । [३] इन देवों व पितरों की कृपा से (पुराण्यो:) = इन सनातन (सद्मनो:) = [सीदन्त्यनयोर्देवमनुष्या इति सद्मनी रोदसी सा०] द्यावापृथिवी के (अन्तः) = अन्दर (केतुः) = प्रज्ञान ही प्रज्ञान हो। हम द्यावापृथिवी के अन्तर्गत सभी पदार्थों का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करें। तभी हमें यह अनुभव होगा कि इन देवों का प्राणशक्ति संचार का कार्य अद्भुत है व महान् है ।
भावार्थ
भावार्थ-देवों व पितरों के सम्पर्क में हमें द्यावापृथिवी का उत्तम ज्ञान होगा। तब ये सब सूर्यादि देव हमें प्राणशक्ति देनेवाले होंगे।
विषय
सूर्यवत् उसके ज्ञानमय प्रकाश।
भावार्थ
(देवाः) विद्वान् कामनावान् और विजयादि के इच्छुक लोग अथवा मदमत्त, विलासी और आलसी लोग (अत्र) इस लोक में (नः) हम पर (मो सु जुहुरन्त) कभी बलात्कार न करें। हे (अग्ने) अग्रणी पुरुष ! हे विद्वन् ! (पूर्व) पूर्व विद्यमान, (पितरः) पालक (पदज्ञाः) प्राप्तव्य उत्तम पद को जानने वाले पुरुष भी हम पर (मा जुहुरन्त) प्रहार वा बलात्कार न करें। (पुराण्योः सद्मनोः अन्तः) सनातन से चले आये आकाश और भूमि के समान राजसभा और प्रजा-जनसभा दोनों सभा-भवनों (Houses) के बीच (केतुः) कार्य-व्यवहारों के जानने और जनाने हारे सूर्य वा ध्वजा के समान तेजस्वी और उच्च आदर पद पर स्थित माननीय पुरुष ही (देवानां) सब विद्वानों के बीच (एकम्) एकमात्र (असुरत्वम्) बलवान् पुरुषों के शौर्य का (महत्) सबसे बड़ा अद्वितीय उपलक्षण हो। जो सब में जीवन ज्योति और उत्साह का देने वाला हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात तेच विद्वान लोक माता व पिता यांच्याप्रमाणे असतात जे प्रकृती इत्यादी पदार्थांमध्ये व्याप्त असलेल्या सर्वांतर्यामी ब्रह्माला उत्तम प्रकारे जाणून इतरांनाही जाणवून देतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord and light of the world, in this universe and its business of knowing and doing, we pray, may the brilliant forces of nature and humanity never oppose and hurt us, may the primal pranic energies of parental sustenance never neglect and damage us, may the one great principal bright and breathing spirit in the primal forms of existence never hurt us. Great and one is the life and glory of the multiple divinities of the universe.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of Agni is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Agni (learned leader) ! there is One God pervading the eternal energy and ethers in which all beings abide and are present in earth and other objects and also in souls. That God is One and One alone without a second, dwelling within the Pranas. The old and experienced progenitors (ancestors) know that Who is to be attained and Who is Omniscient. May not learned persons Indra! in any way in the task of attaining that Supreme Being. You should also try to know Him, so that none may harm you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those are truly enlightened persons to be revered like parents, who know well the One God, pervading the matter and other things and having known Him, instruct others about Him.
Foot Notes
(अत्र ) अस्मिन् ब्रह्मणि विज्ञानव्यवहारे वा | = In this God or in the dealing of knowledge. (जुहुरन्त ) प्रसहन्ताम् = Harm. (पुराण्योः) सनातनयोविद्युदाकाशरूपयोः प्रकृत्योः । = Eternal Electricity and Sky-the forms of matter. (पदज्ञाः ) ये पदं प्राप्तव्यं जानन्ति ते । = They who know what is to be attained.
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