ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 19
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा, इन्द्रः पर्जन्यात्मा त्वष्टा वाग्निश्च
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दे॒वस्त्वष्टा॑ सवि॒ता वि॒श्वरू॑पः पु॒पोष॑ प्र॒जाः पु॑रु॒धा ज॑जान। इ॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नान्यस्य म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वः । त्वष्टा॑ । स॒वि॒ता । वि॒श्वऽरू॑पः । पु॒पोष॑ । प्र॒ऽजाः । पु॒रु॒धा । ज॒जा॒न॒ । इ॒मा । च॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । अ॒स्य॒ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः पुपोष प्रजाः पुरुधा जजान। इमा च विश्वा भुवनान्यस्य महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥
स्वर रहित पद पाठदेवः। त्वष्टा। सविता। विश्वऽरूपः। पुपोष। प्रऽजाः। पुरुधा। जजान। इमा। च। विश्वा। भुवनानि। अस्य। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 19
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यस्त्वष्टा परमेश्वरो देवो विश्वरूपः सवितेव प्रजाः पुपोष इमा विश्वा भुवनानि च पुरुधा जजाना स्येदमेव देवानां महदेकमसुरत्वमस्तीति वेद्यम् ॥१९॥
पदार्थः
(देवः) देदीप्यमानः (त्वष्टा) प्रकाशकः (सविता) प्रेरकः (विश्वरूपः) विश्वानि रूपाणि यस्मात् सः (पुपोष) पुष्यति (प्रजाः) प्रजाताः (पुरुधा) बहुधा (जजान) जनयति (इमा) इमानि (च) (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) लोकजातानि (अस्य) परमेश्वरस्य (महत्) (देवानाम्) (असुरत्वम्) (एकम्) ॥१९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः सर्वं जगत्पालयति तथैव जगदीश्वरः सूर्य्यादिकं बहुविधं जगन्निर्माय रक्षति। इदमेव परमात्मनो महदाश्चर्य्यं कर्माऽस्तीति बोध्यम् ॥१९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (त्वष्टा) प्रकाश करनेवाला परमेश्वर (देवः) प्रकाशमान (विश्वरूपः) जिससे सम्पूर्ण रूप हैं ऐसे (सविता) प्रेरणा करनेवाले सूर्यमण्डल के सदृश (प्रजाः) उत्पन्न हुए प्राणी अप्राणी को (पुपोष) पुष्ट करता है और (इमा) इन (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवनानि) लोकों को (च) भी (पुरुधा) बहुत प्रकार से (जजान) उत्पन्न करता है (अस्य) इस परमेश्वर का यही (देवानाम्) विद्वानों के बीच (महत्) बड़ा (एकम्) एक (असुरत्वम्) दोषों का दूर करनेवाला गुण है, ऐसा जानना चाहिये ॥१९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य जगत् का पालन करता है, वैसे ही जगदीश्वर सूर्य्य आदि अनेक प्रकार संसार को बनाय करके रक्षा करता है, यही परमात्मा का बड़ा आश्चर्य्य कर्म है, ऐसा जानना चाहिये ॥१९॥
विषय
'त्वष्टा' द्वारा निर्माण व पोषण
पदार्थ
[१] (देवः) = वे प्रभु [दिवु क्रीडायाम्] इस 'ब्रह्माण्ड के निर्माण, धारण व प्रलय' रूप क्रीडा को करनेवाले हैं। (त्वष्टा) = ज्ञानदीप्ति से दीप्त हैं [त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः], सविता [भू प्रेरणे] = इस ज्ञानप्रेरणा को देनेवाले हैं। (विश्वरूप:) = सारे संसार के पदार्थों का विरूपण करनेवाले हैं । [२] (प्रजाः पुपोष) = सारी प्रज्ञाओं का प्रभु ही पोषण करते हैं, (पुरुधा जजान) = अनेक प्रकार से उनको उत्पन्न करते हैं। प्रजाओं के पोषण के लिए उन्होंने सूर्यादि देवों का भिन्न-भिन्न लोकों में स्थापन किया है। ग्यारह देव पृथिवीलोक में, ग्यारह अन्तरिक्षलोक में तथा ग्यारह देव द्युलोक में उस प्रभु द्वारा स्थापित किये गए हैं। (देवानाम्) = इन सब सूर्यादि देवों का (असुरत्वम्) = प्राणशक्तिसंचार का कार्य (एकम्) = अद्वितीय है तथा (महत्) = महान् है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही निर्माता व पोषक हैं। प्रजाओं के पोषण के लिए उन्होंने ही सूर्यादि देवों का उस उस लोक में स्थापन किया है।
विषय
उनके नाना अद्भुत कार्य।
भावार्थ
(त्वष्टा) सबका प्रकाशक (देवः) स्वयं प्रकाशमान, सब सुखों का दाता, (सविता) सबका उत्पादक, (विश्वरूपः) सब प्रकार के जीवों और सब लोकों का उत्पन्न करने वाला होकर (प्रजाः) उत्पन्न प्रजाओं को (पुरुधा) बहुत प्रकारों से (पुपोष) पोषण करता और (पुरुधा) बहुत विध (जजान) उत्पन्न करता है। (इमा च) और ये (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक भी (अस्य) इसके बनाये हैं। (देवानाम्) सब सूर्यादि प्रकाशमान पदार्थों के बीच वही (एकम्) एक, अद्वितीय (महत्) सबसे बड़ा (असुरत्वम्) प्राणप्रद और प्रेरक बल है। (२) इसी प्रकार राजा सूर्यवत् तेजस्वी, प्रजाओं को नाना प्रकार से पाले, उसी के अधीन ये सब नाना लोक हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य जगाचे पालन करतो तसेच जगदीश्वर सूर्य इत्यादी अनेक प्रकारचे जग निर्माण करून रक्षण करतो. हेच परमेश्वराचे महान आश्चर्यकारक कर्म आहे हे जाणले पाहिजे. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Self-refulgent and generous lord of existence as Tvashta, maker of forms, and as Savita, generator and giver of light and vitality, inspiring and pervading the universe, creates, nourishes and sustains his children and all these worlds of the universe in many ways and thus manifests himself in infinite forms and ways. Great is the glory and unity of the divine forms of his creation and of the divine breath of life in them.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of Atma (soul) is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the Resplendent God Who is the Illuminator of all, nourishes all the subjects like the sun, Who illumines all forms and creates all worlds in various channels. That One Great God is the life-giver and Lord of the enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun sustains the whole worlds, in the same God creates the solar and other worlds and protects them. Thin in the most wonderful creation of God.
Foot Notes
(त्वष्टा) प्रकाशकः । त्वष्टा त्विषेव स्याद् दीप्तिकर्मणः (NKT 8, 1, 14) = Illuminator. (विश्वरूपः) विश्वानि रूपाणि यस्मात्सः। = From whom all forms are made.
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