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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्रान्यच्च॒क्रम॑वृहः॒ सूर्य॑स्य॒ कुत्सा॑या॒न्यद्वरि॑वो॒ यात॑वेऽकः। अ॒नासो॒ दस्यूँ॑रमृणो व॒धेन॒ नि दु॑र्यो॒ण आ॑वृणङ्मृ॒ध्रवा॑चः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒न्यत् । च॒क्रम् । अ॒वृ॒हः॒ । सूर्य॑स्य । कुत्सा॑य । अ॒न्यत् । वरि॑वः । यात॑वे । अ॒क॒रित्य॑कः । अ॒नासः॑ । दस्यू॑न् । अ॒मृ॒णः॒ । व॒धेन॑ । नि । दु॒र्यो॒णे । अ॒वृ॒ण॒क् । मृ॒ध्रऽवा॑चः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रान्यच्चक्रमवृहः सूर्यस्य कुत्सायान्यद्वरिवो यातवेऽकः। अनासो दस्यूँरमृणो वधेन नि दुर्योण आवृणङ्मृध्रवाचः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। अन्यत्। चक्रम्। अवृहः। सूर्यस्य। कुत्साय। अन्यत्। वरिवः। यातवे। अकरित्यकः। अनासः। दस्यून्। अमृणः। वधेन। नि। दुर्योणे। अवृणक्। मृध्रऽवाचः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजंस्त्वं सूर्य्यस्येवाऽन्यच्चक्रं प्रावृहः कुत्सायाऽन्यद्वरिवो यातवेऽकरनासो दस्यून् वधेनामृणो दुर्य्योणे मृध्रवाचो जनान् न्यावृणक् ॥१०॥

    पदार्थः

    (प्र) (अन्यत्) (चक्रम्) (अवृहः) वर्धयेः (सूर्य्यस्य) (कुत्साय) वज्राय (अन्यत्) (वरिवः) परिचरणम् (यातवे) यातुं गन्तुम् (अकः) कुर्य्याः (अनासः) अविद्यमानास्यान् (दस्यून्) दुष्टान् चोरान् (अमृणः) हिंस्याः (वधेन) (नि) नितराम् (दुर्य्योणे) गृहनयने (आवृणक्) वृङ्धि (मृध्रवाचः) हिंस्रावाचो जनान् ॥१०॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यथा सूर्य्यः स्वं चक्रमाकर्षणेन वर्त्तयति तथैव विमानादियानै राज्यमनुवर्त्तय दस्यून् दुष्टवाचश्च हत्वा राज्येऽचोरान् श्रेष्ठवचनांश्च सम्पादय ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! आप (सूर्यस्य) सूर्य के सदृश (अन्यत्) अन्य (चक्रम्) चक्र की (प्र, अवृहः) उत्तम वृद्धि करिये और (कुत्साय) वज्र के लिये (अन्यत्) अन्य (वरिवः) सेवन को (यातवे) प्राप्त होने को (अकः) करिये तथा (अनासः) मुखरहित (दस्यून्) दुष्ट चोरों का (वधेन) वध से (अमृणः) नाश करिये और (दुर्य्योणे) गृह के प्राप्त होने में (मृध्रवाचः) कुत्सित वाणियोंवाले जनों को (नि, आवृणक्) निरन्तर वर्जिये ॥१०॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जैसे सूर्य्य अपने चक्र का आकर्षण से वर्त्ताव करता है, वैसे ही विमान आदि वाहनों से राज्य का अनुवर्त्तन करो और चोर तथा दुष्ट वाणीवालों का नाश करके राज्य में नहीं चोरी करनेवाले और श्रेष्ठ वचनोंवाले जनों का सम्पादन कीजिये ॥१०॥

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    विषय

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    भावार्थ

    भा०—हे राजन् ! तू ( सूर्यस्य ) सूर्य समान तेजस्वी राजा के ( अन्यत् चक्रम् ) एक चक्र को ( कुत्साय ) वज्र, शस्त्रास्त्र बल के धारण के लिये ( प्र अवृहः ) खूब उन्नत कर, आगे बढ़ा और ( अन्यत् ) दूसरे सैन्यचक्र को ( वरिवः यातवे ) धनैश्वर्य के प्राप्त करने के लिये ( अकः ) तैयार कर । (अनासः ) नाक मुख रहित, प्रमुख नायक रहित, ( दस्यून् ) दुष्ट पुरुषों को वा प्रत्यक्ष अपराध के कारण कुछ भी अपनी रक्षार्थ न कह सकने वाले दुष्ट पुरुषों को ( वधेन ) शस्त्र द्वारा वध करके (अमृणः) विनाश कर और (मृध्रवाचः ) हिंस्र, पीड़ाकारी, मर्मवेधी वचन बोलने वालों को (दुर्योणे नि आवृणक) कारागार में बन्द करके रख । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिः शाक्त्य ऋषिः ॥ १–८, ९–१५ इन्द्रः । ९ इन्द्र उशना वा ॥ देवता ॥ छन्दः–१ भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । २, ४, ७ त्रिष्टुप, । ३, ५, ६, ९,१०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । १२, १३, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    ज्ञान+धन

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप (कुत्साय) = वासनाओं का संहार करनेवाले के लिए (सूर्यस्य) = ज्ञान सूर्य के (अन्यत् चक्रम्) = विलक्षण चक्र को (प्र अवृहः) = प्रकर्षेण बढ़ाइए । जीवनयात्रा की पूर्ति के लिए वह शरीर रथ प्रभु ने दिया है। प्रभु इस रथ में एक चक्र तो ज्ञान का चक्र स्थापित करें तथा (अन्यत्) = दूसरा (यातवे) = जीवनयात्रा को चलाने के लिए (वरिवः) = धन रूप (चक्र अकः) = करें [बनाएँ]। जीवन यात्रा के लिए धन आवश्यक है। इस धन के ठीक उपयोग के लिए ज्ञान आवश्यक है। शरीर शकट का एक चक्र 'ज्ञान' है तो दूसरा 'धन' । २. हे प्रभो! आप (अनासः) = स्तुति शब्दों से शून्य (दस्यून् दास्यव) = वृत्तिवाले लोगों को (वधेन) = शास्त्रों द्वारा (अमृण:) = कुचल देते हैं। (दुर्योणे) = संग्राम में (मृध्रवाचः) = हिंसक वाणीवाले लोगों को (नि आवृणक्) = छिन्न करनेवाले होते हैं। हमें जीवनसंग्राम में विजय प्राप्ति के लिए स्तुतिवाला - देववृत्तिवाला- तथा अहिंसकवाणी वाला बनने का प्रयत्न करना चाहिए।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे शरीर शकट को ज्ञान व धन रूप पहियों से सुशोभित करें। हम जीवनसंग्राम में 'स्तुति - दिव्यवृत्ति व मधुरवाणी' को अपनाएँ। न हम 'अनास्' हो न 'दस्यु' और न ही 'मृध्रवाक्' ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! जसा सूर्य आपल्या चक्राच्या आकर्षणाने चालतो. तसे विमान इत्यादी वाहनांचा राज्यात वापर कर. चोर व दुष्टवचनी लोकांचा नाश करून राज्यात सज्जन व श्रेष्ठवचनी लोक वाढव. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Extend the orbit of enlightenment for the thunderbolt. Clear the paths and areas for development, peace and freedom of movement. Eliminate the shameless, the wicked and the thieves with punishment, and stop the entry of the malicious, throw them in jail.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    King's duties are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! add another wheel like that your thunderbolt of the sun and have greater use or service for Your thunderbolt for going to distant places. Finish the robbers and thieves with fatal weapons cutting their face (nose or body Ed.). Do not allow men of violent speech to remain in your home (kingdom. Ed.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun makes its cycle with attractive or gravitative powers, in the same way, you should go around your kingdom with aircraft and other swift transport. Having destroyed robbers, thieves and men of wicked speech, make all honest people and utterers of good words (language) gather around you.

    Foot Notes

    (कुत्साय) वज्राय । कुत्स इति वज्रनाम (NG 2, 20) । = For the thunderbolt (वरिवः) परिचरणम् । = Service, use. (मुध्रवाचः) हिस्रावाचो जनान् मृध हिंसायाम् । = To men of using offensive language.

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