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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आद्रोद॑सी वित॒रं वि ष्क॑भायत्संविव्या॒नश्चि॑द्भि॒यसे॑ मृ॒गं कः॑। जिग॑र्ति॒मिन्द्रो॑ अप॒जर्गु॑राणः॒ प्रति॑ श्व॒सन्त॒मव॑ दान॒वं ह॑न् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । रोद॑सी॒ इति॑ । वि॒ऽत॒रम् । वि । स्क॒भा॒य॒त् । स॒म्ऽवि॒व्या॒नः । चि॒त् । भ॒यसे॑ । मृ॒गम् । क॒रिति॑ कः । जिग॑र्ति॒म् । इन्द्रः॑ । अ॒प॒ऽजर्गु॑राणः । प्रति॑ । श्व॒सन्त॑म् । अव॑ । दा॒न॒वम् । ह॒न्निति॑ हन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आद्रोदसी वितरं वि ष्कभायत्संविव्यानश्चिद्भियसे मृगं कः। जिगर्तिमिन्द्रो अपजर्गुराणः प्रति श्वसन्तमव दानवं हन् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत्। रोदसी इति। विऽतरम्। वि। स्कभायत्। सम्ऽविव्यानः। चित्। भियसे। मृगम्। करिति कः। जिगर्तिम्। इन्द्रः। अपऽजर्गुराणः। प्रति। श्वसन्तम्। अव। दानवम्। हन्निति हन् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथेन्द्रः सूर्य्यो रोदसी वितरं वि ष्कभायदात्संविव्यानः सन् भियसे चिन्मृगं को जिगर्त्तिमपजर्गुराणस्स दानवमव हन् तथा प्रतिश्वसन्तं प्राणिनं सततं प्रतिपालय ॥४॥

    पदार्थः

    (आत्) आनन्तर्ये (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वितरम्) विशेषेण प्लवनम् (वि) (स्कभायत्) विशेषेण स्कभ्नाति (संविव्यानः) सम्यग्व्याप्नुवन् (चित्) अपि (भियसे) भयाय (मृगम्) (कः) करोति (जिगर्त्तिम्) प्रशंसां निगलनं वा (इन्द्रः) सूर्य्यः (अपजर्गुराणः) आच्छादनात् पृथक्कुर्वन् (प्रति) (श्वसन्तम्) प्राणन्तम् (अव) (दानवम्) दुष्टप्रकृतिम् (हन्) हन्यात् ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजानः सूर्य्यवद्राज्यं धरन्ति ते सिंहो मृगमिव दुष्टानुद्वेजयन्ति तथैव वर्त्तित्वा यशः प्रथयेयुः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (वितरम्) विशेष उलांघना जैसे हो, वैसे (वि, स्कभायत्) विशेष करके आकर्षित करता है (आत्) और (संविव्यानः) उत्तम प्रकार व्याप्त होता हुआ (भियसे) भय के लिये (चित्) भी (मृगम्) हरिण को (कः) करता तथा (जिगर्त्तिम्) प्रशंसा वा निगलने को (अपजर्गुराणः) आच्छादन से अलग करता हुआ वह (दानवम्) दुष्टप्रकृति मनुष्य को (अव, हन्) हनन करे, वैसे (प्रति, श्वसन्तम्) श्वास लेते हुए प्राणी का निरन्तर प्रतिपालन करो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा सूर्य्य के सदृश राज्य को धारण करते हैं, जैसे सिंह मृग को व्याकुल करता है, वैसे दुष्टों को व्याकुल करते हैं, वैसा ही बर्त्ताव करके यश को प्रकट करें ॥४॥

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    विषय

    सेनाओं का प्रबन्ध और सिंहवत् पराक्रम ।

    भावार्थ

    भा० - राजा (आत् ) अनन्तर, ( रोदसी ) पृथिवी और आकाश दोनों को सूर्यवत् एक दूसरे को बलपूर्वक रोक रखने में समर्थ तुल्य बल स्वपक्ष और परपक्ष की दोनों सेनाओं को ( वितरम् ) विशेष रूप से अच्छी प्रकार (वि स्कभायत्) विविध उपायों से थामले । ( चित् मृगं भियसे कः ) जिस प्रकार सिंह मृग को भय देने के लिये गर्जना करता है उसी प्रकार वह राजा भी ( सं विव्यानः ) अच्छी प्रकार मिल कर आगे वढ़ता हुआ शत्रु को ( भियसे ) डराने के लिये उसको (मृगं कः ) मृग के समान भीरु करे अथवा वह ( भियसे ) शत्रु को भयभीत करने के लिये अपने आप को ( मृगं कः ) सिंहवत् बना लेवे । इस प्रकार वह ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता राजा ( जिगर्त्तिम् ) अपने राष्ट्र को निगलने वाले शत्रु को ( अप जर्गुराणः ) दूर भगाता हुआ ( श्वसन्तं ) हांपते हुए, (तं ) उस (दानव) प्रजानाशक दुष्ट पुरुष वा शत्रुजन का ( प्रति अव हन् ) मुकाबला करे, सबके समक्ष नीचे गिरा कर दण्ड दे, मारे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिः शाक्त्य ऋषिः ॥ १–८, ९–१५ इन्द्रः । ९ इन्द्र उशना वा ॥ देवता ॥ छन्दः–१ भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । २, ४, ७ त्रिष्टुप, । ३, ५, ६, ९,१०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । १२, १३, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    मृगों का पलायन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार सोमरक्षण करनेवाला व्यक्ति (आत्) = सोमरक्षण के साथ शीघ्र ही (रोदसी) = द्यावापृथिवी को - मस्तिष्क व शरीर को - (वितरम्) = खूब ही (विष्कभायत्) = थामता है। मस्तिष्क व शरीर का अच्छी प्रकार धारण करता है। (संविव्यानः) = सम्यक् गति करता हुआ [वेतैर्गतिकर्मणा] – सदा उत्तम कर्मों में लगा हुआ (चित्) निश्चय से (मृगम्) = काम-क्रोध आदि पशुओं को [कामः पशुः, क्रोधः पशुः] (भियसे कः) = भयभीत करता है— उन्हें अपने से दूर भगाता है। सदा सत्कर्मों में लगा हुआ काम आदि से आक्रान्त नहीं होता। २. (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (जिगर्तिम्) = निगल जानेवाले इन लोभ आदि शत्रुओं को (अपजर्गुराण:) = [ejecting] परे फेंकता हुआ अथवा इनके आच्छादन से अपने को मुक्त करता हुआ (प्रतिश्वसन्तम्) = आक्रमण के लिए फुंकार मारते हुए इन (दानवम्) = असुरभावों को (अवहन्) = सुदूर विनष्ट करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षक पुरुष काम-क्रोध रूप पशुओं को दूर भगाता है। लोभ द्वारा निगले जाने से अपने को बचाता है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे सूर्याप्रमाणे राज्य धारण करतात. जसा सिंह मृगाला व्याकूळ करतो, तसे दुष्टांना व्याकूळ करतात तसे वागून यश प्राप्त करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And then Indra holds and firms up the earth and heaven separate and yet together pervading both with his presence and power just like separating a fear- stricken deer and a devouring tiger by the power of his presence and holding off the demon tiger snorting fiercely.$(Compare the laws of gravitation separating and holding together in firm relationship two heavenly bodies according to their mass and distance under the presiding presence of the force of natural omnipotence.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! as the sun covers firmly heaven and earth, you restrain from down fall by your attracting power, and by your persuasion, impress all, as the deer are frightened by the lion. In the same manner, killing the wicked and being admired thereby, you protect all the living beings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The kings who sustain the State like the sun, frighten the wickeds as the lion frightens the deer. By so doing, they may spread far and wide their good reputation.

    Foot Notes

    (संविध्यानः ) सम्यग्व्याप्नुवन् । सं ÷ वि + वी गति व्यातिप्रजन कान्त्यसन् खादनेषु । अत्र गत्यर्थः । = Pervading well. (जिगर्त्तिम्) प्रशंसानिगलनं वा गृ-निगरणे (जु० ) गृ-शब्दो (चुरा.) अत्र स्तुति शब्दार्थ ग्रहणम् । = Praise or swallowing up. Here the first meaning has been taken.

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