ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 8
ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्री यच्छ॒ता म॑हि॒षाणा॒मघो॒ मास्त्री सरां॑सि म॒घवा॑ सो॒म्यापाः॑। का॒रं न विश्वे॑ अह्वन्त दे॒वा भर॒मिन्द्रा॑य॒ यदहिं॑ ज॒घान॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठत्री । यत् । श॒ता । म॒हि॒षाणा॑म् । अघः॑ । माः । त्री । सरां॑सि । म॒घऽवा॑ । सो॒म्या । अपाः॑ । का॒रम् । न । विश्वे॑ । अ॒ह्व॒न्त॒ । दे॒वाः । भर॑म् । इन्द्रा॑य । यत् । अहि॑म् । ज॒घान॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्री यच्छता महिषाणामघो मास्त्री सरांसि मघवा सोम्यापाः। कारं न विश्वे अह्वन्त देवा भरमिन्द्राय यदहिं जघान ॥८॥
स्वर रहित पद पाठत्री। यत्। शता। महिषाणाम्। अघः। माः। त्री। सरांसि। मघऽवा। सोम्या। अपाः। कारम्। न। विश्वे। अह्वन्त। देवाः। भरम्। इन्द्राय। यत्। अहिम्। जघान ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यद्यस्त्वमघः सन् महिषाणां त्री शता माः। हे सोम्या ! मघवा सँस्त्री सरांसि सूर्य इव प्रजा अपाः सूर्यो यदहिं जघान यथा विश्वे देवा इन्द्राय कारं न भरमह्वन्त तथेन्द्राय प्रयतस्व ॥८॥
पदार्थः
(त्री) (यत्) यः (शता) शतानि (महिषाणाम्) महतां पदार्थनाम् (अघः) अहन्तव्यः (माः) रचयेः (त्री) (सरांसि) मेघमण्डलभूम्यन्तरिक्षस्थानि (मघवा) बहुधनवान् (सोम्या) सोमगुणसम्पन्न (अपाः) पाहि (कारम्) कर्त्तारम् (न) इव (विश्वे) सर्वे (अह्वन्त) आह्वयन्ति (देवाः) विद्वांसः (भरम्) पालनम् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्याय (यत्) यथा (अहिम्) मेघम् (जघान) हन्ति ॥८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा पुरुषार्थिनं जनं सर्वे स्वीकुर्वन्ति तथैव सूर्य्य ईश्वरनियमनियतजलरसं गृह्णाति यथा जना महतां पदार्थानां सकाशाच्छतशः कार्याणि साध्नुवन्ति तथैव राजा मरुद्भ्यः पुरुषेभ्यो महद्राजकार्य्यं साध्नुयात् ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (यत्) जो आप (अघः) नहीं मारने योग्य होते हुए (महिषाणाम्) बड़े पदार्थों के (त्री) तीन (शता) सैकड़ों को (माः) रचिये और हे (सोम्या) चन्द्रमा के गुणों से सम्पन्न ! (मघवा) बहुत धनवान् होते हुए (त्री) तीन (सरांसि) मेघमण्डल, भूमि और अन्तरिक्ष में स्थित पदार्थों को सूर्य के सदृश प्रजाओं का (अपाः) पालन कीजिये और सूर्य्य (यत्) जैसे (अहिम्) मेघ का (जघान) नाश करता है और जैसे (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् जन (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये (कारम्) कर्त्ता के (न) सदृश (भरम्) पालन को (अह्वन्त) कहते हैं, वैसे ऐश्वर्य्य के लिये प्रयत्न कीजिये ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पुरुषार्थी जन को सब स्वीकार करते हैं, वैसे ही सूर्य ईश्वरीय नियमों से नियत जलरस का ग्रहण करता है, जैसे जन बड़े पदार्थों की उत्तेजना से सैकड़ों काम सिद्ध करते हैं, वैसे ही राजा प्रजाजनों से बड़े राजकार्य्य को सिद्ध करे ॥८॥
विषय
युद्धार्थ प्रयाण
भावार्थ
भा०-हे राजन् ! ( यत् ) जो तू ( महिषाणां ) बड़े, बल, ऐश्वर्य स्वामी लोगों के ( त्री शता ) तीन सो जनों का स्वयं ( अघः ) अक्षत, अदण्डनीय और (माः) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने में समर्थ होकर ( आपाः ) पालन करता है और ( मघवा ) ऐश्वर्यवान् होकर (त्री ) तीन (सोम्या) सोम, राष्ट्रैश्वर्य के हितैषी ( सरांसि ) उत्तमज्ञान बल सम्पन्न परिषदों को भी ( आपाः ) पालन करता है ( यद् ) जो ( इन्द्राय ) परमैश्वर्य युक्त पद को प्राप्त करने के लिये ( अहिं जघान ) मुकाबले पर आये शत्रु को दण्डित करता है तब उसी करण ( विश्वे ) समस्त ( देवाः ) विद्वान् पुरुष ( भरम् ) सबके भरण पोषण करने वाले तुझको ( कारं न ) समर्थ कार्यकर्त्ता सा जानकर (अह्वन्त ) आदर से बुलांवें और स्तुति करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिः शाक्त्य ऋषिः ॥ १–८, ९–१५ इन्द्रः । ९ इन्द्र उशना वा ॥ देवता ॥ छन्दः–१ भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । २, ४, ७ त्रिष्टुप, । ३, ५, ६, ९,१०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । १२, १३, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
महिषत्रय मांस भक्षण
पदार्थ
१. (यत्) = जब (शता) = शतवर्ष पर्यन्त, अर्थात् आजीवन (त्री महिषाणाम्) = तीनों महनीय 'ऋग् यजु साम' ज्ञानों के मास् तत्त्व को (अघ:) = तू खाता है, अर्थात् इनके तत्त्व का तू ग्रहण करता है। उस तत्त्व का जिसमें कि अद्भुत मानस आह्लाद प्राप्त होता है 'मानसम् अस्मिन् सीदति इति' तो (मघवा) = ज्ञानैश्वर्य वाला होता हुआ तू, हे (सौम्य) = सोमपान में उत्तम (सरांसि) = तीनों ज्ञान जलाशयों का (अपा:) = पान करता है। २. (विश्वे देवाः) = सब देववृत्ति के व्यक्ति (कारं न) = सब संसार के निर्माण करनेवाले की तरह (भरम्) = संसार का भरण करनेवाले उस प्रभु को (अह्नन्त) = पुकारते हैं। वे प्रभु ही संसार को बनाते हैं, वे ही इसका भरण करते हैं। देववृति के व्यक्ति इस प्रभु को पुकारते हैं (यत्) = क्योंकि ये प्रभु ही (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (अहिम्) = [आहन्ति] विनाशक वासना को (जघान) = नष्ट करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सदा तीन महनीय 'ऋग् यजु साम' रूप ज्ञानों के तत्त्व को समझने का प्रयत्न करे–यही तीन महिषों के तत्त्व का भक्षण है। इन तीन ज्ञानसरोवरों का पान करें। प्रभु को पुकारें । प्रभु ही तो हमारी वासना को विनष्ट करेंगे ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पुरुषार्थी लोकांचा सर्व जण स्वीकार करतात. तसेच ईश्वराने निर्माण केलेले जल सूर्य ओढून घेतो. जसे लोक मोठ्या पदार्थांच्या साह्याने शेकडो प्रकारचे काम करतात तसेच राजाने प्रजेकडून राज्याची मोठमोठी कामे करवून घ्यावी. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, inviolable lord, commanding honour, power and excellence, when you ripen and mature three hundred great fields and forests and create and protect three great lakes of soma, all the divinities of the world invoke Indra like a great hero and offer homage since he breaks the cloud of serpentine hoards of showers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a king are told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you are inviolable make or manufacture three hundred big articles. O man of peaceful disposition like the moon! endowed with abundant wealth you protect these your subjects, like the sun protects the articles on earth, in clouds and in the firmament. When you destroy the cloud, all highly learned persons invoke you for protection, like they invite a good worker for the attainment of prosperity? You should also always endeavor for prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As all accept (like) an industrious person, in the same manner, the sun takes or draws the water as ordained by God As by the use of big things men accomplish hundreds of works, a king should accomplish the great statecraft with the cooperation and help of great men.
Translator's Notes
अ+हन+ हिन्सागत्योः (अ) अत्र हिंसार्थ ग्रह्णम् । भूञ + भरणे (भ्वा.) डुभृञ । धारणपोषणयो (जु.) It is a absurd on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson and Griffith to translate the word fused here and in the previous mantra as buffalo, like in classical Sanskrit. In Vedic lexicon named Nighantu (3, 3) it is clearly stated महिष इति महनाम (NG 3, 3). In the mantra like ऋतावान महिषं विश्वदर्श-तमजिनं सुम्वायदधिरे पुरोजन्म: महिषम् has been used as the epithet of Agni and all the above scholars have taken it to mean 'great.' Even in classical Sanskrit, the word महिषी is used for queen as she is to be honored root verb being मह-पूजायाम्। Therefore to translate the first two stanzas of the mantra by Sayanacharya as हे इन्द्र त्वं (यत्) यदास्त्री | तयाभ्मं (शत ) शतसंख्यानां महिषाणां पशूनां (मा:) मांसानि (अद्यः) भक्षित वससि is out of context and relevance to mention killing and eating of meal of the buffaloes. Is it possible for Indra or even a demon to eat the flesh of three hundred buffaloes at a time as Wilson has rendered into English saying "When thou (O Indra) hadst eaten the flesh of the three hundred buffaloes, then all the gods summoned thee to battle (Vol. III P. 203)? Griffith has also translated with the same absurdity. and ridiculous manner saying “when thou three hundred buffaloes flesh hadst eaten ‘etc. (The Hymns of the Ridveda translated by Griffith P. 489) when the Vedas enjoin upon us to look upon all beings with the eyes of a friend मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे (Yajur 36, 18) and when meat eating is condemned like drinking and gambling with "Vedas " यथा मांस यथा सुरा पंचाक्षा अधिदेवने (attai 6, 108) how can it be possible for Indra, the king of the Devas to take meat, not of one buffalo, but of three hundred, as has been rendered in the mantras. मा: never means मांसानि ог meat. It means as Rishi Dayanand has interpreted मा: रचये: as to make because is derived from माङ्-माने (दिवा० ) Rishi Dayananda Sarasvati has based his interpretation of महिषाणाम् or phenomenal task on the basis of महिष इति महन्नाम (NG 3, 3 )।
Foot Notes
(महिषाणाम् ) महतां पदार्थानाम् । Of big or great things. (अवः ) अहन्तव्यः | = Inviolable. (भरम् ) पालनम् । = Nourishment or protection.
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