ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नव॒ यद॑स्य नव॒तिं च॑ भो॒गान्त्सा॒कं वज्रे॑ण म॒घवा॑ विवृ॒श्चत्। अर्च॒न्तीन्द्रं॑ म॒रुतः॑ स॒धस्थे॒ त्रैष्टु॑भेन॒ वच॑सा बाधत॒ द्याम् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठनव॑ । यत् । अ॒स्य॒ । न॒व॒तिम् । च॒ । भो॒गान् । सा॒कम् । वज्रे॑ण । म॒घऽवा॑ । वि॒वृ॒श्चत् । अर्च॑न्ति । इन्द्र॑म् । म॒रुतः॑ । स॒धऽस्थे॑ । त्रैस्तु॑भेन । वच॑सा । बा॒ध॒त॒ । द्याम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नव यदस्य नवतिं च भोगान्त्साकं वज्रेण मघवा विवृश्चत्। अर्चन्तीन्द्रं मरुतः सधस्थे त्रैष्टुभेन वचसा बाधत द्याम् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठनव। यत्। अस्य। नवतिम्। च। भोगान्। साकम्। वज्रेण। मघऽवा। विऽवृश्चत्। अर्चन्ति। इन्द्रम्। मरुतः। सधऽस्थे। त्रैस्तुभेन। वचसा। बाधत। द्याम् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! मघवा त्वं यथा सूर्य्यो वज्रेण साकमस्य जगतो मध्ये यद्यान् नव नवतिं भोगाञ्जनयत्यन्धकारादिकं विवृश्चद्यथा मरुतः सधस्थे त्रैष्टुभेन वचसेन्द्रमर्चन्ति द्यां च बाधत तथैव दुःखदारिद्र्यं विनाशय ॥६॥
पदार्थः
(नव) (यत्) यान् (अस्य) सूर्य्यस्य (नवतिम्) (च) (भोगान्) (साकम्) (वज्रेण) (मघवा) बहुधनयुक्तः (विवृश्चत्) छिनत्ति (अर्चन्ति) सत्कुर्वन्ति (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवन्तम् (मरुतः) मनुष्याः (सधस्थे) सहस्थाने (त्रैष्टुभेन) त्रिधा स्तुतेन (वचसा) (बाधत) (द्याम्) कामनाम् ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजँस्त्वं कामासक्तिं विहाय न्यायेन सर्वान् सत्कृत्याऽसङ्ख्यान् भोगान् प्रजाभ्यो धेहि ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् (मघवा) बहुत धन से युक्त आप जैसे सूर्य्य (वज्रेण) वज्र के (साकम्) साथ (अस्य) इस सूर्य्य और जगत् के मध्य में (यत्) जिन (नव) नव और (नवतिम्) नब्बे (भोगान्) भोगों को उत्पन्न करता और अन्धकार आदि का (विवृश्चत्) नाश करता है तथा जैसे (मरुतः) मनुष्य (सधस्थे) समान स्थान में (त्रैष्टुभेन) तीन प्रकार स्तुति किये गये (वचसा) वचन से (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाले का (अर्चन्ति) सत्कार करते हैं, और (द्याम्) कामना की (च) भी (बाधत) बाधा करते हैं, वैसे ही दुःख और द्रारिद्र्य का नाश करो ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! आप काम की आसक्ति का त्याग करके और न्याय से सबका सत्कार करके असङ्ख्य भोगों को प्रजाओं के लिये धारण कीजिये ॥६॥
विषय
शिल्पी के तुल्य बलवान् राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( मघवा ) उत्तम धन-सम्पदा का स्वामी ( अस्य ) इस प्रजाजन या राष्ट्र के ( नव नवतिं च भोगान् ) ९९ भोग योग्य, पालन करने योग्य और प्रजाओं का पालन करने वाले नगरों और नाना भोग्य पदार्थों को ( वज्रेण साकं ) अपने शस्त्रास्त्र बल के साथ २ उसके साहाय्य उसी प्रकार ( विवृश्चत् ) तैयार करावे जैसे विश्वकर्मा शिल्पी अपने बसौले से सेना के उपयोगी पदार्थों को बनाता है । ( मरुतः ) सब मनुष्य ( सधस्थे ) एक साथ बैठने के स्थान में ( इन्द्र ) शत्रुघाती समृद्धिमान् पराक्रमी पुरुष की ( अर्चन्ति ) स्तुति करें और ( त्रैष्टुभेन वचसा ) तीनों मान्य परिषदों द्वारा प्रस्तुत प्रशंसित ( वचसा ) राजकीय शासन से ( द्यां ) पृथिवी का ( बाधत ) शासन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिः शाक्त्य ऋषिः ॥ १–८, ९–१५ इन्द्रः । ९ इन्द्र उशना वा ॥ देवता ॥ छन्दः–१ भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । २, ४, ७ त्रिष्टुप, । ३, ५, ६, ९,१०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । १२, १३, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
वासनाग्नि का निर्माण
पदार्थ
१. (मघवा) = ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त यह उपासक (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा (अस्य) = इस शंवर (ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध) नामक असुर के (नव नवतिं च) = निन्यानवे (भोगान्) = भोगसाधन नगरियों को (साकम्) = एकदम (विवृश्चत्) = काट डालता है। क्रियाशीलता के द्वारा भोगवृत्तियों से ऊपर उठता है। २. इसी शंवर की पुरियों के विनाश के लिए ही (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुष (सधस्थे) = आत्मा व परमात्मा के (सह) = स्थान हृदय में (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (अर्चन्ति) = पूजते हैं। प्रभु पूजन हमें वासनाओं का शिकार नहीं होने देता। (त्रैष्टुभेन वचसा) = 'काम, क्रोध, लोभ' को रोकनेवाले प्रभु के स्तुतिवचनों से (द्याम्) = [दिव्-fire] वासनाओं की अग्नि को- कामाग्नि को (बाधत) = बाधित करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा हृदय में प्रभु का उपासन करने से शतशः वासनाओं का विनाश होकर वासनाग्नि शान्त हो जाती है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा तू कामासक्ती सोडून दे. न्यायाने सर्वांचा आदर कर. प्रजेला असंख्य भोग पदार्थ दे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When Indra with thunder and lightning destroys ninetynine serpentine strongholds of evil and darkness obstructing the light of Divinity in this world, then the Maruts, guardian forces of humanity on earth, honour and adore the omnipotent lord with trishtubha hymns of celebration.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a ruler are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! endowed with much wealth, you should end the misery and poverty of your subject. As the sun generates innumerable (literally ninety-nine) enjoyment and dispels darkness by his thunderbolt (in the form of the rays), and as men honor prosperous king standing by their side at the crucial stages, with speech (extortions) is admired in three ways. He destroys attachment of desires or passions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! you should provide innumerable enjoyments for your subjects, by giving up attachment to desires or lustful passion and giving due respect to all justifiably.
Translator's Notes
प्रश्चू छेदने (तुदा ) द्याम् दिवधातोरनेकार्थेषु अत्न कान्त्यर्थंग्रहणम् । कान्ति कामना । By three ways may be taken in the mind, words and deeds. The exact significance of the number नव-नवति ( ११ ) is yet a matter further research for the Vedic scholars.
Foot Notes
(विवृश्चत् ) छिनत्ति । = Cuts, dispels darkness etc. (द्याम्) कामनाम् । = Strong desire or passion. (त्रैष्टुभेन ) त्रिधास्तुतेन। = By the speech praised in three ways.
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