ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 14
ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒ता विश्वा॑ चकृ॒वाँ इ॑न्द्र॒ भूर्यप॑रीतो ज॒नुषा॑ वी॒र्ये॑ण। या चि॒न्नु व॑ज्रिन्कृ॒णवो॑ दधृ॒ष्वान्न ते॑ व॒र्ता तवि॑ष्या अस्ति॒ तस्याः॑ ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता । विश्वा॑ । च॒कृ॒ऽवान् । इ॒न्द्र॒ । भूरि॑ । अप॑रिऽइतः । ज॒नुषा॑ । वी॒र्ये॑ण । या । चि॒त् । नु । व॒ज्रि॒न् । कृ॒णवः॑ । द॒धृ॒ष्वान् । न । ते॒ । व॒र्ता । तवि॑ष्याः । अ॒स्ति॒ । तस्याः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एता विश्वा चकृवाँ इन्द्र भूर्यपरीतो जनुषा वीर्येण। या चिन्नु वज्रिन्कृणवो दधृष्वान्न ते वर्ता तविष्या अस्ति तस्याः ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठएता। विश्वा। चकृऽवान्। इन्द्र। भूरि। अपरिऽइतः। जनुषा। वीर्येण। या। चित्। नु। वज्रिन्। कृणवः। दधृष्वान्। न। ते। वर्ता। तविष्याः। अस्ति। तस्याः ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 14
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे वज्रिन्निन्द्रापरीतस्त्वं जनुषा वीर्य्येण चिदेता विश्वा चकृवान् या च भूरि कृणवो हे राजँस्ते चित् तस्यास्तविष्या दधृष्वान्नु वर्त्ता वोऽपि नास्ति ॥१४॥
पदार्थः
(एता) एतानि (विश्वा) सर्वाणि (चकृवान्) कृतवान् (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त राजन् (भूरि) बहूनि बलानि (अपरीतः) अवर्जितः (जनुषा) द्वितीयेन जन्मना (वीर्य्येण) पराक्रमेण (या) यानि (चित्) अपि (नु) सद्यः (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रास्त्रयुक्त (कृणवः) कुर्य्याः (दधृष्वान्) धर्षितवान् (न) निषेधे (ते) तव (वर्त्ता) स्वीकर्त्ता (तविष्याः) बलयुक्तायाः सेनायाः (अस्ति) (तस्याः) ॥१४॥
भावार्थः
ये राजादयो जनास्ते ब्रह्मचर्य्येण विद्याः प्राप्य चत्वारिंशद्वर्षायुष्कास्सन्तः समावर्त्य स्वयंवरं विवाहं विधाय सेनां वर्धयित्वा प्रजायाः सर्वतोऽभिरक्षणं कुर्य्युः ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) उत्तम शस्त्र और अस्त्रों से और (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त राजन् ! (अपरीतः) नहीं वर्ज्जित आप (जनुषा) दूसरे जन्म से और (वीर्य्येण) पराक्रम से (चित्) भी (एता) इन (विश्वा) सब को (चकृवान्) किये हुए हो और (या) जिन (भूरि) बहुत बलों को (कृणवः) करिये। हे राजन् ! (ते) आपकी निश्चित (तस्याः) उस (तविष्याः) बलयुक्त सेना का (दधृष्वान्) धृष्ट अर्थात् हर्षित किया हुआ (नु) शीघ्र (वर्त्ता) स्वीकार करनेवाला कोई भी (न) नहीं (अस्ति) है ॥१४॥
भावार्थ
जो राजा आदि जन हैं, वे ब्रह्मचर्य्य से विद्याओं को प्राप्त होकर चवालीस वर्ष की अवस्था से युक्त हुए समावर्त्तन करके अर्थात् गृहस्थाश्रम को विधिपूर्वक ग्रहण कर स्वयंवर विवाह कर और सेना की वृद्धि करके प्रजा की सब प्रकार से रक्षा करें ॥१४॥
विषय
missing
भावार्थ
भा०—हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू ( अपरीतः ) विना किसी से सहाय प्राप्त किये, किसी से बिना रुके, ( जनुषा वीर्येण ) जन्मसिद्ध स्वाभाविक, बल वा अधिकार से ( एता विश्वा भूरि ) ये समस्त बहुत से कार्यों को ( चकृवान् ) करता हुआ ( दष्टवान् ) शत्रुओं का घर्षण वा पराजय करता हुआ, ( या चित् नु ) और जिन २ कार्यों को भी तू (कृणवः) करे ( ते अस्याः तविष्याः ) तेरी इस बड़ी शक्ति या बलवती सेना का दूसरा ( दधृष्वान् वर्त्ता च नास्ति ) पराजयकारी और वशकारी भी नहीं है । तू ही सब से मुख्य प्रबल विजेता होकर रह । ( २ ) परमेश्वर जन्म से रहित होकर अपने बल से समस्त विश्वों को बनाता जा रहा है । वह सर्व शक्तिशाली होने से वज्री है । उसकी बड़ी शक्ति का धारक, और वारक दूसरा इस जगत् में नहीं है । वह अद्वितीय है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिः शाक्त्य ऋषिः ॥ १–८, ९–१५ इन्द्रः । ९ इन्द्र उशना वा ॥ देवता ॥ छन्दः–१ भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । २, ४, ७ त्रिष्टुप, । ३, ५, ६, ९,१०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । १२, १३, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'अनन्त शक्ति' प्रभु
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (एता विश्वा) = इन सब लोकों को (चकृवान्) = पालन व पोषण के दृष्टिकोण से आपने बनाया है। इन लोकों की प्रत्येक वस्तु ठीक उपयुक्त होने पर (भूरि) = हमारा भरण करनेवाली है। अज्ञानवश अयुक्त व अतियुक्त हुई हुई वह वस्तु हमारे अकल्याण का कारण बनती है। हे प्रभो! आप (जनुषा वीर्येण) = अपने सहज [जन्मसिद्ध] पराक्रम से अथवा शक्तियों के विकास व प्रराक्रम से (अपरीतः) = शत्रुओं से कभी घेरे नहीं जाते। २. हे (वज्रिन्) = क्रियाशीलता रूप वज्रवाले प्रभो! आप (दधृष्वान्) = सब शत्रुओं का धर्षण करनेवाले हैं। आप (नु) = जब (या चित्) = जिन भी कर्मों को (कृणवः) = करते हैं, उस समय (ते) = आपकी (तस्याः) = उस (तविष्याः) = शक्ति का वर्ता-रोकनेवाला (न अस्ति) = नहीं है। आपकी शक्ति का कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता। आपके कर्मों को कोई विहत नहीं कर सकता।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की शक्ति अनन्त है। प्रभु का कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता।
मराठी (1)
भावार्थ
राजे इत्यादींनी ब्रह्मचर्याने विद्या प्राप्त करून चौरेचाळीस वर्षांनंतर समावर्तन करून स्वयंवर विवाह करावा व सेनेची वाढ करून प्रजेचे सर्व प्रकारे रक्षण करावे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
All these many exploits of the world [from creation and sustenance to organisation, organisational elimination included], Indra, ruler and lord of power and excellence, which you have done and which you would do, unresisted and irresistible, by nature and nurture, by vigour and valour, O wielder of the thunderbolt, bold and terrific, no one can comprehend. There is none who can obstruct, hold or surpass those overwhelming powers and forces of yours.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of ruler's duties is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you are endowed with much wealth and powerful armies and missiles and are never deserted by your subjects, or devoid of noble virtues by your second birth through Vedarambh (sacred thread) ceremony. And by your strength you have collected all these virtues and useful commodities and have acquired many powers. There is no one to resist your powerful army.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king and officers of the State should acquire all knowledge by the observance of the Brahmcharya (continence) up to the age of forty years and after their return from the Gurukula (through Samavartana Sanskara) should marry-choice and strengthen the army. Thus he should protect the subjects from all sides.
Translator's Notes
तविषीति बलनाम (NG 2, 9 ) अत्र बलयुक्तसेना ग्रहणम् Supporting by in the Hindi translation in the mantra of the original Sanskrit चत्वारिशद्वयस्काः Meaning of forty years has been rendered as चवालीस वर्ष की अवस्था से युक्त । It is not a faithful translation the actual meaning being forty four years.
Foot Notes
(अपरीतः) अवर्जितः। = Not deserted by the subjects of devoid of noble virtues. (तविष्याः ) बलयुक्तायाः सेनाया: = Of powerful army.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal