ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 13
ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
क॒थो नु ते॒ परि॑ चराणि वि॒द्वान्वी॒र्या॑ मघव॒न्या च॒कर्थ॑। या चो॒ नु नव्या॑ कृ॒णवः॑ शविष्ठ॒ प्रेदु॒ ता ते॑ वि॒दथे॑षु ब्रवाम ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठक॒थो इति॑ । नु । ते॒ । परि॑ । च॒रा॒णि॒ । वि॒द्वान् । वी॒र्या॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । या । च॒कर्थ॑ । या । चो॒ इति॑ । नु । नव्या॑ । कृ॒णवः॑ । श॒वि॒ष्ठ॒ । प्र । इत् । ऊँ॒ इति॑ । ता । ते॒ । वि॒दथे॑षु । ब्र॒वा॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कथो नु ते परि चराणि विद्वान्वीर्या मघवन्या चकर्थ। या चो नु नव्या कृणवः शविष्ठ प्रेदु ता ते विदथेषु ब्रवाम ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठकथो इति। नु। ते। परि। चराणि। विद्वान्। वीर्या। मघऽवन्। या। चकर्थ। या। चो इति। नु। नव्या। कृणवः। शविष्ठ। प्र। इत्। ऊँ इति। ता। ते। विदथेषु। ब्रवाम ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 13
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मघवन् ! या ते परि चराणि वीर्या कथो नु चकर्थ विद्वांस्त्वं या चो नव्या नु कृणवः। हे शविष्ठ ! ते यानि विदथेषु वयं प्र ब्रवाम ता तानीदु त्वं गृहाण ॥१३॥
पदार्थः
(कथो) कथम् (नु) (ते) तव (परि) सर्वतः (चराणि) गतिमन्ति प्राप्तव्यानि वा (विद्वान्) (वीर्या) वीर्ययुक्तानि सैन्यानि (मघवन्) पूजितधनयुक्त (या) यानि (चकर्थ) करोषि (या) यानि (चो) च (नु) (नव्या) नवेषु भवानि (कृणवः) करोषि (शविष्ठ) अतिशयेन बलिष्ठ (प्र) (इत्) एव (उ) (ता) तानि (ते) तव (विदथेषु) सङ्ग्रामेषु (ब्रवाम) उपदिशेम ॥१३॥
भावार्थः
मनुष्याः सदैव नवीना नवीना विद्या नूतनं नूतनं कार्य्यं संसाध्यैश्वर्य्यं प्राप्नुयुरेवमन्यान् प्रत्युपदिशन्तु ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मघवन्) श्रेष्ठ धन से युक्त ! (या) जो (ते) आपकी (परि) सब ओर से (चराणि) चलनेवाली और प्राप्त होने योग्य (वीर्या) पराक्रमयुक्त सेनाओं को (कथो) किस प्रकार (नु) निश्चय से (चकर्थ) करते हो तथा (विद्वान्) विद्वान् आप (या) जिनको (चो) और (नव्या) नवीनों में उत्पन्नों को (नु) निश्चय से (कृणवः) सिद्ध करते हो। हे (शविष्ठ) अतिशय करके बलिष्ठ ! (ते) आपके जिनको (विदथेषु) सङ्ग्रामों में हम लोग (प्र, ब्रवाम) उपदेश करें (ता) उनको (इत्) निश्चय से (उ) भी आप ग्रहण करो ॥१३॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सदा ही नवीन-नवीन विद्या और नवीन-नवीन कार्य्य को सिद्ध करके ऐश्वर्य्य को प्राप्त होवें, इसी प्रकार अन्यों के प्रति उपदेश करें ॥१३॥
विषय
उसकी स्तुति-अर्चा ।
भावार्थ
भा०-हे ( मघवन् ) उत्तम, पूज्य, दानयोग्य ऐश्वर्य एवं ज्ञान से सम्पन्न प्रभो ! विद्वन् ! राजन् ! (ते) तेरी मैं ( कथो नु ) किस प्रकार (परिचराणि ) सेवा करूं ! हे ( शविष्ठ ) सर्वशक्तिमन् ! तू ( विद्वान् ) ज्ञानवान् होकर ( या वीर्या चकर्थ ) जिन बलों, वा अधिकारों को प्राप्त करता है, ( या चो ) और जिन बलयुक्त कार्यों या शक्तियों को ( नु ) शीघ्र ही ( नव्या ) नये रूप से ( कृणवः ) प्राप्त करता है, ( ते ता ) तेरे उन अधिकारों और बलयुक्त कार्यों का हम लोग ( विदथेषु ) यज्ञ, संग्राम, और ज्ञानोपदेशादि के अवसरों में ( प्र ब्रवाम) अच्छी प्रकार कहें, अन्यों को उपदेश करें । (२) परमेश्वर के जो महान् जगत् आदि कार्य उसने बनाये और जिनको वह बनाता ही जाता है उनकी हम सदा चर्चा किया करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिः शाक्त्य ऋषिः ॥ १–८, ९–१५ इन्द्रः । ९ इन्द्र उशना वा ॥ देवता ॥ छन्दः–१ भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । २, ४, ७ त्रिष्टुप, । ३, ५, ६, ९,१०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । १२, १३, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'अवर्णनीय महिमा वाले' प्रभु
पदार्थ
१. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (या वीर्या चकर्थ) = जिन शक्तिशाली कर्मों को आप करते हैं, उन सबको (विद्वान्) = जानता हुआ मैं (नु) = अब (कथो) = कैसे ही (ते परिचराणि) = आपकी उपासना करूँ? आपके कर्म अनन्त हैं, मेरी वाणी की शक्ति सीमित है। सो उसके लिए आपकी महिमा का प्रतिपादन कैसे सम्भव है? आपकी महिमा मेरी वाणी से अतीत है। २. (च) = और (उ) = निश्चय से (या नव्या कृणवः) = जिन स्तुत्य कर्मों को आप करते हैं, हे (शविष्ठ) = शक्तिशालिन् प्रभो ! (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में हम (ते) = आपके (ता) = उन कर्मों का (इत् उ) = अवश्य ही प्रब्रवाम खूब ही प्रतिपादन करें।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञानयज्ञों में एक चित्त होकर हम प्रभु के शक्तिशाली कर्मों का प्रतिपादन करें। इस प्रकार इन ज्ञानयज्ञों से ही प्रभु का पूजन करें। वस्तुतः प्रभु की महिमा हमारी वाणी से अतीत है।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सदैव नवनवीन विद्या व नवनवीन कार्य करून ऐश्वर्य प्राप्त करावे. याच प्रकारे इतरांना उपदेश करावा. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler of the world, mightiest hero commanding wealth, power, honour and excellence, sage and scholar, how shall we, in yajnic assemblies of the nation, fully describe, sing and celebrate your achievements and your potential, the exploits that you have done and those new ones you are sure to achieve henceforth ?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of learned person are further described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned king ! endowed with much admirable wealth, you should accept the mighty and admire armies which you have raised in a wonderful way, by training new recruits as yourself are a great instructor. O most powerful man! you should accept or pay attention to (the command. Ed.) the words which we utter in the battlefield.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should acquire wealth by getting knowledge of the latest new (discoveries and inventions. Ed.) sciences and by accomplishing them at the earliest.
Foot Notes
(वीर्या) वीर्ययुक्तानि सैन्यानि । = Powerful armies. (विदथेषु) संङ्ग्रामेषु । विदथानीति पदनाम (NG 4, 3) पद-गतौ । गतेस्त्रिअष्वर्थेषु गमन प्राप्त्यर्थमादाय सङ्ग्रामार्थ: सम्भवति । यक्त्र वीरा गच्छन्ति स्वकर्त्तव्यपूर्त्यै प्राप्नुवन्ति च विजयं धने वा = In battles.
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