ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
ऋषिः - विश्वावारात्रेयी
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अनु॒ यदीं॑ म॒रुतो॑ मन्दसा॒नमार्च॒न्निन्द्रं॑ पपि॒वांसं॑ सु॒तस्य॑। आद॑त्त॒ वज्र॑म॒भि यदहिं॒ हन्न॒पो य॒ह्वीर॑सृज॒त्सर्त॒वा उ॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । यत् । ई॒म् । म॒रुतः॑ । म॒न्द॒सा॒नम् । आर्च॑न् । इन्द्र॑म् । प॒पि॒ऽवांस॑म् । सु॒तस्य॑ । आ । अ॒द॒त्त॒ । वज्र॑म् । अ॒भि । यत् । अहि॑म् । हन् । अ॒पः । य॒ह्वीः । अ॒सृ॒ज॒त् । सर्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु यदीं मरुतो मन्दसानमार्चन्निन्द्रं पपिवांसं सुतस्य। आदत्त वज्रमभि यदहिं हन्नपो यह्वीरसृजत्सर्तवा उ ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअनु। यत्। ईम्। मरुतः। मन्दसानम्। आर्चन्। इन्द्रम्। पपिऽवांसम्। सुतस्य। आ। अदत्त। वज्रम्। अभि। यत्। अहिम्। हन्। अपः। यह्वीः। असृजत्। सर्तवै। ऊम् इति ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यन्मरुतो मन्दसानं सुतस्य पपिवांसं यदिन्द्रं त्वामार्चस्तान् भवान् सोऽन्वादत्त यथा सूर्यो वज्रमभि हत्वाहिं हन्त्सर्त्तवै यह्वीरपोऽसृजत् तथेमु त्वं न्यायं कुर्य्याः ॥२॥
पदार्थः
(अनु) (यत्) यम् (ईम्) सर्वतः (मरुतः) मनुष्याः (मन्दसानम्) स्तूयमानम् (आर्चन्) सत्कुर्युः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (पपिवांसम्) रक्षकम् (सुतस्य) प्राप्तस्य राज्यस्य (आ) (अदत्त) ददाति (वज्रम्) (अभि) आभिमुख्ये (यत्) यम् (अहिम्) मेघम् (हन्) हन्ति (अपः) जलानि (यह्वीः) महतीर्नदीः (असृजत्) सृजति (सर्त्तवै) सर्त्तुं गन्तुम् (उ) वितर्के ॥२॥
भावार्थः
ये मनुष्या राजानं सत्कुर्वन्ति तान् राजापि सत्कुर्याद् यथेन्द्रो मेघं हत्वा जलं प्रवाह्य सर्वं जगद्रक्षति तथा राजा दुष्टान् हत्वा श्रेष्ठान् रक्षेत् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (यत्) जो (मरुतः) मनुष्य (मन्दसानम्) स्तुति किये गये (सुतस्य) प्राप्त राज्य की (पपिवांसम्) रक्षा करनेवाले (यत्) जिन (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त आपका (आर्चन्) सत्कार करें, उनका वह आप (अनु, आ, अदत्त) अनुकूलता से ग्रहण करते हैं और जैसे सूर्य (वज्रम्) वज्ररूप किरण का (अभि) सम्मुख ताड़न करके (अहिम्) मेघ का (हन्) नाश करता है तथा (सर्त्तवै) जाने के लिये (यह्वीः) बड़ी नदियों को और (अपः) जलों को (असृजत्) उत्पन्न करता है, वैसे (ईम्) सब ओर से (उ) तर्क-वितर्क पूर्वक तुम न्याय करो ॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य राजा का सत्कार करते हैं, उनका राजा भी सत्कार करे और जैसे सूर्य मेघ का नाश कर और जल का प्रवाह करके सर्व जगत् की रक्षा करता है, वैसे राजा दुष्टों का नाश करके श्रेष्ठ की रक्षा करे ॥२॥
विषय
उसका राजदण्ड ग्रहण । दुष्टों के दमन का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( सुतस्य ) अभिषेक द्वारा प्राप्त राज्यैश्वर्य को ( पपिवांसं ) भोग वा पालन करने वाले ( मन्दसानं ) स्तुति योग्य एवं सुसन्तुष्ट (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा का ( मरुतः ) विद्वान् लोग और बलवान् वीरजन (यत्) जब ( अनु आ अर्चन् ) निरन्तर उसके अनुकूल होकर उसका आदर सत्कार करते हैं तब वह भी ( वज्रम् ) शत्रु निवारक शस्त्र बल और वीर्य, पराक्रम को ( आ दत्त ) धारण करता है, ( यत् ) जब वह (अहिं) अभिमुख युद्धार्थ आये शत्रु और मेघ को विद्युत् वा सूर्यवत् ( अभिहन् ) मुकाबले पर मारता है, तब जिस प्रकार सूर्य वा विद्युत् (यह्वीः अपः ) बड़ी २ जलधाराएं चला देते हैं उसी प्रकार वह बड़ी आप्त प्रजाओं, सेनाओं की ( यह्वीः ) बड़ी २ पंक्तियों को ( सर्त्तवा असृजत् ) सरण या आक्रमण करने के लिये प्रेरित करे अथवा ( अपः ) आप्त या प्राप्त प्रजाओं को (यह्वीः ) अपने पुत्रों के तुल्य ( सर्तवा ) सन्मार्ग में चलने के लिये प्रेरण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिः शाक्त्य ऋषिः ॥ १–८, ९–१५ इन्द्रः । ९ इन्द्र उशना वा ॥ देवता ॥ छन्दः–१ भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । २, ४, ७ त्रिष्टुप, । ३, ५, ६, ९,१०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । १२, १३, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
क्रियाशीलता व प्रभुप्राप्ति
पदार्थ
१. (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से मरुतः = ये मितरावी व प्राणसाधक पुरुष (मन्दसानम्) = उस आनन्दमय (सुतस्य) = उत्पन्न सोम के (पपिवांसम्) = हमारे शरीरों में रक्षण करनेवाले (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को (अनु आर्चन्) = अनुक्रमेण प्रतिदिन पूजते हैं तब यह उपासक (वज्रम् आदत्त) = हाथों में क्रियाशीलता रूप वज्र को ग्रहण करता है। २. (यद्) = जब यह क्रियाशील पुरुष (अहिम्) = इस [आहन्ति] विनाशक वासना को (अभि हन्) = विनष्ट करता है तो (उ) = निश्चय से अपने जीवन में (यह्वीः) = महान् (अपः) = कर्मों को (सर्तवा) = प्रभु की ओर जाने के लिए (असृजत्) उत्पन्न करता है। वस्तुतः यह क्रियाशील पुरुष ही आगे बढ़ता जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- क्रियाशीलता द्वारा प्रभु का उपासन होता है। क्रियाशीलता ही वासना को विनष्ट करती है ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे राजाचा सत्कार करतात त्यांचा राजानेही सत्कार करावा. जसा सूर्य मेघांचा नाश करतो व जल प्रवाहित करतो आणि सर्व जगाचे रक्षण करतो तसे राजाने दुष्टांचा नाश करून श्रेष्ठांचे रक्षण करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With dedication and loyalty, when the Maruts, supportive heroes of the social order, serve and honour Indra, the ruler, happy and honourable, ruling and enjoying the state entrusted to him, then, just as the sun with thunder and lightning breaks up the clouds and releases the showers and mighty streams aflow, he too takes over the thunderbolt of law and power and, striking the serpentine demons of darkness and evil, sets the mighty streams of national energy to flow in showers and creative streams.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of Indra is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you should always be first. When men honor the prosperous, you are admired because of your being the protector of the kingdom obtained. You accept this adoration with gladness. As the striking thunderbolt sun kills the clouds and generates great waters to go down, same way, you should dispense justice.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A king should also honor the men who honor him well. As the sun protects the whole world by killing the clouds and by letting the waters flow, in the same manner, a ruler should kill the wickeds and protect the noble persons.
Foot Notes
(मन्दसानम्) सतूयमानम्। = Being admired.(ईम् ) सर्वतः । = From all sides. (सुतस्य) प्राप्तस्य राज्यस्य । = Of the kingdom which has been obtained or annexed. (अहिम्) मेधाम्। अहिरिति मेघनाम (NG 1, 10) मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्ति गातिषु (भ्वा ) अत्र स्तुत्य | = Cloud.
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