ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 10
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यन्म॑रुतः सभरसः स्वर्णरः॒ सूर्य॒ उदि॑ते॒ मद॑था दिवो नरः। न वोऽश्वाः॑ श्रथय॒न्ताह॒ सिस्र॑तः स॒द्यो अ॒स्याध्व॑नः पा॒रम॑श्नुथ ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठयत् । म॒रु॒तः॒ । स॒ऽभ॒र॒सः॒ । स्वः॒ऽन॒रः॒ । सूर्ये॑ । उत्ऽइ॑ते । मद॑थ । दि॒वः॒ । न॒रः॒ । न । वः॒ । अश्वाः॑ । श्र॒थ॒य॒न्त॒ । अह॑ । सिस्र॑तः । स॒द्यः । अ॒स्य । अध्व॑नः । पा॒रम् । अ॒श्नु॒थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्मरुतः सभरसः स्वर्णरः सूर्य उदिते मदथा दिवो नरः। न वोऽश्वाः श्रथयन्ताह सिस्रतः सद्यो अस्याध्वनः पारमश्नुथ ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठयत्। मरुतः। सऽभरसः। स्वःऽनरः। सूर्ये। उत्ऽइते। मदथ। दिवः। नरः। न। वः। अश्वाः। श्रथयन्त। अह। सिस्रतः। सद्यः। अस्य। अध्वनः। पारम्। अश्नुथ ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे सभरसः स्वर्णरो दिवो नरो मरुतो ! यूयमुदिते सूर्ये यत्प्राप्य मदथ तेन वः सिस्रतोऽश्वा न श्रथयन्ताह तैरस्याध्वनः पारं सद्योऽश्नुथ ॥१०॥
पदार्थः
(यत्) ये (मरुतः) मनुष्याः (सभरसः) समानपालनपोषणाः (स्वर्णरः) ये स्वः सुखं नयन्ति ते (सूर्ये) (उदिते) उदयं प्राप्ते (मदथ) आनन्दथ (दिवः) कामयमानाः (नरः) सत्ये धर्मे नेतारः (न) (वः) युष्माकम् (अश्वाः) तुरङ्गाः (श्रथयन्त) हिंसन्ति (अह) विनिग्रहे (सिस्रतः) गन्तारः (सद्यः) शीघ्रम् (अस्य) (अध्वनः) मार्गस्य (पारम्) (अश्नुथ) प्राप्नुथ ॥१०॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सूर्य्योदयात् प्रागुत्थाय यावच्छयनं तावत्प्रयतन्ते दुःखदारिद्र्यान्तं गत्वा सुखिनः श्रीमन्तो जायन्ते ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सभरसः) तुल्य पालन और पोषण करनेवाले (स्वर्णरः) सुख को प्राप्त कराते और (दिवः) कामना करते हुए (नरः) सत्य धर्म्म में पहुँचानेवाले (मरुतः) जनो ! आप लोग (उदिते) उदय को प्राप्त हुए (सूर्ये) सूर्य में (यत्) जिसको प्राप्त होकर (मदथ) आनन्दित होओ उससे (वः) आप लोगों के (सिस्रतः) चलनेवाले (अश्वाः) घोड़े (न) नहीं (श्रथयन्त, अह) हिंसा करते रुकते हैं, उनसे (अस्य) इस (अध्वनः) मार्ग के (पारम्) पार को (सद्यः) शीघ्र (अश्नुथ) प्राप्त हूजिये ॥१०॥
भावार्थ
जो मनुष्य सूर्य्योदय से पहले उठ के जब तक सोवैं नहीं तब तक प्रयत्न करते हैं, दुःख और दारिद्र्य के अन्त को प्राप्त होकर सुखी और लक्ष्मीवान् होते हैं ॥१०॥
विषय
missing
भावार्थ
भा०-हे ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! हे प्रजा जनो ! हे व्यापारियो ! यत् जब आप लोग ( स-भरसः ) एक समान रूप से पालन पोषण करते हुए, समान होकर युद्धादि करते हुए, ( स्वः नरः ) सबके सुख, तेज वा पराक्रम के मार्ग में आगे जाने वाले, और (दिवः नरः ) ज्ञान प्रकाश के नायक वा स्वयं धनादि की कामनाशील पुरुष होकर ( सूर्ये-उदिते ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के उदय होने पर ( मदथ ) खूब प्रसन्न होते हो उस समय भी ( अह ) निश्चय से ( वः अश्वाः ) आप लोगों के घोड़े (सिस्रतः ) चलते २ भी ( न श्रथयन्त ) शिथिल न हों, और आप लोग (अस्य अध्वनः ) इस बड़े भारी मार्ग के ( पारम् अश्नुथ ) पार पहुंच जाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अध्वनः पारं अश्नुथ
पदार्थ
[१] (यत्) = जब हे (मरुतः) = प्राणो ! (सभरस:) = बल से युक्त (स्वर्णर:) = प्रकाश की ओर ले चलनेवाले तुम (सूर्ये उदिते) = ज्ञान सूर्य के उदय होने पर (मदथा) = सोमपान के आनन्द का अनुभव करते हो । अर्थात् प्राणसाधना के होने पर शरीर सबल बनता है, मस्तिष्क प्रकाशमय । उस समय शरीर में शक्ति की ऊर्ध्व गति होकर जीवन उल्लासमय बनता है । हे प्राणो! आप (दिवः) = प्रकाशमय हो, (नरः) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले हो । [२] हे प्राणो! (वः) = तुम्हारे (अश्वाः) = ये इन्द्रियरूप अश्व (न श्रथयन्त) = ढीले नहीं पड़ते हैं, (अह) = निश्चय से (सिस्त्रतः) = [सरन्तः] ये सदा गतिवाले होते हैं। इस प्रकार हे प्राणो! तुम (सद्यः) = शीघ्र (अस्य अध्वनः) = इस मार्ग के (पारं अश्नुथ) = पार को प्राप्त कराते हो । प्राणसाधना के द्वारा जीवन-यात्रा ठीक से पूरी होती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राण शरीर में बल को व मस्तिष्क में ज्ञान को प्राप्त कराते हुए हमें निरन्तर क्रियाशील बनाते हैं और जीवन यात्रा को सफलता से पूर्ण कराते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सूर्योदयापूर्वी उठून झोपेपर्यंत प्रयत्न करतात ती दुःख व दारिद्र्याचा नाश करतात व सुखी आणि श्रीमंत होतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
0 Maruts, leading lights of the love of life and joy of heaven, you bear the burdens of life together for all and lead them all to celestial joy and the truth of Dharma. You feel delighted and celebrate the sunrise, and never do your horses in harness relent, but galloping on at high speed reach the destined end of this existential highway.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! desiring the welfare of all, the men leading towards true Dharma and happiness, support all together. You rejoice at sun-rise, and your horses never tire in running and you quickly reach the destination.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who get up early in the morning before sun-rise and keep themselves busy with doing good deeds, put an end to the misery and poverty and become rich.
Foot Notes
(नरः) सत्ये धर्मेनेतारः = Leaders in true Dharma (Righteousness and duty ). (सभरसः ) समानपालनपोषण:। = Supporting and guarding together. (स्वर्णर:) ये स्वः सुखं नयन्ति ते ।= Those who lead to happiness.
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