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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 9
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    प्र॒वत्व॑ती॒यं पृ॑थि॒वी म॒रुद्भ्यः॑ प्र॒वत्व॑ती॒ द्यौर्भ॑वति प्र॒यद्भ्यः॑। प्र॒वत्व॑तीः प॒थ्या॑ अ॒न्तरि॑क्ष्याः प्र॒वत्व॑न्तः॒ पर्व॑ता जी॒रदा॑नवः ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒वत्व॑ती । इ॒यम् । पृ॒थि॒वी । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । प्र॒वत्व॑ती । द्यौः । भ॒व॒ति॒ । प्र॒यत्ऽभ्यः॑ । प्र॒वत्व॑तीः । प॒थ्याः॑ । अ॒न्तरि॑क्ष्याः । प्र॒वत्व॑न्तः । पर्व॑ताः । जी॒रऽदा॑नवः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रवत्वतीयं पृथिवी मरुद्भ्यः प्रवत्वती द्यौर्भवति प्रयद्भ्यः। प्रवत्वतीः पथ्या अन्तरिक्ष्याः प्रवत्वन्तः पर्वता जीरदानवः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रवत्वती। इयम्। पृथिवी। मरुत्ऽभ्यः। प्रवत्वती। द्यौः। भवति। प्रयत्ऽभ्यः। प्रवत्वतीः। पथ्याः। अन्तरिक्ष्याः। प्रवत्वन्तः। पर्वताः। जीरऽदानवः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः कथमुपकारो ग्रहीतव्य इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! येयं प्रवत्वती पृथिवी प्रवत्वती द्यौः प्रयद्भ्यो मरुद्भ्यो हितकारिणी भवति यस्यां प्रवत्वन्तो जीरदानवः पर्वता अन्तरिक्ष्याः प्रवत्वतीः पथ्याः वर्षाः कुर्वन्ति ते यथावद्वेदितव्याः ॥९॥

    पदार्थः

    (प्रवत्वती) निम्नदेशयुक्ता (इयम्) (पृथिवी) भूमिः (मरुद्भ्यः) मनुष्यादिभ्यः (प्रवत्वती) प्रणवती (द्यौः) प्रकाशः (भवति) (प्रयद्भ्यः) प्रयत्नं कुर्वद्भ्यः (प्रवत्वतीः) निम्नगामिनीः (पथ्याः) पथे हिताः (अन्तरिक्ष्याः) अन्तरिक्षे भवाः (प्रवत्वन्तः) प्रवणशीलाः (पर्वताः) मेघाः (जीरदानवः) जीवनप्रदाः ॥९॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः पृथिव्याः सकाशाद्यावाञ्छक्यस्तावानुपकारो ग्रहीतव्यः ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को कैसे उपकार लेना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (इयम्) यह (प्रवत्वती) नीचे के स्थान से युक्त (पृथिवी) भूमि और (प्रवत्वती) फैलनेवाला (द्यौः) प्रकाश और (प्रयद्भ्यः) प्रयत्न करते हुए (मरुद्भ्यः) मनुष्य आदिकों के लिये हितकारक (भवति) होता है जिसमें (प्रवत्वन्तः) गमनशील (जीरदानवः) जीवन को देनेवाले (पर्वताः) मेघ (अन्तरिक्ष्याः) अन्तरिक्ष में उत्पन्न (प्रवत्वतीः) नीचे चलनेवाले (पथ्याः) मार्ग के लिये हितकारक वृष्टियों को करते हैं, वे यथावत् जानने योग्य हैं ॥९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि पृथिवी के समीप से जितना हो सकता है, उतना उपकार ग्रहण करें ॥९॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    भा०- ( प्र-यद्भयः ) प्रयत्नशील ( मरुद्भयः ) बलशाली वीर पुरुषों के लाभ के लिये ( इयं पृथिवी ) यह पृथिवी ( प्र-वत्वती) उत्तम फलों से युक्त होती है, एवं उनके आगे झुकती है। उनके लिये ही ( द्यौः प्रवत्वती ) यह विशाल आकाश वा सूर्य भी उत्तम सुखदायक होकर झुकता है । ( अन्तरिक्ष्याः पथ्याः ) मध्य आकाश के मार्ग भी उनके लिये ( प्रवत्वती ) उत्तम फलदायक और उनके समक्ष निम्न हो जाते हैं उनके लिये (पर्वताः) पर्वत भी ( प्रवत्वन्तः ) अपने सिर झुका लेने वाले एवं (जीर-दानवः) जीवनोपयोगी जल औषधि अन्न आदि देने वाले हो जाते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रवत्वती

    पदार्थ

    [१] (इयं पृथिवी) = यह पृथिवीरूप शरीर (मरुद्भ्यः) = इन प्राणों के लिये (प्रवत्वती) = [elevation] उत्कर्षवाला होता है। प्राणसाधना के होने पर शरीर बड़ा स्वस्थ व सबल हो जाता है। इन (प्रयद्भूयः) = प्रकृष्ट गतिवाले प्राणों के लिये (द्यौः) = मस्तिष्करूप द्युलोक भी (प्रवत्वती) = उत्कर्षवाला होता है। प्राणसाधना से मस्तिष्क भी खूब शक्तिशाली बनता है और उत्कृष्ट ज्ञान से परिपूर्ण होता है । [२] (अन्तरिक्ष्यः पथ्या:) = हृदयान्तरिक्ष के मार्ग भी इन प्राणों के लिये (प्रवत्वती:) = उत्कर्षवाले हों। प्राणसाधना से हृदय के अन्दर कोई अशुभ भाव उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार ये मरुत् प्राण हमारे लिये (प्रवत्वन्तः) = उत्कर्षवाले हों, हमें उन्नत स्थिति में प्राप्त करायें, पर्वता:ये हमारा पूरण करनेवाले हों तथा (जीरदानवः) = [क्षिप्रदाना:] शीघ्रता से सब वसुओं के देनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से शरीर, मस्तिष्क व हृदय सब उत्कर्ष को प्राप्त करते हैं। ये प्राण उत्कर्ष को प्राप्त कराते हुए हमारा पूरण करते हैं और शीघ्रता से सब वसुओं को प्राप्त कराते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी पृथ्वीपासून जितका उपकार घेता येईल तितका उपकार घ्यावा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The wide world of abundant ways opens and clears its highways for the Maruts, adventurers who move like winds. The heaven of light extends all her expansive spaces for those who fly. The regions of the skies open up their paths for the winds, and the life giving clouds and mountains open up their depths and caverns for the heroes of initiative and adventure.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men get benefit from others is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! this earth bows down, or becomes beneficial to the industrious (and sturdy. Ed.) people. The sky is also favourably inclined or becomes beneficent to such good and brave men, who do good to others, like the life giving and beneficent clouds which are in the firmament, then quickly rain down water. All this you should know well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should take benefit from the earth and other things to the maximum extent.

    Foot Notes

    (प्रवत्वती) निम्नदेशयुक्ता निम्नगामिनीः । = Sloping down, bowing, going downwards. (प्रवत्वन्त:) प्रवणशीलाः । = Inclined favourably, beneficent. (जीरदानवः) जीवनप्रदाः | = Life giving.

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