ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तं सु॒प्रती॑कं सु॒दृशं॒ स्वञ्च॒मवि॑द्वांसो वि॒दुष्ट॑रं सपेम। स य॑क्ष॒द् विश्वा॑ व॒युना॑नि वि॒द्वान्प्र ह॒व्यम॒ग्निर॒मृते॑षु वोचत् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठतम् । सु॒ऽप्रती॑कम् । सु॒ऽदृश॑म् । सु॒ऽअञ्च॑म् । अवि॑द्वांसः । वि॒दुःऽत॑रम् । स॒पे॒म॒ । सः । य॒क्ष॒त् । विश्वा॑ । व॒युना॑नि । वि॒द्वान् । प्र । ह॒व्यम् । अ॒ग्निः । अ॒मृते॑षु । वो॒च॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं सुप्रतीकं सुदृशं स्वञ्चमविद्वांसो विदुष्टरं सपेम। स यक्षद् विश्वा वयुनानि विद्वान्प्र हव्यमग्निरमृतेषु वोचत् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठतम्। सुऽप्रतीकम्। सुऽदृशम्। सुऽअञ्चम्। अविद्वांसः। विदुःऽतरम्। सपेम। सः। यक्षत्। विश्वा। वयुनानि। विद्वान्। प्र। हव्यम्। अग्निः। अमृतेषु। वोचत् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तज्ज्ञानोपासने आवश्यके भवत इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! येऽविद्वांसस्तं सुप्रतीकं सुदृशं स्वञ्चं विदुष्टरं न विजानन्ति नोपासन्ते तान् वयं सपेम। यो विद्वानग्निर्विश्वा वयुनान्यमृतेषु हव्यञ्च प्र वोचत् सोऽस्मान् यक्षत् ॥१०॥
पदार्थः
(तम्) (सुप्रतीकम्) शोभनानि प्रतीकानि कृतानि येन तम् (सुदृशम्) योगाभ्यासेन द्रष्टुं योग्यं सुष्ठु दर्शकं वा (स्वञ्चम्) यः सुष्ठ्वञ्चति जानाति प्रापयति वा तम् (अविद्वांसः) (विदुष्टरम्) अतिशयितमीश्वरम् (सपेम) आक्रुश्येम (सः) (यक्षत्) सङ्गमयेत् (विश्वा) सर्वाणि (वयुनानि) प्रज्ञानानि (विद्वान्) आविर्विद्यः (प्र) (हव्यम्) दातुमर्हं विज्ञानम् (अग्निः) अग्निरिव प्रकाशमानः (अमृतेषु) नाशरहितेषु कारणजीवेषु (वोचत्) वक्ति ॥१०॥
भावार्थः
ये परमात्मानं नो जानन्ति तदाज्ञानुकूलं नाचरन्ति तान् धिग्धिग्ये च तमुपासते ते धन्याः। योऽस्मान् वेदद्वारा सर्वाणि विज्ञानान्युपदिशति तमेव वयं सर्व उपासीमहि ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसका ज्ञान और उपासना आवश्यक है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (अविद्वांसः) विद्या से रहित जन (तम्) उस (सुप्रतीकम्) सुन्दर कर्म्म किये जिसने तथा (सुदृशम्) योगाभ्यास से देखने योग्य वा उत्तम प्रकार दिखाने और (स्वञ्चम्) अच्छे प्रकार जानने वा प्राप्त करानेवाले (विदुष्टरम्) अत्यन्त विद्वान् ईश्वर को नहीं विशेष करके जानते और न उपासना करते हैं, उनको हम लोग (सपेम) शाप देते हैं और जो (विद्वान्) प्रकट विद्याओं से युक्त (अग्निः) अग्नि के समान स्वयंप्रकाशित हुआ (विश्वा) सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञानों और (अमृतेषु) नाशरहित कारण जीवों में (हव्यम्) देने योग्य विज्ञान को (प्र, वोचत्) अत्यन्त कहता है (सः) वह हम लोगों को (यक्षत्) प्राप्त करावे ॥१०॥
भावार्थ
जो परमात्मा को नहीं जानते और उसकी आज्ञा के अनुकूल आचरण नहीं करते हैं, उनको धिक् है धिक् है और जो उसकी उपासना करते हैं, वे धन्य हैं। और जो हम लोगों के लिये वेदद्वारा सम्पूर्ण विज्ञानों का उपदेश देता है, उसी की हम सब लोग उपासना करें ॥१०॥
विषय
ज्ञानी प्रभु की गुरुवद् उपासना ।
भावार्थ
( तम् ) उस ( सुप्रतीकं ) सुख रूप में प्रतीत होने वाले ( सुदृशं ) उत्तम द्रष्टा, ( स्वञ्चम् ) सुख प्राप्त होने और पूजन करने योग्य, ( विदुस्तरं ) बहुक अधिक विद्वान्, ज्ञानी प्रभु को हम ( अविद्वांसः) अविद्वान् जन ( सपेम ) प्राप्त हों, ( सः विद्वान् ) वह ज्ञानवान्, ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी प्रभु ( विश्वा वयुनानि ) समस्त ज्ञानों को प्रदान करता है । वह ही ( अमृतेषु ) अमर अविनाशी हम जीवों के निमित्त ( हव्यम् ) सदा ग्रहण करने योग्य पवित्र ज्ञान का ( प्र वोचत् ) उत्तम रीति से उपदेश करता है । (२) हम ( सुप्रतीकं ) उत्तम मुख वाले सौम्य मुख, शुभ नेत्र वाले, सुपूज्य विद्वान् के पास ( सपेम ) एक होकर बैठें, वह हमें सब ज्ञानों का उपदेश करे । इत्यष्टादशो वर्गः ।।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'सुप्रतीक सुदृश स्वञ्च' प्रभु
पदार्थ
[१] (अविद्वांसः) = हम अल्पज्ञ जीव (तं विदुष्टरम्) = उस सर्वज्ञ प्रभु को (सपेम) = उपासित करें, पूजें, जो कि (सुप्रतीकम्) = उत्तम तेजस्वितावाले हैं, सब शोभन अंगोंवाले हैं [सर्वेन्द्रिय गुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्] (सुदृशम्) = उत्तम दर्शनवाले व (स्वञ्चम्) = उत्तम गतिवाले हैं। [२] (सः विद्वान्) = वे ज्ञानी प्रभु (विश्वावयुनानि) = सब प्रज्ञानों को (यक्षत्) = हमारे साथ संगत करते हैं और (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु (अमृतेषु) = अमृतत्व [नीरोगता] की प्राप्ति के निमित्त (हव्यं प्रवोचत्) = हव्यों का उपदेश देते हैं, विविध यज्ञों के करने की प्रेरणा देते हैं। इन यज्ञों से ही तो हम नीरोग बनकर प्रभु की भी वास्तविक उपासना कर रहे होंगे। [यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः] ।
भावार्थ
भावार्थ- हम अल्पज्ञ उस 'तेजस्वी ज्ञानी' प्रभु का पूजन करें। प्रभु हमें ज्ञानों को प्राप्त करायेंगे सपेम। और यज्ञों के उपदेश से हमें अमृतत्व प्राप्त करायेंगे ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे परमेश्वराला जाणत नाहीत व त्याच्या आज्ञेनुसार वागत नाहीत त्यांचा धिक्कार असो व जे त्याची उपासना करतात ते धन्य होत. जो आम्हाला वेदाद्वारे संपूर्ण विज्ञानाचा उपदेश देतो त्याचीच आम्ही सर्वांनी उपासना करावी. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We, people of limited knowledge, honour, adore and worship Agni, lord of glorious flames of action, of beatific vision, gracious wielder of the universe, lord almighty over all. May he, Agni, omniscient presence in all knowable objects and laws of existence, bless us and reveal to us, immortal souls, all that ought to be known.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
God's knowledge and communion with Him are absolutely necessary is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! let us condemn those ignorant persons who do not know and adore that Great God, Who has His symbols everywhere or is the Doer of noble deeds, worthy of being seen to the wise leading to liberation with the practice of. Yoga and who knows and shows all things, But let that enlightened person who shining like the fire, tell the immortal souls the knowledge received which is worth giving and enlighten us also about all things.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Woe to those persons who do not know God and don't obey His commands in practical life, but blesse are those who adore Him. Let us worship or have communion with that one God Who gives us all knowledge through the Vedas.
Foot Notes
(सुदृशम् ) योगाभ्यासेन द्रष्टुं योग्यं सुष्ठु दर्शकं वा । = He who is worth seeing with the practices of Yoga or who shows all well. (हव्यम्) दातुमहं विज्ञानम् । ( हव्यम् ) हु-दानादनयोः आदाने च अत्र दानार्थंग्रहणम् । = Knowledge which is worth giving. (स्वञ्चम् ) यः सुष्ठु अंचति जानाति प्रापयति वा तम् । ( स्वचम् ) सु + अंचु गतिपूजनयोः (भ्वा० ) | = Who knows thoroughly or leads to bliss.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal